उपभोक्ता आयोगों और अदालतों के सामने उपभोक्ता की परिभाषा विवादास्पद मुद्दों में से एक रहा है।
अस्पतालों और सबसे पहले डॉक्टरों ने मरीजों को एक सेवा के उपभोक्ता की श्रेणी में रखे जाने का विरोध किया था। इसे सर्वोच्च न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया था।
वकीलों को अब तक उपभोक्ता कानून के दायरे में माना जाता रहा है, लेकिन अब इस कानून की पुर्नव्याख्या की कोशिश हो रही है ताकि इससे बाहर निकला जा सके। आवास उपलब्ध कराने वाले सरकारी अधिकारियों ने भी उपभोक्ताओं के प्रति दायित्व से निकलने की नाकाम कोशिश की है।
अपने दो फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि वे सेवा उपलब्ध करा रहे थे और अगर सेवा में कमी का मामला सामने आता है तो उन्हें मुआवजा देना होगा। अब इस कानून के अपवाद की बात कर लेते हैं। अगर कोई व्यक्ति नीलामी में आवासीय प्लॉट खरीदता है तो ऐसे में वह व्यक्ति उपभोक्ता नहीं कहलाएगा और उपभोक्ता कानून के तहत इसका कोई उपचार उपलब्ध नहीं है।
केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ प्रशासन बनाम अमरजीत सिंह के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया है कि विकसित जगह पर फ्लैट खरीदना प्लॉट की नीलामी से अलग है, जहां आधारभूत संरचना का इंतजाम किया जाना बाकी है। खरीदार को यह प्लॉट उस आधार पर लेना चाहिए जैसे कि वह ‘जहां है, जैसे है’ के आधार पर होता है।
इस मामले में रियल एस्टेट से जुड़े अधिकारियों ने बड़ी संख्या में आवासीय व वाणिज्यिक प्लॉट की नीलामी का आयोजन किया था और सर्वोच्च बोलीदाता को यह प्लॉट दिए गए थे। नियम और शर्तों के मुताबिक आंशिक भुगतान किए गए थे।
हालांकि ऐसे प्लॉट का आवंटन पाने वालों ने दो साल बाद शिकायत की और कहा कि अधिकारियों ने उन्हें मूलभूत सुविधाएं भी मुहैया नहीं कराई और इस वजह से उन्हें भारी नुकसान उठाना पड़ा। उन्होंने बाकी रकम चुकाने से इनकार कर दिया और बाकी रकम के भुगतान से पहले मूलभूत सुविधाओं की मांग को लेकर उपभोक्ता फोरम का दरवाजा खटखटाया।
दूसरी ओर अधिकारियों ने कहा कि उन्होंने इन प्लॉटों को विकसित करने का वादा नहीं किया था और नीलामी की शर्तों के तहत ऐसा करना उनकी जिम्मेदारी नहीं थी। ऐसे प्लॉट की नीलामी न तो वस्तुओं की बिक्री के तहत आती है और न ही किसी तरह की सेवा प्रदान करने के दायरे में। इसलिए आवंटन पाने वाले उपभोक्ता नहीं कहलाएंगे।
केंद्र शासित उपभोक्ता आयोग और राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने खरीदारों के हक में भुगतान की समयसीमा को पुनर्व्यवस्थित कर दिया। इसके बाद चंडीगढ़ प्रशासन ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की और अदालत ने इस समय इसे स्वीकार कर लिया।
1993 में आवास डिलिवर किए जाने के मामले में यानी लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम. के. गुप्ता के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आवास उपलब्ध कराने वाले को उपभोक्ता कानून में शामिल कर दिया था।
इसमें कहा गया था – अगर ऐसा प्राधिकरण मकान के निर्माण का मामला हाथ में लेता है या आवास का आवंटन करता है या बिल्डिंग साइट राज्य के किसी नागरिक को देता है चाहे वह नम्रता केबतौर हो या फायदे केतौर पर, यह सेवा प्रदान करना माना जाएगा और इसे सेवा प्रदान करने वाले मामले में शामिल किया जाएगा।
बिल्डिंग साइट या फ्लैट के लिए आवेदन करने वाला व्यक्ति सक्षम उपयोगकर्ता है और लेनदेन की प्रकृति सेवा प्रदान करने वाला मामले के तहत होगी। हालांकि यह नियम नीलामी में मकान खरीदार की मदद नहीं कर पाएगी।
अदालत के मुताबिक, उपरोक्त मामले में विकास प्राधिकरण सेवा प्रदान करर रहा था, लेकिन चंडीगढ़ के मामले में नीलामी में बोली लगाने वाले लोग न तो किराए पर थे और न ही सेवा प्राप्त कर रहे थे। न ही बिक्रेता कारोबारी है जो कि चीजें बेच रहा है या फिर वितरित कर रहा है।
जो रकम चुकाई गई वह साइट के लिए थी न कि किसी सेवा के लिए। इसलिए बोली लगाने वाले उपभोक्ता नहीं थे। किसी साइट की सार्वजनिक नीलामी में बोली लगाने वाला नीलामी से पहले प्लॉट का निरीक्षण कर सकता है और वहां मौजूद सेवाओं के अस्तित्व के बारे में जानकारी ले सकता है। वह खास कीमत देने के लिए बाध्य नहीं है।
जहां किसी तरह की सुविधा की गारंटी नहीं है तो वहां अधिकारियों द्वारा सेवा प्रदान करने का सवाल ही नहीं उठता। अदालत केमुताबिक, खुली आंखों के कोई व्यक्ति नीलामी में हिस्सा लेता है तो फिर वह इस आधार पर भुगतान करने से इनकार नहीं कर सकता कि वहां सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराई गई।
चंडीगढ़ मामले की तरह ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य मामले लुधियाना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट बनाम शक्ति कॉरपोरेट हाउस बिल्डिंग सोसायटी लिमिटेड में राष्ट्रीय आयोग के फैसले को अलग रख दिया। हालांकि इस मामले की पृष्ठभूमि अलग थी, इसमें सवाल उठाया गया था कि क्या ट्रस्ट को अनुचित व्यापार व्यवहार के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जिसने हाउसिंग सोसायटी को विकसित प्लॉट देने का वादा किया था, पर उसे पूरा नहीं किया।
राज्य और राष्ट्रीय आयोग ने माना था कि ट्रस्ट ऐसे अनुचित व्यापार व्यवहार में शामिल रहा था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उन फैसलों को अलग रख दिया और इस आरोप से ट्रस्ट को मुक्त कर दिया। चंडीगढ मामले ने उपभोक्ता कानून की सामान्य समझ की बाबत एक अपवाद सामने लाया है कि नीलाम किए गए प्लॉट के लिए आधारभूत संरचना उपलब्ध कराना आवास से जुड़े अधिकारों का दायित्व है।
ऐसे में नीलामी के जरिए खरीदने वालों को नीलामी की सेवा-शर्तों को गंभीरता से पढ़ने की दरकार है। चूंकि उपभोक्ता फोरम ने उनकी तरफ से दरवाजा बंद कर लिया है, लिहाजा दीवानी अदालत में इस मामले को निपटने में काफी लंबा वक्त लगेगा।
