प्लास्टिक वस्तुओं का निर्माण तथा उपभोग करने वाले अन्य बड़े देशों से तुलना की जाए तो प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण के प्रबंधन के मामले में भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। ताजा वैश्विक प्लास्टिक प्रबंधन सूचकांक से भी यह स्पष्ट होता है जहां भारत 25 बड़े प्लास्टिक उत्पादक देशों में 20वें स्थान पर है। यह निराशाजनक प्रदर्शन नीतिगत, कानूनी या नियमन संबंध की कमी के कारण नहीं है। बल्कि उनके प्रवर्तन में कमी है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुमानों के हिसाब से देखें (हालांकि ये अनुमान कम करके आंके गए हैं) तो हमारा देश हर वर्ष 35 लाख टन प्लास्टिक कचरा उत्पादित करता है। बीते पांच वर्षों में प्रति व्यक्ति प्लास्टिक उत्पादन दोगुना हो गया है। परंतु इस्तेमाल की जा चुकी प्लास्टिक की वस्तुओं के प्रबंधन और निस्तारण की अधोसंरचना उस गति से नहीं बढ़ी है। प्लास्टिक कचरे का बड़ा हिस्सा या तो कचरा फेंकने के लिए निर्धारित मैदानों में जाता है या वह सड़कों, पानी के स्रोतों तथा अन्य सार्वजनिक जगहों पर बिखरा रहता है। सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं है। बल्कि उसने संसद में एक प्रश्न के जवाब में इसे स्वीकार भी किया। सरकार ने कहा कि प्लास्टिक प्रदूषण पर्यावरण के लिए बड़ी चुनौती बन गया है और यह जमीन और जलीय पारिस्थितिकी दोनों को प्रभावित कर रहा है।
ज्यादा समस्या एकल इस्तेमाल वाले प्लास्टिक को लेकर आ रही है जिसका इस्तेमाल बहुत कम समय के लिए होता है लेकिन चूंकि यह अपघटित नहीं होता इसलिए यह वातावरण में सदियों तक मौजूद रह सकता है। प्लास्टिक की थैलियों जैसी फेंकी गई चीजें सड़कों पर यातायात के लिए समस्या बनती हैं, नालियों को बाधित करती हैं और हमारे आसपास तमाम समस्याओं की वजह बनती हैं। प्लास्टिक की थैलियां खाकर कई पशुओं की मौत होती है। मनुष्यों में भी यह खतरा है कि कहीं खाने पीने की वस्तुओं खासकर गैर खाद्य श्रेणी के प्लास्टिक के डिब्बों में पैक खाने की चीज से उनके शरीर में भी विषाक्त प्लास्टिक जाता रहता है। सरकार ने सितंबर 2021 से 50 माइक्रॉन से कम मोटाई वाले एकल इस्तेमाल वाले प्लास्टिक के थैलों का इस्तेमाल तथा 2022 तक अन्य प्लास्टिक थैलों का इस्तेमाल बंद करने की घोषणा की थी। लेकिन ऐसे खराब गुणवत्ता वाले प्लास्टिक के थैले बाकायदा बाजार में इस्तेमाल हो रहे हैं। इसकी वजह की पड़ताल करें तो ऐसा इरादे में कमी की वजह से नहीं हो रहा है बल्कि स्थानीय प्रशासन तथा प्रदूषण नियंत्रण संस्थाओं द्वारा प्रवर्तन में कोताही के कारण हो रहा है। यह विडंबना ही है कि भारत ने 2019 में चौथी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण असेंबली में एक प्रस्ताव पारित करके उसे पास कराया था जिसमें कहा गया था कि विश्व स्तर पर एकल इस्तेमाल वाले प्लास्टिक के प्रदूषण को कम किया जाएगा। परंतु इस मोर्चे पर हमारा प्रदर्शन खुद खराब है।
प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नियम, 2016 जिसे इस वर्ष अगस्त में अद्यतन किया गया, उसमें प्लास्टिक प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए कई उपाय बताए गए हैं। इसमें विस्तारित उत्पादक जवाबदेही शामिल है जिसके तहत प्लास्टिक बनाने वालों से उतनी ही मात्रा में पुनर्चक्रण के लिए प्लास्टिक एकत्रित करने की बात कही गई है। परंतु यह प्रावधान भी कागज पर ही है। प्लास्टिक का इस्तेमाल करने वाली कुछ उपभोक्ता कंपनियों ने चरणबद्ध ढंग से प्लास्टिक का इस्तेमाल कम करने की योजना बनाई है।
फिलहाल प्लास्टिक कचरे को बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र निपटाता है। इसमें कचरा बीनने वाले और कबाड़ी शामिल हैं। उन्हें प्लास्टिक कचरा प्रबंधन तंत्र में शामिल करना होगा। परंतु इससे भी अहम यह है कि केंद्र और राज्य स्तर पर सरकारें तथा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड प्लास्टिक कचरा प्रबंधन नीतियों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें। जब तक नियमों का उल्लंघन करने वालों को दंडित नहीं किया जाएगा प्लास्टिक प्रदूषण पर नियंत्रण करना संभव नहीं दिखता।
