यह उस शाम की बात है जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग)की सरकार के मंत्रियों को नए पद की शपथ दिलाई जानी थी।
कई साल बाद कांग्रेस सत्ता में आ रही थी। मुखर्जी ने अपनी जिंदगी में पहली बार लोकसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी। वह उस वक्त गृह मंत्रालय से संबंधित समितियों की रिपोर्टों को बेहद गौर से देख रहे थे। दरअसल, उनसे कहा गया था कि उन्हें यही विभाग दिया जाने वाला है।
कुछ खबरिया चैनलों को इस बात की भनक मिल गई और उन्होंने उस दिन कश्मीर में हुए आतंकी हमले पर मुखर्जी की हंसी मजाक में की गई टिप्पणी को दिखाना भी शुरू कर दिया था।
अचानक मुखर्जी की निगाहें टेलीविजन पर चल रही एक खबर पर पड़ी। खबर थी मंत्रियों के प्रभार की घोषणा की। मुखर्जी को रक्षा मंत्रालय का कार्यभार देने की घोषणा की जा चुकी थी। उनके सहयोगी भौचक्के थे। उन्हें लग रहा था कि प्रणब दा को रक्षा मंत्रालय सौंप कर उनका अपमान किया गया हो।
शायद उनका यह सोचना था कि रक्षा मंत्रालय का दर्जा गृह मंत्रालय से कमतर है। मुखर्जी लगभग 10 से 15 सेकंड तक नए हालात को समझने की कोशिश करते रहे। वह थोड़ी देर के लिए अंदर गए और फिर बाहर आकर अपने एक सहयोगी से बोले, ‘रक्षा सचिव से बात कराओ।’
संप्रग सरकार का सबसे ज्यादा काबिल और अनुभवी मंत्री अपने काम में जुट चुका था। मुखर्जी लगभग आधी सदी से भी ज्यादा वक्त से एक कांग्रेसी के तौर पर काम कर रहे हैं।
उनका दिमाग कंप्यूटर की तरह तेज है। वह सिर्फ तारीखों और नामों को बखूबी याद नहीं रह सकते, बल्कि अनेक घटनाओं के उतार चढ़ाव भी उन्हें अच्छी तरह से याद रहते हैं।
उनकी यही खूबी उनके लिए मुसीबत भी खड़ी कर देती है। एक साल पहले जब उनका नाम राष्ट्रपति पद के प्रस्तावित हुआ था, तो खुद उनकी पार्टी ने ही उसे नकार दिया था। इससे उन्हें बहुत बड़ा झटका लगा था।
वैसे, इस सरकार में मुखर्जी को रक्षा मंत्रालय का काम पसंद भी आने लगा था। उनका कहना है कि, ‘मुझे वहां काफी मजा आया था। वहां सीखने के लिए काफी कुछ था। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि वह एक नए तरह का काम था।’ संप्रग सरकार में एक दौर में मुखर्जी मंत्रियों के पांच या दस नहीं, पूरे 35 समूहों का नेतृत्व कर रहे थे।
हवाई अड्डा आधुनिकीकरण से लेकर गेहूं की कीमतों तक और सेज नीति का मसौदा बनाने से लेकर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे तक हर काम में सरकार को मुखर्जी की जरूरत थी।
कुछ साल पहले आरक्षण के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे अगड़ी जातियों के छात्रों को सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के साथ बातचीत करने के लिए बुलाया था।
लेकिन उन छात्रों ने इस आधार पर उनसे मिलने से इनकार कर दिया कि उन रवैया पक्षपात पूर्ण है। इसके बाद यह मुद्दा भी मुखर्जी की गोद में आ गिरा।
लेकिन जब पॉल वॉल्कर की रिपोर्ट आने के बाद तत्कालीन विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह को इस्तीफा देना पड़ा और विदेश मंत्री का दफ्तर सूना पड़ गया, तो इसके बाद 2007 में मुखर्जी को विदेश मंत्री बनाया गया।
उनके इस कार्यकाल में कई कूटनीतिक रंग देखने को मिले। उनको प्रबंधन की राजनीति का महारथी माना जाता रहा है और सरकार की प्रतिष्ठा बन चुके भारत-अमेरिका परमाणु करार का कराने में उन्होंने अपने कूटनीतिक कौशल और प्रबंधन का बखूबी इस्तेमाल किया।
उस समय सरकार की सहयोगी रही वामपंथी पार्टियां बार-बार सरकार को चेतावनी देती रहीं कि अगर सरकार ने परमाणु करार किया, तो वह भी समर्थन की बैसाखी खींचने में पल-भर की देरी नहीं करेंगी। मुखर्जी और माकपा के सीताराम येचुरी उस समय दोनों पक्षों के प्रमुख वार्ताकार थे।
हालांकि, मुखर्जी प्रकाश करात को मनाने में नाकाम रहे, लेकिन उन्होंने वामदलों को जुलाई तक वार्ता में बांधे रखा। इस वजह से सरकार को समर्थन की वैकल्पिक व्यवस्था करने का मौका मिला गया। सरकार को कुछ और महीने चलाने के लिए समर्थन जुटाने वाली टोली में उनकी भूमिका भी काफी अहम थी।
वामदलों ने समर्थन वापस ले लिया लेकिन मुखर्जी ने कभी भी वामदलों पर आक्रामक रवैया अख्तियार नहीं किया। उन्हें पता है कि गठबंधन सरकारों के इस दौर में कांग्रेस को आगे भी वामदलों के समर्थन की जरूरत पड़ सकती है।
इसका अंदाजा इस बात से लग सकता है कि जब वामदलों ने समर्थन वापसी की चिट्ठी रायसीना हिल तक पहुंचा दी, उसके दो दिन बाद तक मुखर्जी-येचुरी संवाद बदस्तूर चलता रहा। पी. वी. नरसिंह राव की कैबिनेट में भी मुखर्जी मौजूद थे और उनको नंबर दो का रुतबा हासिल था।
मनमोहन सरकार के चार साल से भी ज्यादा के कार्यकाल में वह नंबर दो की ताकत वाले मंत्री बने रहे। दरअसल, सरकार पर आए हर संकट को टालने में उनकी भूमिका सबसे अहम रही। हर मौके पर मुखर्जी ही सरकार के काम आए हैं।
अगर मुखर्जी से यह पूछा जाए कि किस नेता को वह सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। निस्संदेह उनका जवाब होगा इंदिरा गांधी। उनका कहना है कि श्रीमती गांधी से ही उन्होंने प्रशासनिक कौशल और पार्टी की अंदरूनी राजनीति को साधने की कला सीखी है। वैसे इंदिरा गांधी और मुखर्जी के बीच बढ़िया तालमेल की खबर सबको है।
1980 के एक वाकये की बात करते हैं। इंदिरा गांधी की हिदायत के बावजूद मुखर्जी ने लोक सभा चुनाव में दांव आजमाया और हार गए। इसके कुछ घंटे बाद इंदिरा गांधी ने मुखर्जी को टेलीफोन किया और कहा, ‘इस मुल्क का हर आदमी जानता था कि आप चुनाव नहीं जीत सकते।
यहां तक कि तुम्हारी पत्नी को भी इस बारे में कोई संदेह नहीं होगा। तब आखिर किस आधार पर तुमने चुनाव लड़ने का फैसला किया?’ श्रीमती गांधी ने जवाब सुने बिना ही फोन पटक दिया। इसके दो दिन बाद निराश मुखर्जी को फिर से दिल्ली से कॉल आया। इस बार फोन पर संजय गांधी थे।
संजय गांधी ने मुखर्जी से कहा, ‘मम्मी आपसे बहुत नाराज हैं। लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि कोई भी कैबिनेट प्रणब के बिना पूरी नहीं हो सकती।’ मुखर्जी को इंदिरा गांधी की सरकार में वित्त मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई। और उन्हें राज्यसभा में भेजा गया।
मुखर्जी, मनमोहन सिंह का पूरा सम्मान करते हैं, लेकिन उनके जेहन में यह बात भी है कि जब वह कैबिनेट मंत्री थे तो मनमोहन एक अधिकारी भर थे। आपने उन्हें कभी भी प्रधानमंत्री को ‘सर’ कहते नहीं सुना होगा, मुखर्जी हमेशा उन्हें उनके नाम से बुलाते है।
जब वह प्रधानमंत्री को फोन करते हैं तो हमेशा यही कहते हैं, ‘प्रणब बोल रहा हूं’। यह प्रधानमंत्री के प्रति असम्मान नहीं है। यह तो कांग्रेस के भीतर असल ताकत का नजारा भर है।