अफगान-अमेरिकी मूल की पत्रकार फरीबा नावा ने 2011 में लिखी अपनी किताब ‘ओपियम नेशन: चाइल्ड ब्राइड्स, ड्रग लॉड्र्स, ऐंड वन वूमन्स जर्नी थू्र अफगानिस्तान’ में इस देश में मादक पदार्थों के धंधे से संबंधित पहलुओं का उल्लेख किया था। नावा ने कहा था कि अफगानिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 60 प्रतिशत हिस्सा वहां फल-फूल रहे 400 करोड़ डॉलर के अफीम के धंधे से आता है।
लेखिका ने यह भी कहा कि अफगानिस्तान की सीमा से बाहर यह धंधा करीब 6,500 करोड़ डॉलर का है। इस पुस्तक के अनुसार अफीम का धंधा अफगानिस्तान के लोगों के दैनिक जीवन पर सीधा प्रभाव डालता है। कई परिवार पूरी तरह अफीम उद्योग पर निर्भर हैं और इससे वे बतौर उत्पादक, तस्कर या अन्य किसी न किसी रूप में जुड़े हैं। इसके साथ ही ‘ओपियम ब्राइडस’ की संस्कृति भी विकसित हो गई है। जिस वर्ष फसल दगा दे जाती है, किसान अफीम का कर्ज उतारने के लिए अपनी बेटियां तस्करों को बेच देते हैं। नावा ने इस संदर्भ में 12 वर्ष की लड़की दारया का जिक्र किया।
फं्रटलाइन के संवाददाता नजीबुल्ला कुरैशी ने अपने पुरस्कृत वृत्तचित्र ‘ओपियम ब्राइड्स’ (2012) में मादक पदार्थों का धंधा रोकने के लिए चलाई गई मुहिम के भयानक परिणामों का जिक्र किया। कुरैशी ने इस पर रोशनी डाली कि मादक पदार्थों के धंधे पर रोक लगाने के अफगानिस्तान सरकार के कार्यक्रम के बाद किसी तरह वहां के लोगों की मुश्किलें बढ़ गईं। खासकर, उन लोगों पर आफत का पहाड़ टूट पड़ा जिन्होंने अफीम की खेती के लिए रकम उधार ली थी। सरकार के नशा-विरोधी अभियान के बाद उनकी माली हालत बिगड़ गई। उनके सामने एक ही विकल्प था, कर्ज चुकाएं या अपनी बेटियां तस्करों के हवाले कर दें। इन बेटियों को ‘लोन ब्राइड्स’ या ‘ओपियम ब्राइड्स’ का जाता है।
अमेरिकी सेना के अनुसार दुनिया में 90 प्रतिशत तक हेरोइन अफगानिस्तान में पैदा होने वाली अफीम से बनती है। अफगानिस्तान पर अमेरिकी विदेशी विभाग के पूर्व सलाहकार बर्नेट रूबिन ने कहा कि ‘युद्ध के बाद अफीम अफगानिस्तान का सबसे बड़ा उद्योग है।’ शक्ति, राजनीति एवं धन के लोभ में लोग अफगानिस्तान में अफीम की खेती से जुड़ते जाते हैं। 2000 के दशक की शुरुआत में अफगानिस्तान में तालिबान के लिए अफीम का धंधा धन का एक बड़ा स्रोत था।
यह कहना बिल्कुल जायज है कि अफीम उद्योग पर अंकुश लगाने के लिए इस अवैध कार्य में लगे सैकड़ों-हजारों लोगों को जीविकाका विकल्प दिया जाना चाहिए। अफगानिस्तान में अफीम के धंधे को कानूनी वैधता देने के लिए विभिन्न स्तरों पर चर्चा भी हुई। फरवरी 2007 में ब्यूरो ऑफ इंटरनैशनल नार्कोटिक्स ऐंड लॉ एन्फोर्समेंट अफेयर्स ने अफीम उत्पादन एवं इसके धंधे को वैधता देने के पक्ष में दिए गए तर्कों का विश्लेषण किया। ब्यूरो ऑफ इंटरनैशनल नार्कोटिक्स ऐंड लॉ एन्फोर्समेंट अफेयर्स अमेरिका विदेश विभाग के अधीनस्थ काम करता है। इस धंधे को मान्यता देने के पक्ष में यह तर्क दिया गया कि इससे अफीम आधारित दर्द निवारक दवाओं की किल्लत दुनिया में कम हो जाएगी और अफगानिस्तान की सुरक्षा और आर्थिक विकास सुनिश्चित करने में भी यह मददगार होगा। अमेरिकी रिपोर्ट में अफीम उद्योग को वैधता देने के खिलाफ भी कुछ तर्क दिए गए। रिपोर्ट में कहा गया कि इस धंधे को कानूनी मान्यता देने से अफगानिस्तान के किसानों के लिए यह आकर्षक नहीं रह जाएगा। यह भी तर्क दिया गया कि अफगानिस्तान में वैध रूप से उत्पादित अफीम की कोई वाजिब मांग नहीं है और दूसरे देश के अनुभव भी इस तर्क के खिलाफ जाते हैं। अंत में यह भी कहा गया कि इस धंधे को कानूनी वैधता देना नुकसानदेह हो सकता है। रिपोर्ट में कहा गया, ‘अफगानिस्तान में अफीम उत्पादन को मान्यता देने से संतुलन बिगड़ जाएगा तथा अफीम, मॉर्फिन और हेरोइन जैसे मादक पदार्थों का बेजा इस्तेमाल बढ़ जाएगा।’
पूर्व राष्टï्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि मादक पदार्थों का बढ़ता धंधा अपराध को बढ़ावा देता है और उग्रवादियों को धन मुहैया कराता है जिसका सीधा असर अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था पर पड़ता है। इसके बाद अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करजई ने देश की सुरक्षा, विकास और प्रभावी सरकार के लिए अफीम के धंधे को सबसे बड़ा खतरा बताया था। मगर 2009 में अमेरिकी संसद शोध सेवा रिपोर्ट में अफगानिस्तान के लिए ओबामा प्रशासन के विशेष प्रतिनिधि और पाकिस्तान में राजदूत रिचर्ड होलब्रुक को यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि अफगानिस्तान में मादक पदार्थों के खिलाफ अमेरिका का अभियान पिछले 40 वर्षों का सर्वाधिक ‘निष्प्रभावी अभियान’ रहा है।
कई लोग यह भी मानते हैं कि अफगानिस्तान में लड़ाई मूल रूप से ‘अफीम युद्ध’ का हिस्सा थी। अमेरिका ने 2001 से अफगानिस्तान में अफीम युद्ध पर रोजाना 15 लाख डॉलर खर्च किए हैं। उसने 15 वर्षों में 8 अरब डॉलर से अधिक रकम फूंकी है। कई बार अमेरिका ने अफीम उत्पादन एवं इसके प्रयोगशालाओं पर हवाई हमले भी किए लेकिन इनसे वहां इस धंधे पर अंकुश नहीं लग पाया। अफगानिस्तान में अफीम का उत्पादन कमोबेश बढ़ता ही रहा। कोविड-19 महामारी के बावजूद 2020 में अफगानिस्तान में अफीम उत्पादन में वहां 37 प्रतिशत इजाफा हुआ।
नवंबर 2017 में अमेरिकी सेना ने तालिबान के मादक पदार्थों के संयंत्रों पर हवाई हमले किए और इनके खिलाफ विशेष अभियान भी चलाए। ‘आयरन टेम्पेस्ट’ नाम से चलाए गए इस अभियान के पीछे यह तर्क दिया गया कि इस हमले का मकसद तालिबान की कमजोर नस यानी उनके वित्तीय स्रोत पर वार करना है। तालिबान को उसके अभियान के लिए करीब 60 प्रतिशत रकम अफीम के धंधे से मिलती है। सैकड़ों हवाई हमले करने के बाद तालिबान के सालाना 20 करोड़ डॉलर के अफीम के धंधे पर नियंत्रण करने में असफल अमेरिकी सेना ने उस समय अपना अभियान समाप्त कर दिया जब ट्रंप प्रशासन के अधिकारी तालिबान के साथ प्रत्यक्ष शांति वार्ता करने लगे।
अमेरिका और पश्चिमी देशों के उसके सहयोगियों को अफीम युद्ध में अंतत: हार का सामना करना पड़ा और संभवत: इसकी वजह गलत रणनीति रही है। यह भी हो सकता है कि अमेरिका के लिए यह युद्ध जीतना कभी मुमकिन ही नहीं था। अफगानिस्तान के लोगों को आर्थिक सुरक्षा एवं उन्हें परंपरागत संस्कृति के पालन की अनुमति देकर संभवत: उनका दिल जीता जा सकता था। वास्तविकता में ऐसा नहीं हुआ और अफगानिस्तान पर एक बार फिर तालिबान के नियंत्रण में आ गया है।
(लेखक भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, कोलकाता में प्राध्यापक हैं।)