लक्षित योजनाएं जिन लोगों के लिए शुरू की जाती हैं, उनके साथ सामान्यत: ऐसा बर्ताव होता है मानो उन पर प्रयोग किया जा रहा हो।
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदायों के लोगों के मामले में तो ऐसा कुछ ज्यादा ही होता है। हाल ही में कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों की शुरुआत के रूप में इस तरह का प्रयोग किया गया। इसका उद्देश्य था कि जो बच्चियां पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देती थीं उन्हें शिक्षा की ओर फिर से मोड़ा जाए।
बिहार और मध्य प्रदेश में करीब 50 प्रतिशत ऐसी लड़कियां पांचवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं। इसके बाद सरकार ने एससी एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय को शिक्षा से जोड़ने के लिए लड़कियों के लिए ट्राइबल मॉडल स्कूल शुरू करने की योजना बनाई है। इसमें सामान्य श्रेणी की 25 प्रतिशत लड़कियों को भी प्रवेश दिए जाने की योजना है। इस योजना में यह विचार है कि 100 ऐसी लड़कियों को छठी से आठवीं कक्षा तक में प्रवेश दिया जाए, जिन्होंने किन्हीं कारणों से स्कूल छोड़ दिया है। हालांकि इसके बाद ये लड़कियां क्या करेंगी, इस मसले का इस योजना से कोई वास्ता नहीं है।
सरकार ने सर्व शिक्षा अभियान के तहत मार्च 2007 तक 2,180 कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों को मंजूरी दी है। लेकिन इसमें एक समस्या है। जिन बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है, उनमें से ज्यादातर के माता पिता अशिक्षित हैं और वे किसी भी हालत में उन्हें बोर्डिंग स्कूलों में भेजने को तैयार नहीं हैं। इन बच्चों को स्कूल से जोड़ने का एक ही तरीका हो सकता है कि इन्हें सरकार जबरदस्ती इन स्कूलों में डाल दे।
यह एक अलग मामला है कि ऐसी समस्या से निपटने के लिए बोर्डिंग की सुविधा वर्तमान स्कूलों से जोड़ दी जाए, जो अति पिछड़े इलाकों में हैं, उनकी शिक्षा प्रणाली को रुचिकर बनाया जाए, इन्हें ऑडियो-विजुअल प्रशिक्षण प्रणाली से जोड़ा जाए और ये सब सुविधाएं ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में हों, इसके साथ ही इन स्कूलों को विश्वविद्यालय की शिक्षा से जोड़ दिया जाए, वहां पर प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति हो… और रुडयार्ड किपलिंग जैसे लोग वहां पर जा सकें।
कस्तूरबा गांधी विद्यालय बनाने में 100 लड़कियों की क्षमता वाले एक विद्यालय पर करीब 44 लाख रुपये का खर्च आता है। निश्चित रूप से इतने पैसे से 10 विद्यालयों में सुधार किया जा सकता है, जहां स्कूल छोड़कर जाने वाले बच्चों की संख्या ज्यादा है। इससे निश्चित रूप से स्कूल छोड़कर भागने वाले विद्यार्थियों की संख्या में कमी आएगी। एडोबी और जान्सा जैसी तमाम कंपनियां शिक्षा को प्रभावी और रुचिकर बनाने के लिए कोशिश कर रही हैं। एडोबी बच्चों को उनके जीवन पर फिल्म बनाने में मदद करती है, जो उन्होंने शिक्षा के दौरान सीखी है।
जान्सा और कई अन्य आईटी कंपनियों के कर्मचारी सरकारी स्कूलों के कामों में मदद करते हैं। लेकिन यह सभी कोशिशें शहरी प्रवृत्ति की हैं। कस्तूरबा गांधी विद्यालयों में छात्राओं के लिए ब्रिज कोर्स भी चलते हैं, जिससे उन्हें सीधे छठी कक्षा में प्रवेश मिल सके। लेकिन वे उन सरकारी स्कूलों की कार्यप्रणाली पर ही चलते हैं, जिन्होंने लड़कियों की शिक्षा को मंझधार में ही छोड़ दिया है। कस्तूरबा गांधी विद्यालयों के लिए काम करने वाले शिक्षाविद लतिका गुप्ता और कृष्ण कुमार ने अपने हाल के एक लेख में लिखा है कि इन स्कूलों में पैरा-टीचर्स की नियुक्ति होती है, वे नवोदय विद्यालयों के शिक्षकों जैसे नहीं होते।
परंपरागत स्कूलों के समर्थक एक अन्य शिक्षाविद विनोद राणा का कहना है कि इन तरह के प्रयोगों से कोई मदद नहीं मिलने वाली है। केंद्र सरकार अपने करोड़ों रुपये सही दिशा में खर्च करके बेहतर परिणाम पा सकती है, बजाए इसके कि 100 छात्राओं को ऐसी जगह बंधक के रूप में रखा जाए, जहां न तो शिक्षकों की पर्याप्त संख्या है, न ही पुस्तकालय और खेल के मैदान तथा शिक्षकों के रहने के लिए जगह है। सर्व शिक्षा अभियान के कुल बजट का 7 प्रतिशत इन योजनाओं पर खर्च किया जाता है।
इस मामले में सभी अधिकारियों को फिर से विचार करना चाहिए, जिससे इस तरह की तमाम योजनाओं में समन्वय स्थापित किया जा सके। कोठारी आयोग ने कुछ दशक पहले ही अपनी रिपोर्ट में सलाह दी थी कि स्कूलों को विश्वविद्यालयों से जोड़ा जाना चाहिए। अध्यापकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि ज्यादातर प्रतिभाओं को पेशेवर बनाया जा सके।
अगर सर्व शिक्षा अभियान में इस तरह के परिवर्तन किए जाएं कि मौजूदा विद्यालयों की शिक्षा प्रणाली में सुधार हों, इसमें निजी भागीदारी ली जाए या न ली जाए, तो सच्चे अर्थों में एक नई शुरुआत हो सकती है। इससे बच्चों को शिक्षा के नाम पर दी जा रही संपत्ति का सही मतलब भी निकलेगा।