वैश्विक मंदी से एक बार फिर यह उम्मीद जगी थी कि विभिन्न देशों की सरकारें आर्थिक राहत पैकेज के तहत जारी किए जा रहे धन का इस्तेमाल मौसम परिवर्तन की चुनौतियों के मद्देनजर अर्थव्यवस्था को फिर से तैयार करने के लिए करेंगी। ऐसी उम्मीदों पर अब पानी फिर गया है।
इंग्लैंड के बिजनेस अखबार फाइनैंशियल टाइम्स ने विभिन्न देशों द्वारा तैयार किए जा रहे ग्रीन बेलआउट पैकेज का विश्लेषण किया है। विश्लेषण के मुताबिक चीन और दक्षिण कोरिया को छोड़कर मौसम को प्रभावित कर रहे दूसरे देशों ने आने वाले कल के निर्माण के लिए बहुत ही कम खर्च करने की प्रतिबध्दता जाहिर की है।
जापान अपने कुल राहत पैकेज का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा हरित परियोजनाओं के विकास पर खर्च करेगा। दूसरी ओर कनाडा और ऑस्ट्रेलिया क्रमश: 8 प्रतिशत और 9 प्रतिशत राशि ऐसी परियोजनाओं पर खर्च करेंगे। उल्लेखनीय है कि इन सभी देशों में तापमान बढ़ाने वाली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन काफी अधिक है और इसकी मात्रा तेजी से बढ़ रही है। इन पर प्रभावी ढंग से रोक लगाने की जरूरत है।
यहां तक कि अमेरिका में, जहां राष्ट्रपति ओबामा ने हरित परियोजनाओं के तहत रोजगार को बढ़ावा देने के लिए राहत पैकेज देने का वादा किया था, आंकड़े काफी निराशाजनक हैं। इस देश में 1000 अरब डॉलर के बेल आउट पैकेज की मुश्किल से 12 प्रतिशत राशि हरित परियोजनाओं पर खर्च की जाएगी। देखने में 112 अरब डॉलर की राशि पर्याप्त लगती है।
इस धनराशि का इस्तेमाल स्मार्ट ग्रिड, ऊर्जा का अधिक प्रभावी इस्तेमाल, अक्षय ऊर्जा के लिए कर राहत, सार्वजनिक परिवहन और उच्च गति वाली रेल सेवा (9 अरब डॉलर) के लिए किया जाएगा। लेकिन सच्चाई यह है कि किसी भी दूसरे देश की तरह अमेरिका भी अपने राहत पैकेज की बड़ी राशि नई समस्याएं पैदा करने और अधिक उत्सर्जन करने के लिए खर्च करेगा। पर्यावरण को साफ रखने के लिए बहुत थोड़ा ही खर्च किया जा रहा है, जो पर्याप्त नहीं है।
खासकर ऐसे समय में यह राशि काफी कम है जबकि इन देशों को अपने ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 1990 के स्तर के मुकाबले 2020 तक कम से कम 30 प्रतिशत की कटौती करनी है और 2050 तक 80 प्रतिशत तक की कटौती करने का लक्ष्य तय किया गया है।
अगर हम मान लें कि अमेरिका, आस्टे्रलिया, जापान और कनाडा सहित इनमें से ज्यादातर देशों का उत्सर्जन 1990 से 2006 के दौरान 20 से 40 प्रतिशत तक बढ़ा है तो वास्तव में इसका अर्थ है कि अब हम आर्थिक तौर-तरीकों में व्यापक स्तर के बदलावों की बात कर रहे हैं। ऐसा पुनर्गठन अभी हमसे कोसों दूर है।
सच तो यह है कि दक्षिण कोरिया और चीन जैसे देश इन बदलावों को गंभीरता से ले रहे हैं। फाइनैंशियल टाइम्स के मुताबिक चीन अपने 516 अरब डॉलर के राहत पैकेज का करीब 40 प्रतिशत हिस्सा और दक्षिण कोरिया करीब 80 प्रतिशत हिस्सा हरित परियोजनाओं पर करेंगे। चीन रेलवे के विकास और ऊर्जा के बेहतर इस्तेमाल वाली परियोजनाओं और कम कार्बन उत्सर्जन करने वाले वाहनों पर इस राशि को खर्च करेगा।
तुलनात्मक रूप से छोटा देश दक्षिण कोरिया अपने सार्वजनिक परिवहन पर करीब उतनी ही राशि खर्च करेगा जितना कि अमेरिका खर्च करने जा रहा है। दुनिया भर को हरियाली का उपदेश देने वाले यूरोपीय संघ ने सुरक्षित रास्ता अपनाते हुए इस तरह से खर्च करने का फैसला किया है ताकि हरियाली भी बनी रहे और उसकी शक्तिशाली ऑटो लॉबी को भी फायदा मिल जाए।
यूरोपीय संघ द्वारा दिए जा रहे राहत पैकेज की बड़ी राशि लोगों को उनकी पुरानी गाड़ी से छुटकारा दिलाने और उनकी जगह नए, कम ईंधन की खपत करने वाले वाहनों को लाने के लिए खर्च की जाएगी। लेकिन सच्चाई तो यही है कि इसका अर्थ है कि अधिक मात्रा में गाड़ियां बनाई जाएंगी, अधिक कच्चे माल का इस्तेमाल होगा और अधिक ऊर्जा की खपत होगी। यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी खबर है लेकिन पर्यावरण के लिए बुरी।
इतना ही नहीं, अभी तक इस बात के कोई प्रमाण नहीं मिल सके हैं कि ऊर्जा की कम खपत करने वाली गाड़ियों से कार्बन उत्सर्जन में कमी आती है। तथ्य यह है कि सभी सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भले ही वाहन ऊर्जा की खपत और उत्सर्जन कम करें, ग्रीन हाउस गैसों का कुल उत्सर्जन बढ़ता ही है, क्योंकि ऐसे में अधिक लोग गाड़ियां खरीदते हैं और ज्यादा चलाते हैं। इस तरह पुराने तौर-तरीके के राहत पैकेज असफल साबित होते हैं।
निश्चित तौर से दूसरा बड़ा मसला ऊर्जा की खपत से जुड़ा हुआ है। यहां भी बेहद कम बदलाव की उम्मीद है। ऊर्जा की खपत के मामले में अमेरिका का अग्रणी स्थान है। अमेरिका अपने बिजली ग्रिड के आधुनिकीकरण, आपूर्ति को बेहतर बनाने और विभिन्न तरह से ऊर्जा की खपत को कम करने के लिए खर्च कर रहा है।
इसके तहत 10 लाख से अधिक परिवारों के लिए मौसम के अनुकूल मकान तैयार किए जा रहे हैं और सरकारी इमारतों को अधिक ऊर्जा प्रभावी बनाया जा रहा है। मजदूरों को इंसुलेशन और दूसरे ऊर्जा प्रभावी पदार्थ लगाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है।
यूरोपीय संघ ने इसके लिए दूसरी ही योजना बनाई है। यह हरित परियोजनाओं को बढावा देने के लिए बड़ी राशि का इस्तेमाल एक प्रायोगिक प्रौद्योगिकी- कार्बन कैप्चर ऐंड स्टोरेज के विकास के लिए कर रहा है। सीसीएस के जरिए बिजली संयंत्र से निकलने वाले कार्बन को पकड कर जमीन में दफना दिया जाता है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया के परिणाम स्पष्ट नहीं हो सके हैं।
सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि अक्षय ऊर्जा को पैकेज का छोटा सा हिस्सा ही मिल सका है। अमेरिका ने भले ही सबसे बड़ा पैकेज घोषित किया है। इसके तहत पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा, भू-तापीय ऊर्जा के नई ऋण गारंटी और कर राहत के लिए 6 अरब डॉलर की राशि जारी की जाएगी। इसमें विंड फार्म को जोड़ने के लिए नई पारेषण लाइन का निर्माण भी शामिल है।
दुनिया भर में पवन, फोटोवोल्टिक सौर और सौर ताप प्रणाली के विकास के लिए काफी कुछ किए जाने की जरूरत है। ऐसा करके ही हम जीवाश्म पर आधारित ऊर्जा प्रणाली का विकल्प तैयार कर सकते हैं और इस संयंत्रों के निर्माण के दौरान बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार भी मुहैया कराया जा सकता है।
सही है कि कच्चे तेल की कीमतों में आई गिरावट ने इन ऊर्जा के नए स्रोतों की प्रतिस्पर्धी क्षमता में कमी आई है और ये अधिक महंगे हो गए हैं। क्या फर्क पड़ता है, ये तो भविष्य की बातें हैं। इसलिए हरे भरे कल को भूल जाइए। हम इसे तैयार कर लेंगे। फिलहाल तो हम खर्च करेंगे और खुश रहेंगे। मौसम परिवर्तन का सवाल तो एक दिन इंतजार भी कर सकता है।
