भारत के लिए अगले 25 वर्ष की अवधि अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगी। इस अवधि में उठाए जाने वाले नीतिगत कदम ही यह तय करेंगे कि 2047 में आजादी की 100वीं वर्षगांठ मनाते समय भारत विकास की यात्रा में कितनी दूरी तय कर पाएगा। अधिकतम दूरी तय करने के लिए यह महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान परिस्थिति का आकलन किया जाए ताकि कमजोरियों से निजात पाई जा सके और मजबूतियों पर जोर दिया जा सके।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद तथा इंस्टीट्यूट फॉर कंपटीटिवनेस द्वारा प्रकाशित एक साझा रिपोर्ट इस संदर्भ में नीति निर्माताओं के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। यह रिपोर्ट ‘इंडिया कंपटीटिवनेस इनीशिएटिव’ का हिस्सा है जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल के माइकल पोर्टर के बीच बातचीत से हुई। मोदी ने कहा कि इस पहल का काम होगा ‘भारत की वृद्धि संबंधी नीतियों के लिए ऐसा खाका तैयार करना ताकि देश को 2047 में आजादी की 100वीं वर्षगांठ तक मध्य आय और उससे आगे ले जाया जा सके।’
रिपोर्ट में प्रोफेसर पोर्टर द्वारा विगत कुछ दशकों में विकसित फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करके भारत की मौजूदा प्रतिस्पर्धी क्षमता का भी आकलन किया गया। रिपोर्ट में मौजूदा हालात को लेकर जो आकलन किया गया है उसमें उचित ही कहा गया है कि समय के साथ जहां भारत में गरीबी कम हुई है वहीं असमानता में इजाफा हुआ है। प्रति कर्मचारी सकल घरेलू उत्पाद में आए बदलाव के आधार पर आकलित उत्पादकता वृद्धि अच्छी रही है लेकिन श्रम की लामबंदी में हम पिछड़ गए हैं।
भारत कृषि और श्रम शक्ति भागीदारी से ज्यादा लोगों को श्रम के लिए जुटाने में कामयाब नहीं हो सका है, खासकर महिलाओं की भागीदारी निराशाजनक रूप से कम रही है। इसके अलावा बड़ी कंपनियों ने उत्पादकता वृद्धि को गति दी है जबकि अधिकांश लोग छोटी कंपनियों में काम करते हैं। इसके अलावा छोटे क्षेत्र समूह वृद्धि को गति दे रहे हैं और देश का बड़ा हिस्सा विकास की प्रक्रिया से कटा हुआ प्रतीत होता है। हाल में जो आर्थिक हालात रहे हैं उन्हें देखते हुए आश्चर्य नहीं कि शहरीकरण की प्रक्रिया बहुत धीमी रही है। इन समस्याओं में से कुछ के बारे में हम काफी पहले से जानते रहे हैं लेकिन उन पर वांछित नीतिगत ध्यान नहीं आकृष्ट हो सका है।
रिपोर्ट ने इन मुद्दों को तीन तरह की व्यापक चुनौतियों में समेटकर अच्छा किया है। साझा समृद्धि, रोजगार और नीतिगत क्रियान्वयन ही वे चुनौतियां हैं जिनसे भारत को निपटना है। नीतिगत प्राथमिकता के संदर्भ में रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें प्रतिस्पर्धी रोजगार तैयार करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ऐसे रोजगार तभी तैयार हो सकेंगे जब भारत में प्रतिस्पर्धी कंपनियां होंगी। ऐसे में कई क्षेत्रों में नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी।
इससे यह संकेत भी निकलता है कि क्षेत्रीय और औद्योगिक नीतियों में सुधार के लिए क्षेत्र और स्थान आधारित पहल शुरू करनी होंगी। रिपोर्ट में उचित ही कहा गया है कि संघीय ढांचे को मजबूत बनाना होगा तथा निजी-सार्वजनिक भागीदारी में सुधार लाना होगा। रिपोर्ट का व्यापक आकलन और अनुशंसाएं एकदम उचित हैं और नीतिगत हस्तक्षेप के लिए समुचित प्रस्थान बिंदु मुहैया कराते हैं।
बहरहाल, अगर भारत को निरंतर उच्च वृद्धि हासिल करनी है तो और कठिन सवालों के जवाब तलाश करने होंगे। उदाहरण के लिए आखिर क्यों भारत शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं कर पा रहा है और इस संदर्भ में क्या किया जा सकता है? जब तक मानव पूंजी में बेहतरीन सुधार नहीं होता है, देश की प्रतिस्पर्धा प्रभावित होती रहेगी। बड़ी तादाद में देश की कंपनियों का आकार छोटा बना हुआ है और वे बड़ा आकार हासिल कर पाने में नाकाम हैं और नीतियां इस समस्या को हल क्यों नहीं कर पाईं? इसके अलावा क्या घरेलू कंपनियों को प्रतिस्पर्धा से बचाने की नीति और उत्पादन में सब्सिडी देना भारत को समय के साथ अधिक प्रतिस्पर्धी बनाता है तथा नए रोजगार तैयार करने में मदद करता है? भारत को निकट भविष्य में ऐसे नीतिगत मसलों को हल करना होगा और जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है, इसके लिए सरकार के विभिन्न स्तरों पर तालमेल की जरूरत होगी। यह प्रक्रिया जल्दी शुरू होनी चाहिए।
