अभी कुछ ही दिनों पहले सरकारी तेल कंपनियों के अधिकारियों की हड़ताल की वजह से देश भर में पेट्रोल और डीजल की भारी किल्लत हो गई थी। उनके खिलाफ जल्द ही कड़े कदम उठाने के लिए सरकार की तारीफ करनी चाहिए।
आखिर इसी वजह से तो उनकी हड़ताल टूट पाई। दूसरी तरफ, उन अधिकारियों की तनख्वाह सार्वजनिक कर दिए जाने से जनता का साथ भी उन्हें नहीं मिल पाया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र के हिसाब से उन्हें मोटी-ताजी तनख्वाह मिलती थी।
हालांकि, सरकार ने इस मामले का प्रबंधन तो काफी सूझ-बूझ से किया, लेकिन इस सूझ-बूझ का प्रदर्शन उसने हड़ताल से पहले नहीं किया। पहली बात तो यह है कि जब भी हड़ताल का ऐलान होता है, तो वह हफ्तों पहले किया जाता है।
इस बीच डीलर चीजों का अच्छा-खासा स्टॉक जमा कर लेते हैं। लेकिन ऐसा इस बार नहीं हुआ था । दरअसल, पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा ने पहले से ही पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कटौती का ऐलान कर रखा था। ऐसे में कोई भी पेट्रोल पंप मालिक क्यों पेट्रोल और डीजल को जमा करके रखता।
अगर ऐसा करना देवड़ा की राजनीतिक मजबूरी ही थी, तो सरकार को डीलरों को यह तो आश्वासन देना ही चाहिए था कि अगर ज्यादा तेल खरीदकर रखेंगे, तो उनके नुकसान की भरपाई वह खुद करेगी।
सरकार को उन्हें यह आश्वासन तो देना ही चाहिए था कि हड़ताल के दौरान या फिर उसके तुरंत बाद कीमतों में कोई कटौती नहीं होगी।
वैसे, इस हड़ताल की वजह तो यह थी कि तेल सेक्टर में अधिकारियों को दी जा रही तनख्वाह उस स्तर से काफी कम थी, जिसकी सिफारिश जस्टिस एम.जे. राव कमेटी ने की थी। वैसे, उनकी बुनियादी मांग यह थी कि उनके वेतन की समीक्षा 10 की बजाए पांच सालों में हो।
वैसे, यह कोई नाजायज मांग भी नहीं है। खास तौर पर तब तो कतई नहीं, जब प्राइवेट सेक्टर में वेतन में हर साल इजाफा होता है। तेल उद्योग की बुनियादी बातें सरकार से काफी जुदा हैं। वैसे, राजग सरकार में जब राम नाईक पेट्रोलियम मंत्री थे, तो उन्होंने इस मांग को मान भी लिया था।
इसीलिए एक तरफ यह बात तो सच है कि सरकार ने मंत्रियों के समूह से इस बारे में एक महीने में हल निकालने के लिए कहा था, लेकिन वे इतना इंतजार भी नहीं कर सके। दूसरी तरफ, उनकी सहनशीलता जवाब दे गई हो क्योंकि उनसे इस तरह के वादे पहले भी किए जा चुके हैं।
आज भी मुल्क में निजी क्षेत्र के पेट्रोल पंप नहीं हैं, जिनकी मदद से ऐसे वक्त में पेट्रोल और डीजल की आपूर्ति को बरकरार रखा जा सके। इसीलिए हड़ताली अधिकारियों को मुल्क को बंधक बनाकर रखने का कोई हक नहीं था।
पेट्रोलियम सेक्टर में मौजूद निजी खिलाड़ी या तो अपने उत्पादन को विदेशों में भेजना ज्यादा पसंद करते हैं या फिर वे सरकारी रिफाइनरी की मदद से इन्हें देसी बाजार में पहुंचाते हैं। वजह है सब्सिडी और अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग कीमतें।
इस वजह से वे घाटे में आ जाते हैं। अगर सरकार बाजार में प्रतिद्वंद्विता को बढ़ाना चाहती है, तो उसने सरकारी और निजी सेक्टर को एक बराबर माहौल देना चाहिए।
इससे तेल की आपूर्ति को बरकरार रखने में मदद मिलती है। खास कर ऐसे माहौल में तो यह बहुत जरूरी है, जहां हड़ताली कर्मचारियों की शिकायतों का हल नहीं निकाला गया है।