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  लेख  हार को गले लगाने को बेताब विपक्ष!
लेख

हार को गले लगाने को बेताब विपक्ष!

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 3, 2021 11:28 PM IST
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राजनीति के बारे में अच्छी बात यह है कि यह कभी ठहरती नहीं। यदि ऐसा हो तो हम जैसे टीकाकारों को संन्यास लेना होगा या समय काटने के लिए गोल्फ खेलना सीखना होगा। सबसे पहले इस बात की परीक्षा करते हैं कि कौन सी बातें ठहरी हुई नजर आ रही हैं और कौन सी उबल रही हैं। दूसरे कार्यकाल का लगभग आधा समय गुजार चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रसूख में स्थिरता आ गई है। उनके सामने कोई चुनौती नहीं है। दूसरी ओर उनकी स्थायी और विशिष्ट विरोधी कांग्रेस पार्टी उबल रही है और उबाल केवल पंजाब तक सीमित नहीं है। ये दोनों बातें सही हैं लेकिन असली कहानी ज्यादा जटिल है। यही बात भारतीय राजनीति को अधिक रोचक बनाती है।
पहली बात, मोदी की अजेयता स्थिर है और उसे भेद पाना असंभव है, वैसे ही जैसे टाइटेनियम को भेदना। क्या हमने पहले भी यह उदाहरण इस्तेमाल किया है? यदि आप इसी बिंदु पर ठहर जाएंगे तो ऐसा ही प्रतीत होगा। यहां तक कि देश का मिजाज आंकने वाले इंडिया टुडे के ताजा सर्वेक्षण, जिसे मोदी के लिए एक झटका माना गया, वहां भी मोदी लोकसभा में आधी सदस्य संख्या से थोड़ा ही नीचे नजर आ रहे हैं। उनकी प्रमुख चुनौती यानी कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) 100 सीट के आसपास नजर आई।
किसी सामान्य खिलाड़ी को यह वैसा ही लगेगा जैसे क्रिकेट के किसी एकदिवसीय मैच में 40वें ओवर में टीम ने दो विकेट पर 200 रन बनाए हों और उसे शेष 60 गेंदों में 30 रन बनाने हों। पूरे 50 ओवर खेलिए और आपकी जीत तय है। मोदी से जुड़ा घटनाक्रम बताता है कि वह ऐसे नेता नहीं हैं। हर घर नल से जल कार्यक्रम को उन्होंने नए सिरे से गति प्रदान कर दी है। ताजा प्रचार, सोशल मीडिया पर प्रसारित छोटे-छोटे वीडियो आदि देखकर तो यही अंदाजा लगता है।
स्वच्छ भारत अभियान का भी दूसरा संस्करण सामने है और अब ‘कचरे का पहाड़’ हटाने का आह्वान जोरशोर से किया जा रहा है। देश के हर शहर में कचरे का अपना ‘हिमालय’ या ‘अरावली’ या ‘घाट’ है। चूंकि हम दिल्ली को बेहतर जानते हैं इसलिए हम कल्पना कर सकते हैं कि अगर भलस्वा और गाजीपुर के कचरे के पहाड़ नजर से दूर हो जाएं तो आम जनता पर क्या असर होगा?
ध्रुवीकरण और पुलवामा ने जरूर मदद की लेकिन मोदी और अमित शाह जानते हैं कि 2019 में हिंदी प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जीत की सबसे बड़ी वजह थी रसोई गैस की किफायती आपूर्ति, ग्रामीण आवास योजना, शौचालय और मुद्रा योजना आदि। 2024 के चुनाव में पानी और स्वच्छता उनके मुद्दे होंगे। उन्हें पता है कि चीन की नई हकीकत के चलते इस बार राष्ट्रवादी भावनाओं में उछाल आ सकती है। खासकर यह देखते हुए कि इस बार पाकिस्तान के सीमा पर कुछ होता नहीं दिखता।
कोई विपक्षी नेता उनसे उनकी योजनाओं को लेकर सवाल नहीं कर रहा है। कोई विपक्षी नेता या कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर घोटालों या गड़बडिय़ों की तलाश नहीं कर रहा है, पीडि़तों की सूची नहीं बना रहा, न उनकी आवाज उठा रहा है। विपक्ष का काम कमजोर और संकटग्रस्त मीडिया के हवाले कर दिया गया है। ऐसे में अगर कोई साहस दिखाकर जांच करता है और कुछ प्रतिकूल प्रकाशित करता है, मसलन द इंडियन एक्सप्रेस द्वारा बिहार में पेयजल योजना की जांच जैसा कुछ तो वह खबर अखबार के अपने संपादकीय के साथ दम तोड़ देती है। यदि नीतीश कुमार संप्रग-जदयू के मुख्यमंत्री होते और भाजपा विपक्ष में होती तो वह इस मामले को नीतीश कुमार का चारा घोटाला साबित करने का प्रयास करती।
यदि ये सारी बातें सच हैं तो आप पूछ सकते हैं कि क्या इससे यह नहीं साबित होता कि राजनीति ठहर चुकी है। आइए इस परत को हटाकर देखते हैं कि मैं अपनी ही बात को काट क्यों नहीं रहा। कुछ महीनों बाद पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का प्रचार जोर पकड़ लेगा। यदि भाजपा उत्तर प्रदेश में हार जाती है या वहां करीबी अंतर से हारती है तो यह वैसा ही होगा जैसे कि 40 से 42 ओवर के बीच तेजी से चार विकेट गिर जाएं। इससे 2024 का मिजाज बदल सकता है।
इसी तरह हम उत्तराखंड और मिजोरम जैसे छोटे राज्यों को याद रखते हैं लेकिन नगर निकायों की अनदेखी कर देते हैं। लेकिन वृहन्मुंबई महानगरपालिका (बीएमसी) केवल नगर निगम नहीं है। यदि भाजपा इसके चुनाव में शिवसेना और सहयोगियों को हरा देती है तो महा विकास आघाडी सरकार लडख़ड़ा जाएगी।  तब भाजपा मानेगी कि 48 लोकसभा सीट वाला देश का दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक राज्य उसके पास है। परंतु यदि शिवसेना बीएमसी जीतने में कामयाब रहती है तो इससे यह संकेत निकलेगा कि प्रदेश में उसके पुराने सहयोगी के नेतृत्व में भाजपा विरोधी ताकतें मजबूत हो रही हैं। यह वैसा ही है जैसे 45वें ओवर में एक और विकेट गिर जाए।  भाजपा को अन्य राज्यों की ज्यादा परवाह नहीं होगी। लेकिन अगर कांग्रेस नेतृत्व पंजाब दोबारा जीतता है तो राहुल और प्रियंका गांधी जो नाटकीय बदलाव कर रहे हैं उसे वैधता मिल जाएगी। राजनीति के खेल में सबकुछ विजेता को हासिल होता है। चाहे जो भी कांग्रेस से बाहर जाए लेकिन पार्टी के पास यह मौका होगा कि वह अपने 20 फीसदी वोट बैंक को बचाए रखे।
यह भाजपा के लिए बुरी खबर होगी। उसे पंजाब की परवाह नहीं लेकिन फिर भी उसे यह लगता है कि अगर कोई उसे विश्वसनीय चुनौती दे सकता है तो वह कांग्रेस ही है। ध्यान रहे कि जिन राज्यों में कांग्रेस की मौजूदगी नगण्य रह गई है वहां भी भाजपा के निशाने पर ज्यादातर वही रहती है। उत्तर प्रदेश में भी जहां कांग्रेस शायद दो अंकों में पहुंचने के लिए भी संघर्ष कर रही है, वही योगी आदित्यनाथ का निशाना है। यही स्थिति जम्मू कश्मीर में भी है। यदि पंजाब में कांग्रेस जीतती है तो राहुल गांधी को कुछ ऐसा हासिल होगा जिसकी कमी उन्हें दो दशक की राजनीति में लगातार खली है: चुनावी जीत। 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 21 सीट पर जीत उनकी एकमात्र स्पष्ट कामयाबी है। अब उन्हें पंजाब में जीत की जरूरत है ताकि उनके मौजूदा नाराजगी भरे अतार्किक दखल को वैधता मिल सके।
लेकिन अगर कांग्रेस पंजाब गंवाने के अपने अथक प्रयासों में कामयाब रहती है और उसका बिखराव जारी रहता है तो पार्टी पूरी तरह समाप्त हो सकती है। क्योंकि मध्य प्रदेश में पार्टी पहले ही कमजोर हो चुकी है और राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में भी अंदर से मुसीबत पैदा हो रही हैं। 2024 के चुनाव के आखिरी चरण में यह ऐसा होगा जैसे विपक्ष 46वें ओवर में दो कैच गिरा दे। चूंकि इस समय आईपीएल भी चल रहा है इसलिए मुझे क्रिकेट और राजनीति को मिलाने के लिए माफ करें लेकिन मान लीजिए कि राजनीतिक दल खेल की एक फ्रैंचाइजी हो तो क्या होगा? जिस फ्रैंचाइजी के पास सबसे अधिक पैसा होता है उसे सबसे अच्छे खिलाड़ी, प्रशिक्षक आदि मिलते हैं। हम मुंबई इंडियंस का नाम ले सकते हैं। लेकिन अगर कोई फ्रैंचाइजी लगातार हार रही हो, वह टुकड़ों में बंटी हो, और उसके प्रशंसकों का मोहभंग हो तथा प्रायोजक हताश हों तो? ऐसे में खिलाड़ी, प्रशंसक और प्रायोजक तीनों यहां वहां छिटकने लगते हैं। फ्रैंचाइजी या तो बिक जाती है या समाप्त हो जाती है। फिलहाल एक टीम ऐसी नजर आती है लेकिन मैं उसका नाम नहीं लूंगा क्योंकि लीग अभी चल रहा है। मुझे तो बस उसकी पोशाक की गुलाबी रंगत बहुत पसंद है।
फिलहाल जो पक रहा है वह है विपक्ष की राजनीति। राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं कभी नहीं रुकतीं। भाजपा को भूल जाइए, सबसे कटु विरोधी भी कांग्रेस को आसान शिकार मानने लगे हैं। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में उसके वोट साफ किए और अब उसकी नजर पंजाब पर है। ममता बनर्जी विभिन्न राज्यों में अपनी पुरानी पार्टी के अहम अवशेष जुटा रही हैं। कभी त्रिपुरा तो कभी गोवा और कभी मेघालय। अब देखना है कि अमरिंदर सिंह और 23 असंतुष्ट नेताओं के समूह की क्या जगह बनती है।
भाजपा के बजाय विपक्ष जिस तरह खुद को क्षति पहुंचा रहा है वह देखना अविश्वसनीय है। इस कवायद में वामपंथी और कांग्रेसी नेता एक दूसरे के नेताओं को अपने खेमे में ला रहे हैं। चूंकि मैं क्रिकेट की भाषा में बात करना चाहता हूं इसलिए उस बेहतरीन पंक्ति पर लौटता हूं जो (जॉन अरलॉट अथवा राम गुहा द्वारा ) तब कही गई थी जब अजीत वाडेकर के नेतृत्व वाली भारतीय टीम 1974 में लॉड्र्स में दूसरी पारी में 42 के स्कोर पर आउट हो गई थी। उन्होंने कहा था कि जब करीब 30 के स्कोर पर सात विकेट गिर गए थे तब एकनाथ सोलकर द्वारा क्रिस ओल्ड की गेंद पर छक्का लगाना उस त्रासदी में मानो आखिरी बेतुकी बात थी।

कांग्रेसजदयूनरेंद्र मोदीप्रियंका गांधीभाजपाराजनीतिविपक्षसंप्रग
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