कोविड-19 महामारी के कारण लगा लॉकडाउन हटने के बाद से आर्थिक गतिविधियों में सुधार का सिलसिला जारी है और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के मुताबिक चालू तिमाही में ही अर्थव्यवस्था में गिरावट का सिलसिला थम जाएगा। अग्रिम कर संग्रह के ताजा आंकड़े भी सुधार के संकेत देते हैं। हालांकि अर्थव्यवस्था में अनुमान से तेज सुधार जहां उत्साहित करने वाला है, वहीं नीति निर्माताओं के लिए भी यह अहम है कि वे सुधार की प्रकृति पर नजर बनाए रखें। कई ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए राजस्व में गिरावट के बावजूद सूचीबद्ध कंपनियों का परिचालन लाभ दूसरी तिमाही में 25 फीसदी से अधिक बढ़ा। ऐसा इसलिए हुआ कि लागत में काफी कमी की गई। इसमें कर्मचारियों की लागत भी शामिल है। महामारी की शुरुआत से ही कंपनियां कर्मचारियों के वेतन भत्तों में कटौती कर रही हैं। मझोले आकार की सूचीबद्ध कंपनियों का वेतन बिल वर्ष की पहली छमाही में 10 फीसदी कम हो चुका है। छोटी कंपनियों तथा असंगठित क्षेत्र में रोजगार और वेतन में और अधिक कटौती हुई है। व्यापक स्तर पर देखें तो ऐसे समय में जबकि वेतन और अर्थव्यवस्था दोनों में गिरावट है, तब सूचीबद्ध कंपनियों के मुनाफे में इजाफा यह दर्शाता है कि आय का वितरण पूंजी के पक्ष में स्थानांतरित हो रहा है। जैसा कि अर्थशास्त्री साजिद चिनॉय ने कहा भी था कि यह मांग को प्रभावित कर सकता है। स्पष्ट कहा जाए तो मौजूदा माहौल में कंपनियों के पास वेतन कटौती की वजह है। परंतु यदि सभी कंपनियां यही करेंगी तो इसका असर भविष्य में आय और मांग पर पड़ेगा। कोविड संकट ने आर्थिक गिरावट को भी गति दी है।
इस संकट को लेकर जो नीतिगत प्रतिक्रिया दी जा रही है वह भी अनचाहे आर्थिक हालात तैयार कर रही है। खासतौर पर भारत में केंद्रीय बैंक ने अधिकांश बोझ उठाया है। उसने दरों में कटौती की है और वित्तीय हालात को सहज बनाने के लिए तंत्र में भारी पैमाने पर नकदी डाली है। अतिरिक्त नकदी ने अल्पावधि में बाजार की ब्याज दरों को रिवर्स रीपो दर से नीचे कर दिया। इस संदर्भ में मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) के सदस्य जयंत वर्मा ने पिछली बैठक में कहा था कि नीतिगत दायरे से नीचे की दर पर उधारी लेने से कुछ ही कंपनियों को फायदा हो रहा है। उन्होंने कहा था कि अल्पावधि की कम दरों के अपने जोखिम हैं। अल्पावधि की कम दरों से जो मांग तैयार होती है वह उसे आपूर्ति में मजबूती का साथ नहीं मिलता और इसलिए उसमें मुद्रास्फीति के जोखिम होते हैं। लंबी अवधि में कम दरें ही निवेश को प्रोत्साहन देती हैं। अल्पावधि की दरों में कमी करने से निवेश को बढ़ाने में मदद नहीं मिलेगी। केंद्रीय बैंक वृद्धि में नई जान फूंकने पर केंद्रित है, ऐसे में उच्च मुद्रास्फीति के अलग जोखिम हैं। मुद्रास्फीति पिछले कई महीनों से केंद्रीय बैंक के तय लक्ष्य से ऊपर है।
वेतन से होने वाली आय में कमी के अलावा आम परिवार ऊंची कीमतों से भी दो-चार हैं। इससे कई परिवारों का बजट बिगड़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो मांग और सुधार सीधे तौर पर प्रभावित होंगे। कहा जा रहा है कि वृद्धि को बल देने के लिए आरबीआई को मुद्रास्फीति को बरदाश्त करना चाहिए लेकिन इससे समस्या बढ़ेगी। नीतिगत हस्तक्षेप की बात करें तो सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए उसका व्यय रोजगार तैयार करने में मदद करे। इस बीच आरबीआई यदि समय रहते मुद्रास्फीति के मसले का समाधान करे तो बेहतर होगा। यह सुनिश्चित करना भी आवश्यक है कि छोटी कंपनियों को ऋण मिले। सुधार जारी रखने के लिए यह आवश्यक है आने वाली तिमाहियों में अर्थव्यवस्था की इन विसंगतियों को दूर किया जाए।
