स्वामी प्रसाद मौर्य की राजनीतिक यात्रा किसी से छुपी नहीं है। मौर्य पांच बार से विधायक हैं और उत्तर प्रदेश के कद्दावर गैर-यादव अन्य पिछड़ी जाति (ओबीसी) नेता माने जाते हैं। वह प्रदेश के कुशीनगर जिले के पडरौना क्षेत्र से पिछले तीन विधानसभा चुनाव जीतते आ रहे हैं। मौर्य ने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1980 के दशक में में युवा लोक दल के संयोजक के रूप में की थी। बाद में वह जनता दल में शामिल हो गए और फिर 1996 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का हिस्सा बन गए। वह 1996 में बसपा के टिकट पर विधायक चुन कर आए और भाजपा समर्थित मायावती सरकार में मंत्री बन गए। वह बसपा में मायावती के बाद सबसे ताकतवार नेता समझे गए और दो दशक तक पार्टी से जुड़े रहे। वह दो बार मंत्री और दो बाद नेता प्रतिपक्ष बने। वह एक बार बसपा के अध्यक्ष भी नियुक्त हुए थे। वह 2017 के विधानसभा चुनाव से कुछ महीनों पहले 2016 में भाजपा में शामिल हुए थे। वह अपनी पुत्री संघमित्रा को भी भाजपा से लोकसभा का टिकट दिलाने में सफल रहे। मगर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से कुछ ही हफ्तों पहले वह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। उन्हें इस बात की आशंका थी कि भाजपा उनकी सीट पडरौना से उनके बजाय किसी और को टिकट दे सकती थी। दूसरी तरफ भाजपा नैतिकता का हवाला दे रही है। पार्टी का दावा है कि वह भाई-भतीजावाद में विश्वास नहीं रखती है। भाजपा का कहना है कि स्वामी अपने परिवार के कई सदस्यों के लिए टिकट मांग रहे थे। हालांकि भाजपा को उनकी पुत्री को लोकसभा चुनाव का टिकट देने में ऐसी कोई परेशानी महसूस नहीं हुई थी।
क्या खत्म हो गया स्वामी का सफर? ऐसा नहीं कहा जा सकता। मौर्य भाजपा में उभर आए नए विरोध का संकेत हैं। भाजपा के कई मौजूदा नेता दूसरे दलों से आए हैं। गृह मंत्री अमित शाह का एक वक्तव्य इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण हो जाता है। शाह ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कहा था कि कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को छोड़कर सभी दलों के नेता भाजपा के संपर्क में हैं या टिकट चाहते हैं। 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले सपा और बसपा के कई नेता भाजपा में आए थे। उनमें लगभग 12 राज्य सरकार में मंत्री बनाए गए। मौर्य उन्हीं नेताओं में एक थे।
अब राज्य के आगामी विधानसभा चुनाव के संदर्भ में पूरे हालात पर विचार करते हैं। अगर परिस्थितियां सामान्य रही होतीं तो भाजपा थोड़ी राहत की स्थिति में होती। सरकार संचालित विभिन्न योजनाओं के लाभार्थी भाजपा के साथ हैं और सभी राज्यों में भाजपा के बूथ-स्तरीय कार्यकर्ता इन लोगों को भाजपा के लिए मतदान कराने में सफल रहे हैं।
मगर उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव कोविड-19 महामारी के बीच हो रहा है। एक बड़े केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्राध्यापक ने नाम सार्वजनिक नहीं करने की शर्त पर बताया, ‘लोग कोविड-19 महामारी के लिए भाजपा को दोष नहीं दे रहे हैं। मगर वे बिगड़ते हालात से जरूर परेशान और क्रोधित हैं। नौकरियों से छंटनी, आजीविका की कमी और अस्पतालों में बिस्तरों एवं ऑक्सीजन की कमी आदि से लोग खफा दिखाई दे रहे हैं। कोई भी व्यक्ति पिछले वर्ष अप्रैल-मई में मचे कोलाहल को भूल नहीं पाया है। उत्तर प्रदेश में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो फिलहाल शांत है और उन्हें कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता है।’
भाजपा को भी इस बात का अहसास है और उसने नुकसान की भरपाई के इंतजाम भी करने शुरू कर दिए हैं। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में योगी आदित्यनाथ को कार्यवाही की शुरुआत करने के लिए कहा गया था। यह एक असामान्य बात थी क्योंकि आम तौर पर पार्टी अध्यक्ष राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कार्यक्रम की शुरुआत करते हैं। इतना ही नहीं, योगी की सीट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ठीक बगल में तय की गई थी। दरअसल भाजपा अपने मतदाताओं को यह संकेत देना चाहती थी कि योगी और ‘डबल इंजन’ की सरकार में उनके विश्वास का आधार खोखला नहीं है।
हालांकि दलित विषयों पर शोध करने वाले चंद्रभान प्रसाद भाजपा के इन संकेतों और हावभाव से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि मौर्य का भाजपा से निकलना एक बड़ा संकेत है जिसका असर दूर तक होगा। प्रसाद ने कहा, ‘एक समय था जब ओबीसी का अभिप्राय केवल यादव और कुर्मी से होता था। मायावती जब सत्ता में थीं तो उन्होंने कुछ पिछड़ी ओबीसी को भी इस वर्ग में शामिल कर लिया। मगर भाजपा ने गैर-यादव ओबीसी पर अधिक ध्यान दिया। ओबीसी में शामिल पिछड़ी जातियां दो कारणों से भाजपा के साथ हो गईं। पहली सोच यह थी कि यादवों की मनमानी बंद होनी चाहिए क्योंकि वे ओबीसी के नाम पर सभी लाभ ले जाते हैं। दूसरा कारण मुस्लिम विरोधी धु्रवीकरण था।’
अब प्रसाद को लगता है कि ये लोग अब वास्तविकता से अवगत हो गए हैं। इन लोगों का भाजपा से मोह भंग हो रहा है। उन्होंने कहा, ‘ऐसे लोग अब नया ठिकाना खोज रहे हैं। यह बात मायने नहीं रखती कि वे भाजपा से बाहर निकल रहे हैं या नहीं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे उन सभी बातों से दूर जा रहे हैं जिनके लिए भाजपा जानी जाती है। दलित शिक्षित मध्यम वर्ग भी भाजपा का साथ छोड़कर सपा के साथ जुड़ रहा है क्योंकि उन्हें लगता है किसी दलित को मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनाने से अधिक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य भाजपा को हराना है।’
प्रसाद यह कहने से भी नहीं चूकते हैं कि भाजपा के साथ जुड़े कुछ जाति समूह अब भी बने हुए हैं। वह कहते हैं, ‘ठाकुर और वैश्य अब भी भाजपा के साथ हैं। कुर्मी, गुर्जर और लोध जातियां भी भाजपा का साथ दे रही हैं। मगर उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व का नारा कमजोर पड़ चुका है और इसे दोबारा मजबूत बनाना लगभग मुश्किल हो गया है।
