व्यापक अनुमान तो यही है कि भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) आज शुरू हो रही बैठक में नीतिगत दरों और अपने रुख दोनों में यथास्थिति बरकरार रखेगी। हालांकि वित्तीय बाजार यह जानना चाहेंगे कि क्या केंद्रीय बैंक अब नीति सामान्यीकरण की प्रक्रिया के लिए तैयार है या फिर वह अभी भी प्रतीक्षा करना और बाजार में भारी पैमाने पर नकदी की मदद से ब्याज दरों को कम रखते हुए वृद्धि का समर्थन करना चाहता है। अल्पावधि की बाजार दरें पिछले काफी समय से रिवर्स रीपो दर से कम हैं। दीर्घावधि के लक्षित रीपो परिचालन जैसे उपायों की मदद से व्यवस्था में नकदी बढ़ाने के अलावा केंद्रीय बैंक ने सरकारी प्रतिभूतियों के अधिग्रहण के साथ बॉन्ड प्रतिफल का प्रबंधन करते हुए बैलेंस शीट के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई थी। आरबीआई ने कई कदम उठाए मसलन, रिवर्स रीपो दर में विसंगतिपूर्ण कमी और ऐसे कदम तकनीकी रूप से मौद्रिक नीति समिति के दायरे से भी बाहर रहे। परंतु समिति को उच्च नकदी की उपयोगिता स्पष्ट करने में और समय देना चाहिए क्योंकि इसका मध्यम अवधि के मुद्रास्फीतिक अनुमानों तथा निष्कर्षों पर प्रत्यक्ष असर होता है।
कई ऐसी वजह हैं जिनकी बदौलत रिजर्व बैंक को औपचारिक रूप से नीति सामान्यीकरण की शुरुआत करनी चाहिए और इसे प्रभावी ढंग से वित्तीय बाजारों तक पहुंचाना चाहिए। जैसा कि बाहरी सदस्य जयंत वर्मा ने पिछली बैठक में कहा भी था, बाजार दरों को रीपो दर के करीब लाना चाहिए। हालांकि शीर्ष मुद्रास्फीति की दर में कुछ कमी आई है और विश्लेषकों का अनुमान है कि खाद्य कीमतों में कमी तथा गत वर्ष के उच्च आधार के कारण निकट भविष्य में इसमें और कमी आ सकती है। ऐसे में दरें तय करने वाली समिति को सतर्क रहना होगा और मुद्रास्फीति को 4 फीसदी रखने के लक्ष्य के साथ काम करना होगा। गत वित्त वर्ष के दौरान औसत मुद्रास्फीति की दर तय दायरे से ऊपर रही और केंद्रीय बैंक का अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष में यह 5.7 फीसदी रहेगी। इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात यह है कि हाल के सप्ताहों में वैश्विक जिंस कीमतें तेजी से ऊपर गई हैं। प्राकृतिक गैस, कच्चे तेल और बिजली की ऊंची कीमतें चीन समेत कई देशों में औद्योगिक उत्पादन को प्रभावित कर रही हैं। वैश्विक बाजार में जिंस कीमतों में तेजी भारत में भी कीमतों को गति प्रदान करेगी।
इसके अलावा टीकाकरण बढऩे के साथ ही आर्थिक गतिविधियां भी तेज हो रही हैं। मौजूदा हालात में अतिशय मौद्रिक समायोजन शायद सर्वश्रेष्ठ नीतिगत प्रतिक्रिया न हो। निश्चित रूप से कई ऐसे क्षेत्र जो वापसी नहीं कर सके हैं। ऐसे कारोबारों और परिवारों को राजकोषीय साधनों से मदद मिलनी चाहिए जिनको मौद्रिक नीति से मदद मिलती नहीं दिखती। व्यवस्था में अतिरिक्त नकदी उपभोक्ताओं और परिसंपत्ति कीमतों दोनों को प्रभावित कर सकती है जिसके दीर्घकालिक परिणाम हो सकते हैं।
इसके अलावा सरकार के राजस्व में उल्लेखनीय सुधार हुआ है और उसकी उधारी बजट अनुमान से कम रह सकती है। ऐसे में आरबीआई पर सरकार के उधारी कार्यक्रम को पूरा करने का दबाव कम होगा और वह मूल्य स्थिरता के जोखिम को हल कर सकता है। हालांकि आरबीआई ने 10 वर्ष के सरकारी बॉन्ड के प्रतिफल को हाल के महीनों में 6 फीसदी से ऊपर जाने दिया है लेकिन उसे बाजार दरों का व्यापक समायोजन होने देना चाहिए। कहने का आशय यह नहीं है कि केंद्रीय बैंक को नीतिगत दर में इजाफा करना चाहिए। पहले उसे अल्पावधि की दरों को नीतिगत दायरे में लाना होगा और फिर दायरे को सामान्यीकृत करना होगा। यह जानना अहम है कि इस प्रक्रिया में देरी से जोखिम बढ़ सकता है और केंद्रीय बैंक की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है।
