बीमा कंपनियां, भविष्य निधि प्रबंधक, पोस्ट ऑफिस , रेलवे और अन्य सरकारी विभाग परंपरा का पालन करते हुए देय भुगतानों के लिए अग्रिम रसीद की मांग करते हैं जिन पर तारीख नहीं होती है। यहां तक कि कुछ कार्पोरेट घराने भी इस परिपाटी का पालन करते हैं। प्रशासनिक अनिवार्यता और एकाउंटिंग की जरूरतों को देखते हुए यह परिपाटी चली आ रही है।
बहरहाल समस्या तब खड़ी होती है जब देय राशि की तुलना में भुगतान की जाने वाली राशि कम होती है। हो सकता है कि दावेदार ने पहले ही धनराशि के भुगतान की शर्त के रूप में ‘संपूर्ण और अंतिम निपटारे’ या ‘नो ड्यूज’ का प्रमाण पत्र दे दिया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के अपने एक फैसले (नेशनल इंश्योरेंस कंपनी बनाम भोगरा पॉलीफेब लिमिटेड) में कहा कि ‘‘ऐसी प्रक्रिया, जिसमें दावेदार को उसके दावे से कम धनराशि के संपूर्ण और अंतिम निपटारे के लिए बगैर तारीख वाली पावती रसीद जारी करने की जरूरत होती है, जो कम धनराशि के लिए होती है, वह अनुचित, अनियमित और अवैध है तथा इसका विरोध किए जाने की जरूरत है।’’
इस मामले में निजी कंपनी ने स्टैंडर्ड फायर और विशेष जोखिम की नीति का मामला उठाया। उसका सामान और गोदाम बारिश के चलते क्षतिग्रस्त हो गया था। उसने इसके लिए दावा किया। उसके बाद नुकसान की मात्रा पर विवाद हुआ। कंपनी ने आरोप लगाया कि बीमाकर्ता ने कम राशि पर समझौता करने के लिए दबाव डाला। बीमा कंपनी ने कहा कि जब तक वह बगैर तारीख और कम राशि का अग्रिम वाउचर जारी नहीं करती है जिसमें यह स्वीकार किया गया हो कि मामले का पूरा और अंतिम निपटान हो गया है, तब तक उसे दावे की राशि नहीं दी जाएगी। कंपनी की वित्तीय हालत खराब थी और उसके पास कोई विकल्प नहीं था इसलिए उसने बीमाकर्ता की ओर से जबरन थोपी गई शर्त को स्वीकार कर लिया। उसके बाद कंपनी को भुगतान कर दिया गया। उसके बाद प्राइवेट कंपनी ने मध्यस्थ से संबद्घ अनुच्छेद का इस्तेमाल करते हुए दबाव और जोर जबरदस्ती की शिकायत की। बीमा कंपनी ने इसके जवाब में कहा कि कंपनी ने बगैर किसी शर्त के दावे को स्वीकार कर लिया था। बंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश ने बीमा कंपनी के तर्क को खारिज करते हुए आर्बिट्रेशन ऐंड कॉन्सिलिएशन एक्ट की धारा 11 का इस्तेमाल करते हुए एक पंच की नियुक्ति कर दी। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसका अनुमोदन किया।
संपूर्ण और अंतिम भुगतान के पुराने मामलों में भी इस फैसले को देखा गया। लेकिन इस स्पष्टीकरण में सबसे आकर्षक यह रहा कि किन मामलों में यह वैध होगा और किन मामलों में अवैध। तमाम ऐसी स्थितियां हैं, जिसमें विवाद उठता है, यह सूची परिपूर्ण नहीं है लेकिन निर्देशात्मक जरूर है। उदाहरण के लिए अगर समझौता लोक अदालत के समक्ष होता है, तो इसमें विवाचन की कोई गुंजाइश नहीं है। ऐसी स्थिति में जैसे कि मान लीजिए बीमित व्यक्ति जो दावा करता है, उसे न तो स्वीकार किया गया है, न ही अस्वीकार किया गया है। लेकिन अगर बीमित व्यक्ति को बहस के दौरान सूचना दे दी जाती है और उसने कम धनराशि का पूर्ण और अंतिम वाउचर दे दिया है तो पूरा दावा निरस्त कर दिया जाएगा। क्योंकि आर्थिक संकट के चलते वह मांग के लिए मजबूर हो जाता है। इस मामले में अवपीड़न का मामला गूढ़, लेकिन बहुत ज्यादा वास्तविक होता है। ऐसे में पंचाट के फैसले की मांग हो सकती है।
पूर्ण और अंतिम समझौते में एक बड़ी कमजोरी 2001 के भगवती प्रसाद बनाम यूनियन आफ इंडिया के एक मामले में नजर आई। याचिकाकर्ता का भेजा हुआ माल भारतीय रेलवे द्वारा प्रदान नहीं किया गया। उसने दावा किया, लेकिन रेलवे ने केवल उसका पांचवां हिस्सा स्वीकार किया। उसने यह कहते हुए दो चेक भेजे कि ‘‘अगर यह आफर स्वीक ार नहीं है तो चेक वापस तत्काल वापस कर दिया जाए अन्यथा यह मान लिया जाएगा कि आपने अपने दावे को पूर्ण और अंतिम संतुष्टि के रूप में स्वीकार कर लिया है। चेक को रोके रखने या उसे भुगतान के लिए भेज दिए जाने से यह स्वतः मान लिया जाएगा कि आपने अपने दावे को पूर्ण और अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया है।’’
इस मामले में याचिकाकर्ता ने विरोध के रूप में चेक का भुगतान ले लिया और मांग की कि शेष का भुगतान 15 दिनों में कर दिया जाए। जब रेलवे ने इसके बाद भुगतान करने से इनकार कर दिया तो याचिकाकर्ता ने रेलवे दावा पंचाट की राह पकड़ी। वहां फैसला खिलाफ गया और कहा गया कि उसने रेलवे के पूर्ण और अंतिम समझौते को स्वीकार कर लिया है। उसके दावे को सर्वोच्च न्यायालय ने भी अस्वीकार कर दिया।
असम बंगाल सेरेल्स बनाम यूनियन आफ इंडिया मामले में चालाक क्लाइंट के खिलाफ रेलवे को घाटा उठाना पड़ा। माल पाने वाले ने, जिसे कम धनराशि भेजी गई थी, चतुराईपूर्वक रेल विभाग को एक पत्र भेजा। उसमें कहा गया था कि चेक स्वीकार कर लिया गया है और रेलवे इसका स्पष्टीकरण दे कि आखिर रेल ने बाकी की धनराशि क्यों रोक रखी है। अगर 15 दिन के भीतर जवाब नहीं मिला तो स्वीकार किए गए चेक को पूर्ण और अंतिम समझौते के रूप में नहीं माना जाएगा।
15 दिन के बाद भी रेल विभाग की ओर से कोई जवाब नहीं भेजा गया। इसके बाद चेक का भुगतान ले लिया गया। जब यह मामला न्यायालय में गया तो यह पाया गया कि इस मामले में चेक से भुगतान लेने का मतलब पूर्ण और अंतिम समझौता नहीं था, जो रेलवे ने किया था।