पाकिस्तान में आर्थिक सुधारों की कहानी 1999 से शुरू होती है जो 2006 तक सफलता के रास्ते पर चलती रही। 2006 से 2008 के बीच हालत पतली हुई और आज पाकिस्तान दिवालिया होने की ओर बढ़ रहा है। ऐसा क्यों हुआ?
अक्टूबर 1999 में परवेज मुशर्रफ के सत्ता संभालने के बाद दूसरी पीढ़ी के सुधार कार्यक्रम शुरू हुए और सरकारी संस्थानों का जीर्णोध्दार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सहयोग से होने लगा। इसके परिणाम भी बेहतर आए। पाकिस्तान 2004 से वैश्विक बाजारों का लाभ उठाने लगा।
पाकिस्तान सुधार लागू करने में दक्षिण एशिया में पहले स्थान पर और विश्व में 10 में से एक था। निजीकरण की योजना से बहुत लाभ हुआ, सभी क्षेत्रों से निवेश आने लगे- खासकर पश्चिम एशिया, पूर्वी एशिया और यूरोप से। सभी सरकारी उपक्रमों का निजीकरण कर दिया गया।
इन्फ्रास्ट्रक्चर, वित्तीय क्षेत्र, पॉवर, तेल और गैस, विनिर्माण और शिप बिल्डिंग में संभावनाओं के द्वार खुल गए। हमने प्रतिस्पर्धा प्राधिकार, सांख्यिकी प्राधिकार का गठन किया, सिक्योरिटी ऐंड एक्सचेंज कमीशन को ठीक किया और अपने बाजार पूंजी को बढ़ाया। हमने करों को कम किया, लेकिन ऐसा तंत्र विकसित किया जिससे कर का दायरा बढ़ा।
पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार में 12 फरवरी 2004 को एक बार फिर आया। हमने 50 करोड़ डॉलर के 5 साल की अवधि वाले यूरोबॉन्ड्स जारी किए। हमने जनवरी 2005 में 60 करोड़ डॉलर के इस्लामिक सुकुक बॉन्ड जारी किए, 50 करोड़ डॉलर के 10 साल की अवधि के यूरो बॉन्ड, 30 करोड़ डॉलर के 30 साल के लिए बॉन्ड 2006 में जारी किए। 2007 में विदेशी निवेश 8 अरब डॉलर के आंकड़े को पार कर गया।
दिसंबर 2007 में जब बेनजीर भुट्टो की हत्या हुई तो उसका असर अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा। बहरहाल चुनाव के बाद स्थिति में सुधार आया और निवेशकों ने इसका स्वागत किया। शेयर बाजार ने भी सकारात्मक संकेत दिए और अप्रैल 2008 में 15,800 के उच्चतम अंक पर पहुंच गया। राजनीतिक संक्रमण के चलते आर्थिक मसलों पर ध्यान न दिए जाने से बाजार धराशायी हो गया और वह 9,000 अंकों पर आ गया।
तो आखिर अप्रैल 2008 से अब तक क्या हुआ?
इस दौरान तीन वित्त सचिव आए और तीन वित्तमंत्री हुए। अप्रैल-मई 2008 में सरकार ने डॉलर की अपने बाजार में आगत बढ़ाने के लिए व्यापक पूंजी खाता लेनदेन शुरू किया, क्योंकि कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने से घरेलू बाजार से तेजी से डॉलर की निकासी हो रही थी।
नई सरकार ने लेनदेन निरस्त कर दिया, जिसके चलते 4-5 अरब डालर आया था। अब हम इसके लिए आईएमएफ से बातचीत कर रहे हैं। इससे डॉलर के आने पर रोक लगी। निवेशकों का भरोसा टूटा और वे बाजार से जाने लगे।
वह कौन सी लेन-देन विधि थी, जिसे निरस्त कर दिया गया?
पाकिस्तान स्टेट ऑयल के निजीकरण में देरी कर दी गई। हमारे पास कुछ अच्छे निवेशक थे, जिसमें बीपी, शेल, पेट्रोनास, कुवैत इनवेस्टमेंट हाउस आदि शामिल हैं। इसके चलते हमारा डॉलर का भंडार खराब स्थिति में पहुंच गया।
आखिर इसे निरस्त क्यों किया गया?
नई सरकार ने कहा कि हम न केवल इस मामले को बल्कि सभी नीतियों को नए सिरे से देखेंगे। इससे तेल की कीमतों में असामान्य बढ़ोतरी और देश से बाहर जाते डॉलर का अतिरिक्त दबाव पड़ा। इसके चलते मुद्रा भंडार पर नकारात्मक असर पड़ा।
परोक्ष रूप से देखें तो दोहरा नुकसान हुआ, विदेशी निवेशक बाजार से पैसा निकालकर किनारा कसने लगे और घरेलू निवेशक दूसरे देशों में पैसा लगाने लगे। अप्रैल 2008 में निजी बैंकों से होने वाले लाभ को भुनाने में सरकार असफल रही।
आखिर में ऐसा क्या हुआ कि अप्रैल मई 2008 में बाजार 15,700 अंकों पर था और सितंबर-अक्टूबर 2008 में 9,100 अंकों पर आ गया। हमारे लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार बंद हो गए। अब हमें इंतजार करने होगा कि हमारे बाजार उस ऐतिहासिक स्तर पर आएं और विश्वास वापस लौटे। लेकिन चीजें सुधर रही हैं। खाद्य और जिंसों की कीमतें गिर रही हैं।
क्या ऐसा इसलिए हुआ कि पाकिस्तान में सुधार तर्कसंगत नहीं था, राजनीतिक आमराय की कमी थी और यह राजनीति की बंधक बन गई?
नई सरकार चीजों को बहुत तेजी से समझ रही है। वह महसूस कर रही है कि वैश्विक हकीकतों को ध्यान में रखते हुए नीतियां तैयार करनी होंगी। इसलिए इसमें लोकप्रियता सही ढंग से नहीं काम कर सकती। दक्षिण एशियाई देशों पर अर्थव्यवस्था पर राजनीति हावी रहती है, जो बहुत बड़ी कमजोरी है।
पाकिस्तान में कुछ महीने पहले गेहूं की भयंकर कमी थी, वहां पर लूट जैसी स्थिति थी…
पाकिस्तान में दुकानों से गेहूं का अचानक गायब होना आपूर्ति की समस्या की वजह से हुआ। यह कोई ढांचागत समस्या नहीं थी। घरेलू बाजार और वैश्विक बाजार की कीमतों में करीब 200-500 डॉलर प्रतिटन का अंतर था। गेहूं की तस्करी पाकिस्तान से मध्य एशिया को होने लगी और सरकार के पास इसे रोकने का कोई साधन नहीं था।