साल भर में दो बार मुझे कुछ ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ता है जो मुझे अपनी आंखें मसलने या खुद को चिकोटी काटने के लिए मजबूर कर देती हैं और मैं यह सोचने लगता हूं कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा। एक वेबिनार में शिरकत करते समय मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ।
प्रिय पाठक, मुझे इसे आप पर ही आजमाने की अनुमति दें ताकि हम यह देख सकें कि आप भी वही प्रतिक्रिया देते हैं या नहीं।
सवाल: भारत में कौन सा व्यक्ति इस तरह का बयान देगा कि ‘वकीलों के लिए उस मामले में सुनवाई को 12 हफ्तों के लिए स्थगित कर देने का अनुरोध करना सहज है जिसकी सुनवाई 1971 में स्थगित हो गई थी और वह वर्ष 2020 में सुनवाई के लिए सूचीबद्ध हुई थी।’
अब इन विकल्पों में से उसे चुनें जो इस तरह का बयान दे सकता है- सुर्खियों की तलाश में जुटा एक पत्रकार, दूसरों में दोष तलाशने वाला एक बुद्धिजीवी या फिर उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश। अगर आपने पत्रकार या बुद्धिजीवी कहा तो फिर आप गलत होंगे। इसका सही जवाब है बंबई उच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश।
अब आप देख सकते हैं कि मुझे खुद को जाग्रत समझने के लिए अपनी आंखें क्यों मसलनी पड़ी और क्यों खुद को चिकोटी काटनी पड़ी थी? मैंने फोरम फॉर फास्ट जस्टिस की तरफ से आयोजित एक वेबिनार में ऐसी बातें सुनी थीं।
व्यावहारिक रूप से देखें तो भारत में कारोबार से जुड़े सभी लोग मुकदमों से बचने की पूरी कोशिश करते हैं, चाहे वह किसी ग्राहक या आपूर्तिकर्ता के साथ अनुबंध विवाद जैसा सामान्य मामला ही क्यों न हो। इसकी वजह यह है कि हम यह बात जानते हैं कि मुकदमा साल भर तक तो सुनवाई के लिए ही नहीं आएगा और अगर सुनवाई होने भी वाली है तो फिर वह कई बार स्थगित होगी।
भारत में अदालती मामलों के लंबे समय तक लटके रहने से संबंधित आंकड़े चौंकाने वाले हैं। आधिकारिक नैशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड के मुताबिक, भारत के उच्च न्यायालयों में करीब 5 लाख मामले पांच साल या उससे अधिक समय से लंबित हैं और इनमें से करीब 2.5 लाख मामले तो 10 साल से भी अधिक वक्त से फैसले का इंतजार कर रहे हैं। जब आप अदालतों के निचले स्तर यानी जिला एवं तहसील अदालतों का रुख करते हैं तो पता चलता है कि 60 लाख मामले पांच साल या उससे अधिक समय से लंबित चल रहे हैं जिनमें 25 लाख मामले तो 10 वर्षों से भी अधिक समय से विचाराधीन हैं।
ये स्तब्धकारी आंकड़े एक तरफ भारत की न्याय प्रणाली के बारे में हम भारतीयों के विश्वास को अभिव्यक्त करते हैं तो दूसरी तरफ विश्लेषणात्मक सोच रखने वाले कुछ लोगों को यह जानने के लिए बाध्य करते हैं कि अदालतों में मामले इतनी बड़ी संख्या में लंबित क्यों रहते हैं?
मेरी राय में पहला मुद्दा यह है कि भारत अपने औपनिवेशिक शासक देश ब्रिटेन की ही तरह एक कॉमन लॉ वाला देश है। कॉमन लॉ वाले देशों में अदालतों द्वारा पहले दिए जा चुके निर्णय बाद में आने वाले मामलों पर बाध्यकारी होते हैं। इसके अलावा ऊपरी अदालतों के सुनाए हुए फैसले निचली अदालतों पर बाध्यकारी होते हैं और देश की सर्वोच्च अदालत यानी उच्चतम न्यायालय के फैसलों को या तो खुद वही अदालत या फिर नया कानून बनाकर ही पलटा जा सकता है। इसका मतलब है कि किसी भी न्यायाधीश के समक्ष सुनवाई के लिए आने वाले मामले में उसे फैसला सुनाने के पहले सभी पूर्व-निर्णयों का परीक्षण करना होगा। वादी एवं प्रतिवादी की पैरवी करने वाले वकीलों को भी व्यापक पड़ताल करनी होती है और संदर्भ से जुड़े पूर्व-निर्णयों का हवाला देते हुए अपनी दलीलें रखनी होती हैं।
उच्चतर न्यायपालिका विलंबित न्याय के साथ ही लंबित मुकदमों की बढ़ती संख्या का मुद्दा स्वीकार करने की स्थिति में दिखती है। ई-अदालतों की संकल्पना वर्ष 2005 से ही वजूद में है और देश भर में करीब 15,000 अदालतों को इसके दायरे में लाना है। इस वेबिनार में शामिल न्यायमूर्ति गौतम पटेल ने कहा कि कई ऑनलाइन प्रयासों की ही तरह कोविड महामारी के समय पिछले नौ महीनों में ई-अदालतों को भी बढ़ावा मिलता दिखा है। इस समय उनका दांव वर्चुअल अदालतों पर है जिसमें अदालती सुनवाई जूम जैसे ऑनलाइन उपकरणों की मदद से की जाती है जिसमें वादी-प्रतिवादी के वकील और न्यायाधीश एवं अदालत के अधिकारी भी ऑनलाइन मौजूद रहते हैं। यह पहल तेजी पकड़ती हुई नजर आ रही है। ई-अदालतों के फायदों को देखते हुए अब इनकी सराहना होने लगी है। उस वेबिनार में मौजूद न्यायमूर्ति रवींद्र चव्हाण ने यह कहा कि रोजाना 6,000 सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों को साक्ष्य देने के लिए अदालतों में पेश होने के लिए बुलाया जाता है और वे लंबा सफर तय कर एवं समय गंवाकर साक्ष्य देने पहुंचते हैं और वहां पर उन्हें पता चलता है कि सुनवाई या तो स्थगित हो चुकी है या फिर महज 30 मिनट की सुनवाई हुई है। उन्होंने कहा कि इसी तरह वक्त की बरबादी पुलिस अधिकारियों को भेजे गए समन के मामले में भी होती है। वह सही बात ही करते हैं कि अगर ये सुनवाइयां ऑनलाइन होती तो काफी समय बचता क्योंकि उन्हें लंबा सफर तय कर अदालतों में पेश होने के लिए नहीं जाना पड़ता जहां पर सुनवाई के लिए भी लंबा इंतजार करना पड़ता है।
वकीलों एवं न्यायाधीशों दोनों के ही काम को आसान बनाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की कई दूसरी कोशिशें भी जारी हैं। ऑल इंडिया रिपोर्टर पिछले करीब 100 वर्षों से पुराने मामलों का ब्योरा देता आया है। न्यायिक व्यवस्था से जुड़े हरेक शख्स की तस्वीर में नजर आने वाली भूरे रंग वाली मोटी जिल्द की किताबें यही ब्योरा देती हैं। ऑल इंडिया रिपोर्टर अब ऑनलाइन संस्करण में भी उपलब्ध है। मनुपात्र, कानून, नियरलॉ, केसटेक्स्ट और लेक्स मशीन जैसे ऑनलाइन मंचों के जरिये भी पिछले मामलों के ब्योरे तलाशे जा सकते हैं। ऑनलाइन सर्च से जरूरी जानकारियां फौरन परोसी जा सकती हैं और निश्चित रूप से इससे वकीलों एवं न्यायाधीशों दोनों की ही काफी मेहनत बचेगी। बड़ा इनाम उन सर्च टूल्स को मिलेगा जो न केवल तलाश के नतीजे बता देते हैं बल्कि सटीक पूर्व-निर्णयों पर आधारित नतीजे भी बताते हैं।
कुछ स्टार्टअप न्यायिक मूल्य शृंखला के दूसरे हिस्सों में तेजी लाने के तरीके मुहैया कराने की कोशिश कर रही हैं। स्पॉटड्राफ्ट, लीगलक्राफ्ट, लॉ गीक्स और लीगलिटी जैसी स्टार्टअप अनुबंध तैयार करने एवं उनकी समीक्षा को त्वरित गति से संपन्न करने पर जोर दे रहे हैं। मशीन लर्निंग/ डीप लर्निंग/ कृत्रिम मेधा के मेरे जैसे उत्साही समर्थक अदालती फैसलों के इस डेटाबेस को कुछ उसी तरह देखता है जैसे कोई बच्चा किसी आइसक्रीम टब की तरफ देखेगा। भला किस जगह आपको अपने एल्गोरिद्म से खेलने के लिए करोड़ों निर्णित मामलों एवं करोड़ों लंबित मामलों के आंकड़े मिलेंगे। और इस प्रक्रिया में संभावित मदद से भारत में न्याय व्यवस्था को भी रफ्तार मिलेगी।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
