आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत को सॉवरिन रेटिंग के इतिहास में कभी भी निवेश श्रेणी में सबसे निचले स्तर पर नहीं आंका गया है। समीक्षा में यह रेखांकित करने के लिए ढेर सारे प्रमाण पेश किए गए हैं कि सॉवरिन रेटिंग, भारत के बुनियादी तत्त्वों को ध्यान में नहीं रखती। कई ऐसे कारक हैं जो उसके पक्ष में जाते हैं। भारत का इतिहास देनदारी चूकने का नहीं है। देश का विदेशी मुद्रा वाला सॉवरिन ऋण बहुत कम है। बल्कि अल्पावधि का गैर सरकारी ऋण भी विदेशी मुद्रा भंडार के 20 प्रतिशत से कम है। 580 अरब डॉलर से अधिक का विदेशी मुद्रा भंडार भी देश को अतिरिक्त राहत देता है तथा उसे यह क्षमता प्रदान करता है कि वह बाहरी झटकों से निपट सके। दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को आमतौर पर एएए रेटिंग मिलती रही है। इस स्तर पर चीन जरूर एक अपवाद था।
निश्चित तौर पर क्रेडिट रेटिंग कई कारकों पर निर्भर करती है और यह दावा करना मुश्किल है कि वे हमेशा बुनियादी बातों को परिलक्षित करती हैं। सन 2007-08 के वित्तीय संकट ने रेटिंग एजेंसियों के जोखिम को पहले देख लेने की क्षमता को भी उजागर कर दिया। कुछ वर्ष बाद जब यूरोप में सॉवरिन ऋण दबाव में आया तो वे एक बार फिर नाकाम साबित हुईं। ऐसे में यह दलील सही हो सकती है कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां भारत पर निष्पक्ष दृष्टि नहीं डालतीं। दिलचस्प बात यह है कि 2016-17 में समीक्षा ने रेटिंग की अनिश्चितता उजागर की थी। क्या देश के नीति निर्माताओं को सॉवरिन रेटिंग को लेकर चिंतित होना चाहिए?
मौजूदा आर्थिक हालात पर नजर डालते हैं। आम बजट में प्रस्तुत संशोधित अनुमान के मुताबिक चालू वित्त वर्ष में केंद्र के स्तर पर राजस्व घाटा बढ़कर जीडीपी के 9.5 फीसदी तक हो सकता है। सरकार का लक्ष्य 2021-22 में इसे 6.8 फीसदी तक सीमित रखने का है जबकि 2025-26 तक इसे जीडीपी के 4.5 फीसदी तक लाना है। राजस्व घाटे को जीडीपी के 3 फीसदी के पुराने लक्ष्य के स्तर तक लाने की चर्चा ही नहीं हो रही है। दूसरी तरह से देखें तो सन 2025-26 तक संयुक्त राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 7 फीसदी तक रखने का लक्ष्य है।
इस बीच सार्वजनिक ऋण और जीडीपी का अनुपात चालू वित्त वर्ष में 90 फीसदी से अधिक हो सकता है और निकट भविष्य में भी वह कम नहीं होगा। समग्र राजकोषीय रुझान से संकेत मिलता है कि नीतिगत विचार में परिवर्तन आ रहा है। अब घाटे और कर्ज को लेकर उतनी हायतौबा नहीं है। हालांकि ऐसा आंशिक रूप से महामारी के कारण भी हो सकता है। लेकिन इससे व्यवस्था में जोखिम बढ़ेगा। संभव है कि देश की अर्थव्यवस्था की संभावित वृद्घि में गिरावट की एक वजह महामारी भी हो।
यही वजह है कि ब्याज दर-वृद्धि अंतर के अनुकूल होने के बावजूद सार्वजनिक ऋण अनुपात बहुत धीमी गति से घटा है। देश का सामान्य सरकारी ऋण 2011-12 के 67.4 प्रतिशत से बढ़कर 2019-20 में जीडीपी के 73.8 प्रतिशत हो गया। सार्वजनिक ऋण अधिक होने से ब्याज भुगतान बढ़ेगा और वृद्धिकारी पूंजीगत व्यय प्रभावित होगा। उदाहरण के लिए केंद्र सरकार अगले वर्ष अपने राजस्व का 50 फीसदी से अधिक ब्याज भुगतान में लगाएगी। कहने का अर्थ यह नहीं कि भारत किसी तरह की देनदारी चूक सकता है, लेकिन इस वृहद आर्थिक परिदृश्य में रेटिंग में सुधार के लिए इस पर शायद ही विचार हो।
सच तो यह है कि केवल क्रेडिट रेटिंग सुधार से भी वृहद आर्थिक हालात नहीं सुधरते। इससे विदेशी पोर्टफोलियो निवेश की आवक में इजाफा जरूर होगा। वैश्विक मुद्रा प्रबंधकों से यह आशा की जाती है कि वे एक खास स्तर की रेटिंग के ऊपर ही प्रतिभूतियों में निवेश करें। परंतु क्या भारत को वैश्विक ऋण पूंजी में इजाफे की जरूरत है? शायद नहीं। बल्कि ऋण में बहुत अधिक विदेशी पूंजी की आवक लंबी अवधि में अर्थव्यवस्था में असंतुलन पैदा कर सकती है।
केंद्रीय बैंक अतिरिक्त विदेशी मुद्रा से निपटता रहा है ताकि रुपये का और अधिक अधिमूल्यन न हो। यदि इस आवक में और इजाफा होता है तो देश की बाह्य प्रतिस्पर्धा भी प्रभावित होगी। आरबीआई का निरंतर हस्तक्षेप रुपये की नकद स्थिति को बढ़ाएगा जो मुद्रास्फीतिक नतीजों को तो प्रभावित कर ही सकता है, इसके अस्थिर होने की भी संभावना है।
उस लिहाज से देखें तो भारत को रेटिंग में गिरावट से अवश्य बचना चाहिए। क्योंकि गिरावट न केवल निवेशकों के भरोसे को प्रभावित करेगी बल्कि वित्तीय बाजारों में अस्थिरता भी बढ़ाएगी। ऐसे में नीतिगत ध्यान वृहद आर्थिक स्थितियों को मजबूत बनाने तथा दीर्घावधि के वृद्धि परिदृश्य को सुधारने पर दिया जाना चाहिए। मौजूदा क्रेडिट रेटिंग इस मामले में बाधा नहीं है। यह भारत को कारोबारी सुगमता में सुधार करने और दीर्घावधि का निवेश जुटाने से नहीं रोक रही। राजकोषीय प्रबंधन के मामले में भारत का सरकारी घाटा काफी अधिक हो सकता है। आर्थिक प्रबंधन और दीर्घावधि की सतत वृद्धि की दृष्टि से इसे अवश्य एक बड़ी बाधा माना जा सकता है।
भारत का कर-जीडीपी अनुपात न केवल अन्य उभरते और विकसित देशों की तुलना में कम है बल्कि बीते कई सालों में इसमें सुधार भी नहीं हुआ है। भारत को राजस्व बढ़ाने के उपायों के साथ एक संशोधित राजकोषीय नीति की आवश्यकता है।
इससे देश की रेटिंग में सुधार की संभावना भी बढ़ेगी। यदि चीन अपेक्षाकृत प्रतिकूल क्रेडिट रेटिंग के साथ लंबे समय तक तेज वृद्धि हासिल कर सकता है, तो भारत ऐसा क्यों नहीं कर सकता। ऐसे में नीति निर्माताओं को रेटिंग को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है। यह देश की वृद्धि को नहीं रोक रही।