यह संभव है कि स्वतंत्रता दिवस की तैयारियों में व्यस्त रहने के कारण कुछ ही मुख्यमंत्री उच्चतम न्यायालय के दो दिन पहले ही आए एक फैसले की ओर पर्याप्त ध्यान दे पाए हों।
इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पसायत और न्यायमूर्ति सतशिवम ने 2006 की सिविल अपील नंबर 5722 का निबटारा किया था। इस फैसले में विद्युत पर बने अपील न्यायाधिकरण के उस फैसले को पलट दिया गया जिसमें नवंबर 2006 में कहा गया था कि उड़ीसा सरकार की कंपनी ग्रिडको अन्य राज्यों को अधिक दाम पर बिजली बेचकर बहुत ज्यादा लाभ नहीं कमा सकती है।
अपीली न्यायाधिकरण ने कहा था कि ग्रिडको, जिसे राज्य के लिए बिजली खरीदने और उसका पारेषण करने का एकाधिकार है, करीब 1.1 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीद कर अन्य राज्यों को 4.7 रुपये प्रति यूनिट की दर से नहीं बेच सकती। (अपने प्रयोग केलिए वह केंद्र सरकार से सस्ती दर पर बिजली खरीदकर उसके चार गुने ज्यादा दर पर दूसरे राज्यों को बेचती है)।
लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ग्रिडको ऐसा कर सकती है। न्यायमूर्ति पसायत और न्यायमूर्ति सतशिवम के फैसले को लागू करने के परिणाम बहुत गंभीर हो सकते हैं। इसमें सेवाओं और सामग्री की दरें अपने राज्य के लिए कुछ और रहेंगी और दूसरे राज्यों के लिए कुछ और।
इस तरह से अगर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कह सकते हैं कि इस्पात के उत्पादक, जो बिहार में इसका प्रयोग करते हैं, उनके लिए खनिज पदार्थों और कोयला की दरें कुछ और रहेंगी और देश के अन्य राज्यों में इनका इस्तेमाल होने पर दरें चार गुना ज्यादा रहेंगी। इसी तरह से पंजाब भी अपने गेहूं के लिए अलग अलग दरें तय कर सकता है।
दरअसल यह मामला 10 मार्च 2005 को शुरू हुआ, जब ग्रिडको ने बिजली बेचने के लिए ऑफर दिया, जिसमें विभिन्न राज्यों के बिजली बोर्ड और उसका उपभोग करने वाले और बिजली के खरीदार बोली में शामिल हो सकते थे। जब बिजली के संकट से जूझ रहे भारत जैसे देश के खरीदारों ने बोली लगाना शुरू किया तो कीमतें अनियंत्रित होती चली गईं। इस स्थिति से बचने के लिए कानून में कुछ सुरक्षा कवच बनाए गए।
उदाहरण के लिए यह प्रावधान किया गया कि बिजली के खरीदार, अन्य खरीदारों को इसे नहीं बेच सकते हैं। फर्जी खरीदारों के चलते कीमतें बेतहाशा बढ़ जातीं। इसके साथ ही केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने नियम बनाया कि खरीदारी का लाभ 4 पैसे प्रति यूनिट तक ही रहेगा, जो बिजली की कीमत 2 रुपये प्रति यूनिट के करीब बेचे जाने पर करीब 2 प्रतिशत आता है।
लेकिन स्पष्ट रूप से ग्रिडको जो 1.1 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली की खरीदारी करता है, वह केवल 4 पैसे प्रति यूनिट के लाभ पर बिजली नहीं बेचना चाहता था। वह भी ऐसी स्थिति में जब बिजली के जरुरतमंद राज्य उसे 5 रुपये प्रति यूनिट और उससे भी ज्यादा दर पर बिजली खरीदने को तैयार हैं। ऐसे में बिजली की बिक्री का प्रबंधन कैसे किया जाए, यह दिलचस्प हो गया।
सीईआरसी के कानून केवल दो राज्यों के बीच बिजली की खरीद-फरोख्त के मामले में लागू होता है, इसका नियम राज्य के भीतर बिजली बेचने के मामले में लागू नहीं होता। इसलिए ग्रिडको ने अपनी बिजली, पॉवर ट्रेडिंग कार्पोरेशन (पीटीसी) को उड़ीसा की सीमा के भीतर बेच दी (उड़ीसा इलेक्ट्रिसिटी रेग्युलेटरी कमीशन, ओईआरसी, ने इस तरह का कोई लाभांश सीलिंग का नियम नहीं बनाया है)।
पीटीसी को 4.7 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेची गई और इस तरह से जब पीटीसी ने देश के दूसरे राज्यों और विद्युत बोर्डों को बिजली बेची तो 4 प्रतिशत के मार्जिन का ध्यान रखा। इसके विरोध में गजेंद्र हल्दिया ने एक याचिका दाखिल कर दी। यह याचिका उन्होंने योजना आयोग के सदस्य के रूप में नहीं, बल्कि व्यक्तिगत रूप से दायर की थी।
सीईआरसी की इस याचिका के प्रति सहानुभूति थी, लेकिन उसने कहा कि इस मामले में वह हस्तक्षेप नहीं कर सकती क्योंकि ग्रिडको ने राज्य के भीतर बिक्री की है और इस पर उनका कानून लागू नहीं होता। बहरहाल उसने कहा कि इस मामले में ओईआरसी ही ग्रिडको के लिए ट्रेडिंग मार्जिन तय कर सकता है। उसने यह भी कहा कि ग्रिडको का कारोबार इलेक्ट्रिसिटी एक्ट की भावनाओं के खिलाफ जाता है (यदि ग्रिडको बिक्रेता है, तो उसके लिए ट्रेडिंग मार्जिन तय किया जाना चाहिए) और ओईआरसी को एक बार फिर इस मामले पर गौर करना चाहिए।
सीईआरसी ने हल्दिया के सुझाव पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, जिसमें उन्होंने कहा था कि उसे पॉवर ट्रेडिंग कार्पोरेशन जैसे खरीदारों को दिशानिर्देश जारी करना चाहिए कि वे ग्रिडको से बिजली की खरीद न करे, क्योंकि यह इलेक्ट्रिसिटी एक्ट के नियमों के विरुध्द है। बहरहाल हल्दिया ने विद्युत पर बने अपीली न्यायाधिकरण की राह पकड़ी और 16 नवंबर, 2006 को उसने कहा कि ग्रिडको की कार्रवाई अवैध थी। उसने यह भी कहा कि जिसने भी ग्रिडको से महंगी दरों पर बिजली खरीदी है, वह 12 दिसंबर 2006 तक सीईआरसी के सामने हाजिर हो और पैसे की वापसी के लिए रिफंड फाइल करे।
विभिन्न कानूनी मामलों का हवाला देते हुए कहा गया कि बिक्री का मतलब होता है कि दूसरे राज्यों को बिजली बेची जाए। अपीली न्यायाधिकरण ने यह भी कहा कि बिक्री का मतलब यह होता है कि राज्य के बाहर बिजली का इस्तेमाल करने वाले उपभोक्ता- दूसरे शब्दों में कहें तो उड़ीसा के भीतर इस तरह की बिक्री का मतलब है कि 4 प्रतिशत के लाभांश के नियमों का उल्लंघन हुआ है।
न्यायाधिकरण ने ओईआरसी के उस टैरिफ ऑर्डर का हवाला भी दिया जिसमें कहा गया है कि, ‘कमीशन इस बात के लिए दिशानिर्देश देता है कि इस तरह की बिक्री से होने वाले राजस्व आय से पिछले घाटों की भरपाई की जानी चाहिए और इस बात का भी खयाल रखा जाना चाहिए कि राज्य के अन्य उपभोक्ताओं पर इसका भार न पड़े।’ इसका मतलब यह था कि ओईआरसी को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी अगर उड़ीसा के बाहर के उपभोक्ताओं पर भार पड़ता है!
साथ ही न्यायाधिकरण ने यह भी कहा कि राज्य के पास अतिरिक्त बिजली नहीं है क्योंकि राज्य में केवल 22.83 प्रतिशत घरों में ही बिजली है। यह है वह फैसला, जिसे न्यायमूर्ति पसायत और न्यायमूर्ति सतशिवम ने पलट दिया है। अब जबकि यह फैसला आ गया है, इस मामले पर एक बड़े न्याधिकरण में अपील किए जाने की जरूरत है। यह एक ऐसा नीतिगत मामला है, जिससे बड़े पैमाने पर प्रतिस्पर्धा होगी, जिसमें देश के संघीय ढांचे में प्रयोक्ताओं के बीच भेदभावपूर्ण नीतियां बनेंगी। शायद इस मामले पर संवैधानिक पीठ को गौर करने की जरूरत है?