पिछले बुधवार को बड़ी तादाद में मुंबईकर ताज होटल के पास इकट्ठा हुए थे।
ज्यादातर मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखने वाले ये लोग वहां पिछले महीने के आतंकी हमलों में मारे गए लोगों को श्रध्दांजलि देने के लिए जुटे थे। उन सभी में एक बात समान थी। वहां मौजूद लगभग हरेक शख्स राजनेताओं से खासा नाराज था।
कुछ के मुताबिक भारत में सैन्य शासन होना चाहिए, जबकि कुछ पाकिस्तान पर हमला कर आतंकवाद की जड़ को ही खत्म कर देना चाहते थे।
इस गुस्से में वे महात्मा गांधी की उस बात को भी भूल गए कि अगर आंख का बदला आंख से लिया जाने लगा, तो पूरी दुनिया अंधी हो जाएगी। अपने गुस्से में उन्होंने इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया कि आज एक मुल्क के लिए दूसरे देश को नियंत्रित करना कितना मुश्किल हो गया है। हालत यह है कि आज अमेरिका को भी अफगानिस्तान में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।
वैसे, बेचारगी की भावना से जन्मे इस गुस्से को समझा जा सकता है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि हम मुस्लिमों की उन जायज शिकायतों को नजरअंदाज कर दें, जो उनके जेहन में पश्चिमी मुल्कों (खास तौर पर अमेरिका), इजरायल और भारत के लिए है।
अमेरिका के दोहरे मानदंडों की नीति को देखने के लिए आपको किसी खास चश्मे की जरूरत नहीं है। भले ही वह पश्चिमी एशिया में लोकतंत्र को मजबूत करने की बात करता हो, लेकिन हकीकत तो यही है कि उस इलाके में उसके सबसे करीब दोस्त या तो सदियों पुरानी राजशाही में जीते हैं या फिर दिखावे के लोकतंत्र में गुजारा करते हैं।
इराक के मामले में तो सुरक्षा परिषद के फैसलों को बड़ी गंभीरता के साथ लागू किया गया। लेकिन जब उसी संस्था ने इजरायल को कब्जा किए गए इलाकों को वापस करने के लिए कहा, तो उसे सिरे से नजरअंदाज कर दिया गया। मेरे मुताबिक कुछ ऐसे ही दोहरे मानदंड भारत ने कश्मीर को लेकर बनाई गई अपनी नीतियों में भी अपनाए हैं।
पहली बात तो यह है कि हमने कश्मीर और हैदराबाद को लेकर अलग-अलग मानदंड क्यों अपनाए? अगर कश्मीर के शासक को भारत में शामिल होने का अधिकार था, तो हैदराबाद के निजाम को भी तो आजाद रहने का उतना ही हक था। क्यों, है न? अब जरा इस मुद्दे पर भी गौर फरमाइए कि हमने कश्मीर में हुए चुनावों में कैसे बार-बार धांधली की।
साथ ही, हमने क्रूर फौजी ताकत के जरिये ही उस इलाके पर अपना कब्जा जमाए रखा है। दुनिया में नागरिकों के अनुपात में फौजियों की सबसे ज्यादा तादाद कश्मीर में ही होगी।
अगर हम सचमुच कश्मीर को भारत से जोड़े रखना चाहते हैं, तो इसका सबसे अच्छा तरीका होगा लोगों को घाटी में बसने के ज्यादा से ज्यादा मौके मुहैया करवाना।
ठीक ऐसा ही चीन ने तिब्बत और कभी मुस्लिम बहुल रहे पश्चिमी प्रांतों में किया था। लेकिन चीनी अपने मकसद को लेकर काफी हद तक साफ थे।
मैं यहां यह नहीं कह रहा कि जायज शिकायतों का निदान नहीं होने पर लोगों को बंदूक उठा लेनी चाहिए। लेकिन हमें इतिहास को भी नहीं भूलना चाहिए। वैसे, सिर्फ जायज शिकायतें ही हिंदुस्तान पर हमला करने की इकलौती वजह नहीं है।
आज भी कई लोग इस बात को बड़ी शिद्दत से याद करते हैं कि मुसलमानों ने इस मुल्क पर अंग्रेजों की तुलना में काफी ज्यादा वक्त तक राज किया था। मैं याहू न्यूज की एक खबर में इस्लामाबाद के इंस्टीटयूट ऑफ पॉलिसी स्टडी के तारिक जान के बयान को पढ़कर हैरान रह गया।
उन्होंने कहा था कि, ‘हम (मुसलमान) ही हिंदुस्तान के जायज हाकिम थे। 1857 में अंग्रेजों ने हिंदुस्तान का तख्त हमसे ही लिया था और 1947 में उन्हें हुकूमत की बागडोर किसी मुसलमान के हाथों में ही सौंपनी चाहिए थी।’
अगर ये एक बुध्दिजीवी के विचार हैं, तो जरा सोचिए इस्लामिक कठमुल्लाओं की सोच कैसी होगी? दूसरी तरफ, बड़ी कायरता के साथ हमने उन आतंकवादियों की मांगें मान ली थीं,
जिन्होंने इंडियन एयरलाइंस के विमान को हाइजैक कर लिया था। असल में, यात्रियों को बचाने की खातिर तब मध्य वर्ग को उन मांगों को मानने में कुछ गलत नजर नहीं आ रहा था।
संसद पर हमला करने वाले एक आतंकवादी को फांसी देने पर टालमटोल, पोटा को हटाया जाना और 1980 के दशक के सिख आतंकवादियों और आज के आतंकवादियों के साथ निपटने की नीति में बदलाव, जैसे हरेक मामले ने एक अलग संकेत दिया है।
आज सरकारी व्यवस्था सामंतवादी सोच, लालफीताशाही, नकारेपन और भ्रष्टाचार जैसी बुराइयों की गिरफ्त में आ चुकी है। हम आज भी कॉलेजों में दाखिले और नौकरी पाने के लिए जातिगत और धार्मिक असमानता को बढ़ावा देते जा रहे हैं।
जाहिर तौर पर दाखिले और नौकरी देने के लिए जाति या धर्म के बदले अगर आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाए, तो इससे काफी लोगों का भला होगा। कल तक तो ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति में अंग्रेजों को ही बेहतरीन समझा जाता था, लेकिन हम आज उनसे भी आगे निकल चुके हैं।
सच्चर आयोग ने साफ तौर पर उन इलाकों के बारे में बताया हैं, जहां बाकी का मुल्क मुसलमानों से आगे निकल चुका है। हालांकि, ‘धर्मनिरपेक्षों ‘ की मानें तो यह उनकी नहीं, बल्कि असल में बहुसंख्यक आबादी की गलती है। यह एक ऐसा सुझाव है, जिसने लोगों के दिलों में भेदभाव का शिकार होने की भावना को जन्म दिया है।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या मुस्लिमों को खास तौर पर धर्मनिरपेक्ष शिक्षा के मुद्दे पर खुद को और अपनी सोच को बदलने की जरूरत नहीं है?
लेकिन किसी राजनेता या राजनीतिक दल में इतनी ताकत नहीं है कि वह इस मुद्दे को उठा सके। दूसरी ओर ओबामा की तरफ देखिए, जिन्होंने चुनावों के दौरान अश्वेत अमेरिकियों से खुद को बदलने के लिए कहा था।
उनका कहना था कि अश्वेतों की स्थिति को सुधारने की जिम्मेदारी खुद अश्वेतों की भी है। मुझे तो इस बात पर हैरत हो रही है कि अभी तक किसी ‘धर्मनिरपेक्ष’ नेता का ध्यान उस एक पाकिस्तानी चैनल की रिपोर्ट की तरफ क्यों नहीं गया है, जिसके मुताबिक मुंबई पर हमले खुद हिंदू चरमपंथियों ने किए थे।
उस चैनल के मुताबिक हमले का मकसद करकरे को मारना था क्योंकि वह समझौता एक्सप्रेस धमाके के तार हिंदू आतंकवादियों से जोड़ने में लगे हुए थे। आखिर में लब्बोलुआब यही है कि जो कुछ हुआ, उसके जिम्मेदार सिर्फ राजनेता ही नहीं, बल्कि हम सब हैं।
आखिरकार हम ही तो उन्हें चुनते हैं। बनॉर्ड शॉ ने कहा था कि, ‘लोकतंत्र एक ऐसी मशीनरी है, जो इस बात को सुनिश्चित करती है कि हमें हमारी तरह के ही शासक मिलें।’ एक पुरानी कहावत यह भी है कि जब हम किसी तरफ एक उंगली उठाते हैं, तो बाकी की चार उंगलियां हमारी तरफ होती हैं।