निर्यात में मौजूदा तेजी ने देश को चालू वित्त वर्ष के लिए 400 अरब डॉलर का लक्ष्य तय करने में सक्षम बनाया है। मौजूदा दर के हिसाब से वित्त वर्ष का अंत 410 अरब डॉलर मूल्य के वस्तु निर्यात के साथ हो सकता है। बीते कई वर्षों से निर्यात के ठहरे हुए स्तर के हिसाब से यह अहम उपलब्धि होगी। चालू वर्ष में निर्यात में इजाफा इसलिए हुआ कि इंजीनियरिंग वस्तुओं, पेट्रोलियम उत्पादों और रासायनिक पदार्थों के निर्यात ने अहम भूमिका निभाई। भारत के पास निर्यात वृद्धि और उसके स्तर दोनों को लेकर उत्साहित होने की वजह है लेकिन यह देखना होगा कि यह रुझान कब तक बना रहता है। इस बीच वैश्विक जिंस कीमतों में इजाफे ने देश के आयात को रिकॉर्ड 589 अरब डॉलर के स्तर तक पहुंचा दिया है। यानी हमारा व्यापार घाटा 189 अरब डॉलर रह गया है।
भारत के निर्यात में वृद्धि के कई कारण हैं। वैश्विक बाजारों में जिंसों की ऊंची कीमतों ने मूल्य में इजाफा किया है। उदाहरण के लिए पेट्रोलियम उत्पादों ने कुल निर्यात में 15 फीसदी का योगदान किया और चालू वित्त वर्ष में इसमें काफी बढ़ोतरी हुई है। इसके अलावा विश्व अर्थव्यवस्था के महामारी से उत्पन्न उथलपुथल से उबरने का भी निर्यात को सहारा मिला है। दुनिया भर की कंपनियां बड़ी तादाद में अपनी इन्वेंटरी में नए सिरे से भंडारण कर रही हैं। वस्तु निर्यात का वैश्विक वृद्धि से मजबूत संबंध है और जैसा कि क्रिसिल के अर्थशास्त्रियों ने दर्शाया भी है इंजीनियरिंग वस्तुओं, रसायनों, पेट्रोलियम उत्पादों और रत्न एवं आभूषण आदि जिनकी देश के निर्यात में उच्च हिस्सेदारी है, वे वैश्विक वृद्धि को लेकर भी अधिक लचीले हैं। ऐसे में देश के निर्यात का प्रदर्शन काफी हद तक वैश्विक वृद्धि की दर पर निर्भर करेगा।
बहरहाल, अनुमान यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में धीमापन आएगा। इसकी कई वजह हो सकती हैं। मौजूदा भू-राजनीतिक अनिश्चितता ने जिंस कीमतों में इजाफा किया है और वह वृद्धि को प्रभावित करेगी। इसके अलावा बड़े केंद्रीय बैंक, खासकर अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दरों में इजाफा करना शुरू कर दिया है। अमेरिकी बॉन्ड बाजार की हालिया बिकवाली से यही संकेत निकलता है कि आने वाले महीनों में वित्तीय हालात तंग हो सकते हैं। इसका असर वैश्विक वृद्धि पर भी पड़ेगा। इसके अलावा चीन तथा अन्य देशों में कोविड के मामलों में आ रही तेजी भी आपूर्ति शृंखला को प्रभावित करेगी। इसके परिणामस्वरूप उत्पादन में कमी आएगी और मुद्रास्फीति बढ़ेगी। ऐसे में भू-राजनीतिक अनिश्चितता और धीमी वैश्विक वृद्धि आने वाली तिमाहियों में भारतीय निर्यात के लिए अहम जोखिम साबित होगी। व्यापक नीति के स्तर पर देखें तो माहौल में ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है और वह मध्यम अवधि में सतत उच्च निर्यात बरकरार रखने के लिए अनुकूल नहीं है। भारत पिछले कई वर्षों से शुल्कों में इजाफा कर रहा है। इसका असर मध्यम से दीर्घ अवधि में देखने को मिलेगा। उच्च शुल्क वैश्विक मूल्य शृंखला में भागीदारी पर असर डालता है जबकि निर्यात में निरंतर उच्च वृद्धि के लिए वह आवश्यक है।
भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) में भी शामिल नहीं होने का निर्णय लिया जबकि उसे विश्व का सबसे जीवंत कारोबारी समूह कहा जा रहा है। भारत कई देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापारिक सौदों पर बातचीत कर रहा है जिसमें समय लग सकता है और वह आरसेप में शामिल न होने की भरपाई भी नहीं करेगा। बदलते वैश्विक माहौल में भारत को इस निर्णय पर दोबारा सोचना चाहिए। निकटवर्ती नीतिगत प्र्रबंधन के संदर्भ में भारत को रुपये का प्रबंधन करना होगा ताकि निर्यात को मदद मिल सके। चालू खाते का बढ़ा हुआ घाटा और आने वाली तिमाहियों में पूंजी का बहिर्गमन रुपये पर दबाव डालेगा। रिजर्व बैंक के लिए यह अहम होगा कि वह रुपये का सहज अवमूल्यन होने दे। मुद्रास्फीति को थामने के लिए रुपये का बचाव करने की कोशिश निर्यात पर असर डालेगी और दीर्घावधि का वृहद आर्थिक असंतुलन पैदा करेगी।
