राजनीति पर पैनी नजर रखने वालों ने पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ट्वीट पर अवश्य ध्यान दिया होगा जिसमें उन्होंने कहा था: वे जिन्ना के उपासक हैं, हम सरदार पटेल के पुजारी हैं। उनको पाकिस्तान प्यारा है, हम मां भारती पर जान न्योछावर करते हैं। अपनी इच्छा के मुताबिक आप इसकी उपेक्षा या समर्थन कर सकते हैं या फिर आप इसे सांप्रदायिक करार दे सकते हैं। परंतु राजनीति का एक विद्यार्थी इस पर गहराई से नजर डालेगा। यदि आप इसके राजनीतिक पहलू पर गौर करेंगे तो आपको इस बात में ज्यादा गहराई नजर आएगी।
खासतौर पर देश के हिंदीभाषी इलाकों में 2004 के बाद जो हलचल मची है उसने एक आकांक्षी भारत के उभार का पहला संकेत दिया। उदाहरण के लिए बिहार में बदलाव की शुरुआत 2005 में हुई जब मजबूत जातीय वोट बैंक के बावजूद लालू प्रसाद की पार्टी 15 वर्ष बाद नीतीश कुमार से पराजित हुई। बिहार के लोगों खासकर युवाओं ने अपनी बात रखी। उन्हें अपने भविष्य को लेकर नीतीश कुमार से आशाएं थीं।
लालू ने अपने चुनाव प्रचार में कहा कि सामाजिक न्याय की लड़ाई शुरू हो गई है और अपनी लाठी को तेल पिलाओ। दूसरी ओर नीतीश कुमार कह रहे थे कि लाठी को तेल पिलाने से समानता नहीं आएगी। यह आपको शिक्षा, रोजगार, अंग्रेजी में बात करने तथा काम करने की क्षमता से मिलेगी। उन्होंने लालू के प्रतिवाद में कहा कि यह समय लाठी में तेल पिलाने का नहीं बल्कि कलम में स्याही भरने का है।
राजनीति के जानकारों ने उनका मजाक उड़ाया। जातिवाद में धंसे, निराश और गरीब ग्रामीण बिहार में पेन को लाठी से ताकतवर बताना उन्हें बेवकूफाना लगा। नीतीश जीत गए और तब से कमोबेश सत्ता में बने हुए हैं। हिंदी प्रदेश में एक नया बदलाव हो रहा था। 2009 में जब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार 2004 से भी अधिक मजबूती के साथ सत्ता में वापस आई, तब तक हम आकांक्षी भारत के उभार की सराहना को लेकर आत्मविश्वास से भरे हुए थे। तब हमने कहा था कि असंतोष की राजनीति के स्थान पर अब आकांक्षाओं की राजनीति होगी। एक युवा भारत भला ईश्वर से इसके सिवा मांगता भी क्या? बाद के वर्षों में वृद्धि के मोर्चे पर प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा और भारत जनांकीय लाभांश का फायदा उठाने के लिए तैयार था।
नरेंद्र मोदी को 2014 में जो बहुमत मिला उसमें भी इस भावना को महसूस किया जा सकता था। युवा भारतीय अभी भी आशावाद की लहर पर सवार थे और वे संप्रग 2 से नाराज थे। उन्हें मोदी का वृद्धि, रोजगार और समृद्धि का वादा पसंद आया। वे केवल पाकिस्तान के खिलाफ या ऐसे गणराज्य के लिए मतदान नहीं कर रहे थे जहां मुस्लिमों को अलग-थलग रखा जाए उन्हें तभी जीने दिया जाए जब वे अपनी कथित हैसियत समझें। परंतु उसके बाद साल दर साल हम अतीत में उलझते चले गए। बिहार और उत्तर प्रदेश में जो युवा आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे वे अब हताश हैं, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं, यहां तक कि ट्रेन जलाई जा रही हैं और चुनाव प्रचार के बीच इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पुलिस उन्हें पीट रही है।
वे नाराज क्यों न हों? रेलवे भर्ती बोर्ड-गैर तकनीकी लोकप्रिय श्रेणियों (आरआरबी-एनटीपीसी) की इन श्रेणियों में सात लाख रिक्तियां हैं जहां प्राय: वे लोग आवेदन कर सकते हैं जिनके पास कोई विशिष्ट शिक्षा नहीं है। हर पद के लिए 354 लोगों ने आवेदन किया। यानी हर एक व्यक्ति को रोजगार मिलेगा तो 353 लोग नौकरी नहीं पा सकेंगे। ऐसे में नाराजगी स्वाभाविक है। ऐसा भी नहीं है कि यह अखिल भारतीय सेवाओं की भर्ती हो। ये लिपिकीय या उससे भी नीचे की भर्तियां हैं-गैरतकनीकी और लोकप्रिय। इसी तरह उत्तर प्रदेश में यूपीटेट (उत्तर प्रदेश शिक्षक प्रवेश परीक्षा) को लेकर व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। वहां भी हालात ऐसे ही हैं। उत्तर प्रदेश जैसा गरीब, पिछड़ा और बड़ा राज्य चुनाव के करीब आने तक अपने विद्यालयों में इतनी अधिक रिक्तियां बनाए रखता है, यह अपने आप में एक अलग किस्सा है। प्रदर्शनकारियों का असंतोष भी हमें कुछ बताता है। उनका एक असंतोष तो यह है कि परीक्षक या चयन प्रणाली में उन लोगों को प्राथमिकता दी जाती है जिनके पास ज्यादा अर्हता होती है। उनका कहना है कि अगर एक बार आपने न्यूनतम अर्हता घोषित कर दी है तो हर किसी को एक समान माना जाना चाहिए। अगर इसके बावजूद आप भ्रमित हैं तो बस कार्यालय सहायक या सुरक्षा गार्ड जैसे पांच पदों पर भर्ती का विज्ञापन दीजिए आपको हर पद के लिए 354 आवेदन मिल सकते हैं और इन पदों के लिए इंजीनियर, एमबीए, मास्टर्स और डॉक्टरेट किए हुए लोग आवेदन कर सकते हैं।
हमने अपने संस्थान द प्रिंट में सोशल मीडिया को लेकर संपादन के पद के आवेदन आमंत्रित करने की भूल की जिसने हमारी आंख खोल दी। तीन या चार पदों के लिए 1,000 आवेदन प्राप्त हुए। इनमें से ज्यादातर की काबिलियत बहुत अधिक थी और दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि उनकी आयु भी बहुत अधिक थी। इससे पता चलता है कि बेरोजगारी कितनी व्यापक और गहरी है। इससे समझा जा सकता है कि कैसे देश के करोड़ों युवाओं के पास रोजगार नहीं है जबकि उन सभी के पास ऊंची डिग्रियां हैं। यह एक दु:स्वप्न के समान है। इस गुस्से का प्रतिरोध कैसे करेंगे, खासकर अगर आप सत्ताधारी हैं और दोबारा चुनाव जीतना चाहते हैं तब?
जिन्ना और सरदार पटेल के बीच चयन करने को कहा जा रहा है जिनकी मौत तब हो गई थी जबकि आपके 95 फीसदी मतदाता पैदा भी नहीं हुए थे। यह वैसा ही है जैसे रोटी न होने पर केक खाने को कहा जाए। फ्रांस की रानी मैरी एंतोनिएत पर यह बयान भारी पड़ा था लेकिन यहां कारगर हो सकता है: हम जानते हैं कि आप बेरोजगार हैं, निराश हैं। परंतु आपके मातापिता और दादा-दादी भी 70 वर्ष से यही झेलते आए हैं। यह इसलिए हुआ कि उन्होंने गलत राजनीतिक चुनाव किए। आपकी पीढ़ी को यह गलती सुधारनी होगी। भले ही मैं आपको रोजगार दिलाने या समृद्धि दिलाने में सक्षम नहीं हूं लेकिन क्या आप देश और धर्म की खातिर कुछ देर इसे भूल नहीं सकते? क्या आप राष्ट्रवादी हैं? सच्चे हिंदू हैं?
किसी देश या सभ्यता की तकदीर इस बात से तय नहीं होती कि किसी ने एक या दो चुनाव जीत लिए। यह इस बात से तय होता है कि उसके लोग, खासकर युवा वर्ग क्या सोच रहा है। वह भविष्य को लेकर आशा रखता है या अतीत को लेकर विलाप करता है? योगी ने एक नशीला कॉकटेल तैयार किया है जिसे भगवा रोशनी के नीचे ‘ठोक दो’ की गूंज के साथ पेश किया जा रहा है। इस घातक नशे को और गहरा बनाने के लिए आंकड़े तो हैं ही।
यदि वह सफल भी होते हैं तो भी जमीनी हकीकत नहीं बदलेगी। भारत के छोटे कस्बों, गांवों और कम समृद्ध इलाकों में जाइए। खासकर अगर आप दोपहर में इन इलाकों से गुजरते हैं तो देखेंगे कि युवाओं के झुंड चाय, सिगरेट-पान आदि की दुकानों पर जमे रहते हैं या अपनी मोटरसाइकिलों के साथ सड़क किनारे नजर आते हैं। उनके पास कोई काम नहीं है। उनमें से ज्यादातर ताश या कैरम भी नहीं खेलते। वे एक दूसरे से बात करते भी नहीं दिखते। आप पाएंगे कि वे अपने-अपने मोबाइल में गुम हैं। वे लगभग नि:शुल्क डेटा का इस्तेमाल करने में व्यस्त रहते हैं। क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग ने इस रुझान को बहुत पहले ताड़ लिया था। उन्होंने कुछ साल पहले ट्वीट किया था कि पहले के युवा आटा खाते थे जबकि आज के युवा डाटा से काम चलाते हैं। करोड़ों युवाओं के पास आज रोजगार, आय और स्वाभिमान के स्थान पर यही उपलब्ध है। इससे उन्हें मनोरंजन, प्रचार, अश्लील सामग्री, मिथक आदि मिलते हैं और उनका समय कटता है। यह नया केक है जिसे वे खा रहे हैं। लेकिन जल्दी ही जब यह सामूहिक हताशा बांध तोड़ देगी तब भारत को इसकी कीमत चुकानी होगी। तब यह मायने नहीं रखेगा कि किसने कौन सा चुनाव जीता। देश के बेरोजगार तथा उनकी भीड़ अब राष्ट्रीय स्थिरता और सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
