पुरानी बातों का राज जानने के लिए आपको बीते वक्त में झांकना ही पड़ेगा। ईसा पूर्वे एक हजार साल पहले भारतीय शल्य चिकित्सा क्षेत्र की सबसे प्रसिध्द हस्ती सुश्रुत ने शल्य चिकित्सा पर एक किताब लिखी थी।
आज वह किताब ‘सुश्रुत संहिता’ के नाम से जानी जाती है। उन्होंने इस किताब में एक मंत्र लिखा है, जिसका उच्चारण शल्य चिकित्सा के बाद किया जाना होता था। यह मंत्र वास्तव में एक प्रार्थना के रूप में है, जिसका उच्चारण ऑपरेशन के बाद संक्रमण नहीं फैलने देने के लिए किया जाता है।
इस किताब का एक हिस्सा इस तरीके से है: ‘सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, चूहा और मच्छर जैसी प्रजातियों की संख्या में अचानक से आई बढ़ोतरी या कमी जैसी असामान्य भौतिक घटनाओं को रोकना चाहिए क्योंकि इनसे किसी समुदाय में महामारी फैलती है और लोग मर जाते हैं।’
इस किताब में उन्होंने कई जगह यह भी लिखा है, ‘अप्राकृतिक और विपरीत परिस्थितियों वाला मौसम पानी और सब्जियों की प्राकृतिक गुणवत्ता को प्रभावित करता है और जब इसकी खपत की जाती है तो भयानक महामारी का कारण बनती है।’
आगे वह लिखते हैं, ‘कभी-कभार जहरीले फूल और घास के परागण हवा के जरिए बिखर जाते हैं, जिनके परिणामस्वरूप शहर या फिर गांवों में रहने वाले लोगों को खांसी, अस्थमा, सर्दी या बुखार का शिकार होना पड़ता है। ग्रह और नक्षत्रों के दुष्प्रभावों की वजह से ही शहरों और कस्बों में जनसंख्या घटती है। आप घर, पत्नी, बिछावन, वाहन, जानवरों और बहुमूल्य रत्न आदि के जरिए उन अशुभ घटनाओं को टाल सकते हैं।’
अन्य शब्दों में कहें तो सुश्रुत यह जानते थे कि जन रोग और जानवरों के बीच एक कड़ी है। प्राकृतिक या अलौकिक आपदा, जलवायु परिवर्तन कुछ हद तक मानव गतिविधि के कारण ही होता है। इसके अलावा, बीमारी के बारे में सुश्रुत की यह धारणा कि हवा के माध्यम से बीमारी का ‘बिखराव’ होता है, काफी आधुनिक थी।
कम से कम 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में यह धारणा बहुत प्रासंगिक थी। लेकिन प्राचीन भारतीय चिकित्सकों को शायद ही प्लेग और हैजे के बारे में पता हो। ये वे बीमारियां थीं, जो औपनिवेशिक युग की सबसे ‘भीषण मारक’ मानी जाती थीं।
इन वक्तव्यों को वास्तव में विख्यात चिकित्सक-लेखक कल्पना स्वामीनाथन और इशरत सैयद द्वारा विपत्तियों और इतिहास पर लिखी गई एक उत्कृष्ट किताब से लिया गया है। इन दोनों लेखकों ने संयुक्त रूप से जिस किताब को लिखा है, उसका नाम ‘कल्पेश रत्न’ है।
लेखक ने इस किताब में मानव रोग के इतिहास को खंगाला है और साथ ही पुराने जमाने में उन बीमारियों से छुटकारा दिलाने के लिए अपनाए जाने वाले चिकित्सा विज्ञान और अभ्यासों का बेहद उत्कृष्ट तरीके से विवेचन किया है। अब तक इस तरह की कहानियां काफी हद तक पश्चिमी चिकित्सकों और इतिहासकारों द्वारा लिखी जाती थीं, जिनमें यूरोपीय महाद्वीप के विभिन्न देशों या फिर औपनिवेशक भूमि के बारे में बताया जाता था।
खोज का जोश
स्वामीनाथन और सैयद ने इस उत्कृष्ट किताब को लिखने के लिए बहुत सारी प्रसिध्द कृतियों को खंगाला है। मुंबई और गोवा में व्यापक अभिलेखीय कार्य से इन लेखकों को बहुत मदद मिली है। इन्होंने पुर्तगाल और अन्य देशों के अभिलेखागारों थुसाइडिडेस जैसी पश्चिम की प्रसिध्द किताबों को एक बार नहीं बल्कि कई बार खंगाला है।
बहरहाल, अन्य चीजों के बीच लेखक ने संक्रमण के इतिहास में भारतीयों की भूमिका का भी चित्रण किया है। इस किताब में हकीम और वैद्यों के नुस्खों का भी जिक्र किया गया है। लेखक मुंबई के रहने वाले हैं। उन्होंने अपने प्रेरणा स्रोत के रूप में स्थानीय सूत्रों का भी हवाला दिया है। उन्होंने भारत में 19 शताब्दी के दौरान हैजा फैलने का भी उल्लेख किया है।
उन्होंने फोन पर बताया, ‘मुंबई महामारी के शिकार लोगों की एक विशाल प्रयोगशाला बन गई थी।’ उन्होंने बताया, ‘आधुनिक चिकित्सा की वजह से मुंबई या फिर ग्रांट मेडिकल कॉलेज में बदलाव हुए हैं , उन्हें जानना बहुत रोमांचक है।’
उल्लेखनीय है कि मुंबई एक बंदरगाह शहर था जिसका आधुनिक इतिहास भारत में उपनिवेश काल जितना ही पुराना है। मालूम हो कि महामारी दो तरीके से फैलती है- पहला सेनाओं से और दूसरे व्यापार मार्गों से। शुरुआत में पुर्तगाली और फिर ब्रिटिश ही हैं जो मुंबई के सबसे ज्यादा नजदीक आए। लेखक ने उदाहरण के रूप में षष्ठी द्वीप या ’66 गांव’ को लिया है।
पुर्तगाल के रिकॉर्ड में यह उल्लेख है कि जब धर्मांध कैथोलिक पादरियों ने बेकार पड़ी जमीनों को स्वस्थ और समृध्द किया तो उनके यहां समुद्र के रास्ते से आने वाली बीमारियों में कमी आ गई थी। लेखक ने अपनी किताब में यूरोप की बहुत ही ‘यादगार छवि’ का चित्रण किया है। उन्होंने बताया कि यूरोपीय यहां की हरी-भरी और सुखद भूमि पर बीमारी और गंदगी लेकर आए।
उन्होंने लिखा है कि यूरोप के मैले जहाज यहां बीमारियां और गंदगी लेकर आए थे। उन यूरोपीय जहाजों के प्रमुख वास्को डि गामा थे, जिन्होंने यहां का रास्ता खोजा और वापस चले गए। मालूम हो कि वास्को डि गामा को यहां स्कर्वी हो गई थी। हालांकि आज के दौर में हम प्लेग को जैसा जानते थे, स्कर्वी वैसी नहीं थी। लेकिन 17वीं शताब्दी में स्कर्वी को एक घातक बीमारी के रूप में जाना जाता था।
उपचार की सीख
स्कर्वी नामक बीमारी वास्तव में विटामिन सी की कमी से होती है। ऐसी बीमारी में हमेशा खाने के दौरान विटामिन सी युक्त अन्न का सेवन करना चाहिए। इस गंभीर बीमारी के दौरान मसूड़े कमजोर हो जाते हैं और दांत गिरने लगते हैं। इसके अलावा, शरीर में घाव आसानी से हो जाते हैं और त्वचा फटने लग जाती है। ऐसी गंभीर बीमारी के इलाज के दौरान काफी दिक्कत आ जाती हैं।
इस किताब में लेखक ने विभिन्न तरह के प्लेग और हैजे के बारे में बात करते हुए स्कर्वी का भी जिक्र किया है। लेखक ने किताब में समझाया है कि प्लेग से उनका क्या मतलब है। साधारण शब्दों में कहें तो यह एक बीमारी है जो एक बड़ी आबादी को होती है, एक सामान्य स्थितियों में रहने वाले लोगों को यह बिना किसी भेदभाव के हो जाती है और जिससे निपटने के लिए चिकित्सक और वैज्ञानिक तैयार नहीं होते।
इस तरह प्लेग चिकित्सकीय जानकारी और चिकित्सा संबंधी उपचारों की पहुंच का परीक्षण करने के लिए एक बेहतरीन तरीका है। लेखक जब तर्क देता है कि बिना महामारियों के चिकित्सकीय विज्ञान कभी भी सोच के अपने पुराने ढर्रे (धार्मिक विचार भी शामिल) को नहीं तोड़ता, तो वे अपने तर्कों को समझाने की कोशिश करते हैं।
उनके मुताबिक अगर किसी चिकित्सक के पास पूरी जानकारी नहीं होती तो उसे सबसे पुराने, लेकिन विश्वसनीय चिकित्सकीय पध्दति की तरफ लौटना पड़ता है, जिसे ऑब्जर्वेशन कहते हैं। इसे ही लेखक और कार्यरत डॉक्टर खुद भी ‘मेडिकल आई’ कहते हैं।
लेकिन यूरोपीय मेडिकल आई 17वीं से 19वीं शताब्दी में भारत अधिक कारगर था, न सिर्फ रोगी के लिए बल्कि साथ ही स्थानीय उपचार पध्दतियों के मामले में भी। इसका मतलब है कि उस समय पड़ोसियों की चिकित्सा जैसे हकीम और वैद्य दोनों काफी प्रभावशाली थे। हालांकि यूरोपीय डॉक्टरों ने भारत में जो भी सीखा और लागू किया, वह चिकित्सा की भारतीय प्रणाली की समझ से अलग, महज ‘इलाज’ था।
यूरोपीय डॉक्टरों ने बेशक भारतीयों से काफी कुछ सीखा, बावजूद इसके अब भी काफी चीजें सीखना बाकी है, जैसे कि पेट खराब होने की स्थिति में रोगी को कंबल से ढक कर यूरोपीय डॉक्टर गर्मी की स्थिति में रोगी के शरीर में तरल पदार्थों की मात्रा कम करने लगते हैं, जबकि ऐसी ही स्थिति में भारतीय डॉक्टर रोगी को कांजी पीने को कहते हैं, जो आधुनिक ओरल रीहाइड्रेशन थैरेपी (ओआरटी) का भारतीय वर्जन है।
मिसाल के तौर पर आयुर्वेद में यूरोपीय चिकित्सा से विपरीत मौसम और पर्यावरण तथा सेहत के बीच सीधा और साफ संपर्क माना जाता है। पिछले वक्त को देखते हुए यह काफी हद तक सही लगता है। ऐसा इसलिए क्योंकि पुरानी महामरियों के साथ-साथ सार्स यानी सांस की बीमारी और बर्ड फ्लू के फैलने की वजहें भी एक सी हैं।
इन बीमारियों के फैलने की बड़ी वजह है, अलग-अलग प्रजाति के जानवरों या पक्षियों की बड़ी संख्या के साथ इंसान का रहना है। यहां सवाल पर्यावरण को मानवीय हानि का भी है और यह महामारियों के रूप में वापस देखने को मिलता है, जिसका जिक्र बार-बार स्वामीनाथन और सईद ने किया है।
नए योध्दा
उदाहरण के लिए दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में इतिहासकार सीमा अल्वी का कहना है, ‘स्वच्छता विभाग से जुड़े ब्रिटिश अधिकारी हर तरह की तीर्थ यात्रा को लेकर चिंतित थे।
भारत में होने वाली हिंदु तीर्थ यात्राओं के मामले में हैजे से होने वाली सभी मौतें पूरी तरह तीर्थ यात्रा से जुड़ी हुईं थी। ठीक ऐसा ही हज यात्रा के साथ भी है, जहां इस बात की वाकई चिंता है कि क्या तीर्थ यात्री अपने साथ आगे इन बीमारियों को ले जाते हैं- खासतौर पर अरब जो यूरोप के काफी नजदीक था।’
उनका यह भी मानना है, ’19वीं शताब्दी के अंत में तीर्थ यात्रा के आंकड़ों में बेहतर परिवहन (भाप वाला जहाज) व्यवस्था के साथ हैजे के मामलों में भी बढ़त देखी गई।’ हैजा 1830 में यूरोप और लंदन पहुंचा। इसलिए अल्वी कहती हैं, ‘भारत से शिक्षित ब्रिटिश डॉक्टरों की तब जबरदस्त मांग थी और उन्हें तब वापस बुलाया गया। 1830 और 1840 में उन्होंने काफी बड़ी संख्या में किताबें लिखीं जो उनके अनुभवों पर आधारित थीं।’
शुरुआती दौर में बंबई में रहने वाले पुर्तगाली जमीन से जो कमाई होती थी, उस पर जीते थे- लेकिन ब्रिटिश चतुर थे और उन्होंने अपना कारोबार शुरू किया। अपने लिए व्यावसायिक शहर तैयार करने के लिए उन्होंने ग्रामीण प्रदेशों से श्रमिक मंगवाए। औपनिवेशिक लड़ाइयों के बाद अकाल की स्थिति पैदा हो गई, अकाल ने प्रतिरोधक क्षमता को कम कर दिया और कर्ज का बोझ बढ़ता चला गया।
गरीब और जिनकी आय खत्म हो गई थी, वे तेजी से जल्दी-जल्दी बीमार होने लगे और ऐसे में बीमारी फैलाने वाले जीवाणु आसानी से इंसानों के आदी होने लगे। दूसरे शहरों के साथ गरीब बंबई की तरफ तेजी से बढ़ने लगे। अनिवार्य रूप से हैजा और प्लेग सरीखी बीमारियों ने 20वीं शताब्दी की शुरुआत से ही उन्हें अपना शिकार बना लिया। न सिर्फ उन्हें बल्कि उनके ब्रिटिश मालिकों को भी, हालांकि रिकॉर्ड के अनुसार अब तक इससे सबसे अधिक यूरोपीय प्रभावित हुए।
महामारियों के इतिहास के हर मोड़ पर नजर रखने वाले की पहचान आधुनिकता के विकास के चरण जैसे व्यवसाय, वैश्वीकरण, शहरीकरण और विज्ञान से हुई। आज जहाज से पैदा होने वाली बीमारियां काफी कम हैं।
शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के एक निदेशक कैप्टन के एस नायर का कहना है कि जहाज पर सेहत से संबंधित सबसे प्रमुख समस्याएं ‘बोरियत, थुलथुलापन, मधुमेह’ आदि हैं। जहाज की यात्राएं काफी छोटी होती हैं, उनके पास ताजे भोजन पदार्थों के लिए फ्रिज हैं और चूहे खुद-ब-खुद धीरे-धीरे बाहर हो जाते हैं, क्योंकि जहाज पर खुले सामान जैसे कपास की गांठें कम और कंटेनर अधिक होने लगे हैं।
लेकिन स्वामीनाथन और सईद की तरफ से एक चेतावनी भी है। उनका कहना है कि लंबे समय में इसका फायदा तो होगा, लेकिन हम अपनी विशेषज्ञता और संसाधनों के बारे में अभी तक ठीक से नहीं जानते। किसी भी जगह जहां प्राकृतिक आपदाएं और अधिक जनसंख्या आपस में एक साथ आते हैं, वहां भयंकर बीमारी होने की संभावनाएं पैदा होती हैं।
और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ हमारा हस्तक्षेप हो सकता है कि हमारे ही खिलाफ स्थितियां पैदा कर दे। अत्यधिक गर्म जलवायु का मतलब है भयंकर बारिश जैसा कि मुंबई में वर्ष 2005 में देखी भी गई।
गर्म जलवायु के कारण समुद्र काफी तपने लगता है और जिससे धरातल के पानी में कई पौष्टिक पदार्थ मिल जाते हैं, जिसमें सूक्ष्म जीव जैसे हैजे के कीटाणु पनप सकते हैं, जो काफी खतरनाक हैं। और यह मुद्दा आदमी और प्रकृति के बीच के झगड़े में कहीं दिखाई ही नहीं देता। एक बार स्वच्छता और निकासी पर विचार करें जो हमारे शहरों के बीचों बीच मौजूद हैं।
