इस हफ्ते के आखिर में वाशिंगटन में जी-20 देशों के शासन प्रमुखों की बैठक होने वाली है जिसमें प्रमुख औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं के साथ साथ भारत जैसी प्रमुख उभरती आर्थिक अर्थव्यवस्थाएं भी शामिल होंगी।
इस बैठक में आर्थिक मोर्चों पर जो दबाव और मतभेद हैं, उन पर खुल कर चर्चा होने की संभावना है। एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश में इस बार कोई खास दम खम नहीं होगा क्योंकि उनके अगले उत्तराधिकारी का चुनाव हो चुका है।
वहीं दूसरी ओर बैठक में शामिल होने वाले दूसरे देश इस मंच पर अपने विचारों को खुल कर रखेंगे और स्वाभाविक है कि उनमें मतभेद भी दिखेगा। यूरोपीय देश इस मंच पर एक साझा विचार रखने के लिए पहले ही एक बैठक कर चुके हैं।
हालांकि यह बैठक पूरी तरह सफल नहीं रही (ब्रिटेन वित्तीय केंद्र के तौर पर लंदन का बचाव करने के मूड में है जबकि एक महाद्वीप के रूप में यूरोप की अपनी दूसरी प्राथमिकताएं हैं)। फिर भी बैठक में इस बात को लेकर आम राय बनी कि वैश्विक वित्तीय ढांचे में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का स्थान सर्वोपरि बना रहे।
फिलहाल आईएमएफ इस स्थिति में नहीं है कि वैश्विक वित्तीय प्रणाली में वह केंद्रीय भूमिका निभा सके क्योंकि उसके पास सीमित संसाधन (कुल मिलाकर 250 अरब डॉलर) हैं। यह जरूर है कि आईएमएफ के संसाधनों का विस्तार किया जा सकता है पर विशेष निकासी अधिकार (एसडीआर) केजरिए इतने बड़े पैमाने पर नकदी की व्यवस्था करना उसके लिए संभव नहीं लगता।
और अगर ऐसा किया जाना है तो इसके लिए आईएमएफ के चार्टर में महत्त्वपूर्ण संशोधन करने पड़ेंगे जिसके लिए 180 देशों के हस्ताक्षर चाहिए होंगे और इसमें काफी समय लगेगा। पर अमेरिका नहीं चाहता कि आईएमएफ की शक्तियां बढ़ें क्योंकि ऐसा होने पर उसे अपने ढंग से काम करने की छूट नहीं रह जाएगी।
यही वजह है कि उसने कई देशों के साथ डॉलर की अदला बदली की व्यवस्था कर रखी है। पहले यह उन विकसित देशों के साथ किया गया था जहां मुद्रा की पूर्ण परिवर्तनीयता है और तब मकसद नकदी की व्यवस्था करना ही था। पर बाद में इस समझौते का रंग बदला।
अमेरिका ने यह समझौता उन देशों के साथ भी किया जिनके पास पहले से ही डॉलर का विशाल भंडार है और जहां मुद्रा की पूर्ण परिवर्तनीयता भी नहीं है। साफ है कि इस बार मकसद यह नहीं था कि डॉलर की उपलब्धता बनाई जाए। वजह चाहे जो भी हो पर अमेरिका यह चाहेगा कि आईएमएफ की शक्तियां न बढ़ने पाए और वैश्विक नकदी संकट से निपटने के लिए वह अपनी तरफ से ही कदम उठाना चाहेगा।
वहीं दूसरी ओर उभरती अर्थव्यवस्थाएं चाहेंगी कि एक ऐसी वित्तीय प्रणाली तैयार की जाए जो उनकी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित अर्थव्यवस्थाओं में पनपे संकट से बचा कर रख सके। इसके लिए विकसित अर्थव्यवस्थाओं पर बेहतर निगरानी की जरूरत होगी (पर अमेरिका इससे निश्चित तौर पर बचना चाहेगा) और आईएमएफ और विश्व बैंक को भी अधिक वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होगी।
अगर ऐसा होता है तो बुनियादी क्षेत्रों में ज्यादा से ज्यादा निवेश संभव हो पाएगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन मुद्दों को उठाने के लिए बेहतर स्थिति में हैं उन्हें इस काम में ज्यादा मुश्किल इसलिए भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि मौजूदा समय में सभी देशों को भारत और चीन के महत्त्व का अंदाजा है।