खबरों के मुताबिक सरकार बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं के वित्त पोषण के लिए विकास वित्त संस्थान यानी डेवलपमेंट फाइनैंस इंस्टीट्यूशन (डीएफआई) में नई जान फूंकने की दिशा में काम कर रही है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है ताकि बुनियादी परियोजनाओं के लिए धन की बढ़ती चुनौतियां दूर की जा सकें। अतीत में डीएफआई ठीक से काम नहीं कर सके हैं और ऐसे में इस कदम को ऐतिहासिक संदर्भ में देखना और आकलन करना जरूरी है।
यह पता लगाना जरूरी है कि आखिर क्यों पिछले प्रयास नाकाम रहे। इस बात का ध्यान रखते हुए ही आगे कदम बढ़ाना चाहिए। कुछ लोग कहेंगे कि गंभीर समस्याओं को हल करना और देश के वित्तीय तंत्र को कारगर बनाना, लंबी अवधि की परियोजनाएं हैं जबकि अभी डीएफआई बनाने के तात्कालिक लाभ होंगे। बहरहाल, थोड़ा सा आर्थिक चिंतन यह दिखाता है कि एक नए डीएफआई को सार्थक बैलेंस शीट तैयार करने में समय भी लगेगा। यानी अगर डीएफआई बनाया जाता है तो उसके निर्माण में सतर्कता बरतने के साथ-साथ सरकार को देश में वित्त पोषण की समस्या को दूर करने के लिए दीर्घकालिक नीतिगत बाधाओं को भी दूर करना होगा।
आइए अब तक के सफर पर नजर डालते हैं। सन 1950 के दशक में देश में पूंजी जुटाने से तात्पर्य डेट फाइनैंसिंग से था क्योंकि ज्यादातर जोखिम सरकार और सरकारी उपक्रम उठाते थे। इसके बौद्धिक कार्य की रूपरेखा में बैंक शामिल थे जो कार्यशील पूंजी और अल्पावधि के लिए कोष मुहैया कराते। इसके अलावा दीर्घावधि के वित्त पोषण के लिए वित्तीय फर्मों की एक नई श्रेणी डेवलपमेंट फाइनैस इंस्टीट्यूशन के रूप में सामने आई।
पहले डीएफआई की स्थापना सन 1948 में की गई थी जिसका नाम था इंडस्ट्रियल फाइनैंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया (आईएफसीआई)। इसके बाद सन 1951 में एसएफसी अधिनियम के गठन के बाद राज्य स्तर पर स्टेट फाइनैंस कॉर्पोरेशन (एसएफसी) का गठन किया गया। नियोजित आर्थिक विकास के शुरुआती दौर में कुछ और डीएफआई की स्थापना की गई, मसलन सन 1955 में आईसीआईसीआई और सन 1964 में यूटीआई और आईडीबीआई। डीएफआई के दूसरे दौर में सन 1970 और 1980 के दशक में क्षेत्र विशेष पर केंद्रित वित्तीय संस्थान स्थापित किए गए। इनमें नाबार्ड, एक्जिम बैंक, एनएचबी और आईआरएफसी शामिल हैं। तीसरी पीढ़ी
के डीएफआई- आईडीएफसी और आईआईएफसीएल की स्थापना 1990 के दशक में हुई।
इस सफर में कई मोड़ों पर जब नीति निर्माताओं को वित्तीय तंत्र के कामकाज में अशक्तता दिखी तो उन्होंने वित्तीय नीति की नाकामियां दूर करने के बजाय नए डीएफआई शुरू कर दिए।
हमें यह सवाल पूछना चाहिए कि एक डीएफआई, निजी वित्तीय फर्म की तुलना में उपयोगी क्यों है? मामूली जांच बताती है कि डीएफआई को सरकार की ओर से सब्सिडी मिलती है। उन्हें आरबीआई की ओर से रियायती दर पर वित्त मिला। उन्हें बहुपक्षीय और द्विपक्षीय एजेंसियों की ओर से भी कोष मिला। इसमें भारत सरकार ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई और उसने इस ऋण के विदेशी विनिमय के जोखिम को दूर किया। डीएफआई के बॉन्ड को बैंकों के सांविधिक तरलता अनुपात की अर्हता दी गई और बैंकों के संसाधन डीएफआई को भेजना भी देश के वित्तीय दबाव का एक कारण बना।
जब वित्तीय सुधारों की शुरुआत हुई तो डीएफआई के साथ विशेष व्यवहार के ये तत्त्व आंशिक रूप से समाप्त हो गया और इनमें से कई संगठनों की व्यवहार्यता जोखिम में आ गई। जब बैलेंस शीट अल्पावधि की उधारी और दीर्घावधि की जोखिम परिसंपत्तियों पर निर्मित होती है तो जोखिम प्रबंधन की समस्या होती है। कमजोर कारोबारी मॉडल की कठिनाइयां, कमजोर प्रोत्साहन और सरकार की संबद्धता से जुड़े नैतिक जोखिम तथा कमजोर नियमन आदि कारोबारी नाकामी के रूप में प्रतिफलित होते हैं। आरबीआई की कई समितियों ने यही निष्कर्ष निकाला है कि डीएफआई की अवधारणाा में ढांचागत दिक्कत है। उन्होंने उन्हें बैंक या गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में बदलने की अनुशंसा भी की। आईडीबीआई और आईसीआईसीआई बैंक इसके उदाहरण हैं।
आज डीएफआई बनाने के प्रयास में हमें इस संस्थागत स्मृति को याद रखना होगा कि सन 1990 के दशक से किस तरह की चुनौतियां सामने आईं। इस दौर में आईएफसीआई, आईडीबीआई और आईसीआईसीआई को तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
सन 1990 के दशक में अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की भूमिका बढऩे के बाद यह समझ में आया कि देश में फाइनैंसिंग को इक्विटी और डेट दोनों में क्षमता की आवश्यकता है। प्रतिभूति बाजार नियामक सेबी तथा स्टॉक एक्सचेंज, डिपॉजिटरी तथा क्लियरिंग कॉर्पोरेशन जैसे निकायों की स्थापना ने इक्विटी बाजार के विकास और बाजार नियमन में काफी फायदा पहुंचाया। बहरहाल डेट के मोर्चे पर इतनी प्रगति नहीं हुई जिसका असर बुनियादी क्षेत्र की फंडिंग पर पड़ा और डीएफआई जैसे संस्थानों की क्षमता पर भी।
नीति निर्माताओं के मस्तिष्क में बुनियादी ढांचा फाइनैंसिंग को लेकर तमाम असंतोष हैं। इसका बैंक आधारित मॉडल 2002 से 2011 की आर्थिक तेजी के दौरान अहम भूमिका में था लेकिन इसमें तमाम दिक्कतें थीं। इन परियोजनाओं की अनिश्चितता तथा परिपक्वता प्रोफाइल बैंकों की बैलेंस शीट की दृष्टि से सही नहीं हैं। आने वाले दशक में इस क्षेत्र में 100 लाख करोड़ रुपये से अधिक के वित्त पोषण की जरूरत होगी। ऐसे में समस्या का हल तलाशना आवश्यक है।
आज डीएफआई के निर्माण का आकर्षण इस बात में है कि यह अल्पावधि में लाभदायक साबित हो सकती हैं। 10 हजार करोड़ रुपये मूल्य बैलेंस शीट वाला संस्थान बनाना मुश्किल नहीं है लेकिन असली चुनौती है आकार को बड़ा करना। जब तक बैलेंस शीट कुछ लाख करोड़ रुपये की न हो, नया डीएफआई अर्थव्यवस्था पर असर नहीं डाल पाएगा। लेकिन इतनी तगड़ी बैलेंस शीट बनाना भी एक धीमी प्रक्रिया है।
डीएफआई की स्थापना एक तात्कालिक हल नजर आता है लेकिन यह एक धीमा उपाय है। गहन सुधार धीमे होते हैं लेकिन उनका असर अधिक होता है क्योंकि कानून और नियम बदलने में निजी व्यक्तियों की ऊर्जा और बैलेंस शीट लगती है।
सन 1980 के दशक के आखिर में जब देश के सॉफ्टवेयर और आईटीईएस क्षेत्र में अवसर सामने आए। नीति निर्माता इंडियन हाई टेक्रॉलजी फाइनैंस कॉर्पोरेशन स्थापित कर सकते थे लेकिन इसके बजाय सन 1984 की जीएस पटेल समिति के माध्यम से गहन सुधारों को अंजाम दिया गया। इसने 1990 के दशक के सुधारों की बुनियाद तैयार की और हाल के दशकों में इस क्षेत्र में लाखों करोड़ रुपये की पूंजी की राह आसान हुई।
वित्तीय नीति, डेट बाजार और बुनियादी ढांचा वित्त पोषण की समस्याओं की पूरी समझ समितियों की रिपोर्ट और मसौदा कानूनों से मिल सकती है। डीएफआई बनाने की बड़े दायरे की परियोजना के अलावा यह भी जरूरी है कि दीर्घावधि के वित्तीय सुधारों को लेकर भी समझ विकसित करनी होगी।
(लेखक भारत सरकार के सेवानिवृत्त सचिव और वर्तमान में एनसीएईआर में प्रोफेसर हैं। लेख में विचार निजी हैं)
