शक्तिकांत दास ने दो वर्ष पहले अपेक्षाकृत कठिन दौर में भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद संभाला था। उनके पूर्ववर्ती गवर्नर ने सरकार के साथ गतिरोध पैदा होने के कारण अपना कार्यकाल समाप्त होने के 10 महीने पहले ही पद छोड़ दिया था। दास की पहली प्राथमिकता थी आपस में बढ़ते अविश्वास को दूर करना। यह आवश्यक था क्योंकि सरकार और केंद्रीय बैंक को कई अहम मसलों पर साथ मिलकर काम करना होता है। दास के पास वित्त मंत्रालय में काम करने का अनुभव था और उनकी शैली भी काफी सलाह-मशविरे वाली थी। इन खूबियों की बदौलत वह रिजर्व बैंक की पूंजी से संबंधित मसले समेत तमाम मामलों को अपेक्षाकृत सहजता से निपटाने में कामयाब रहे। परंतु ऐसा नहीं है कि गवर्नर ने अब तक केवल इसी चुनौती का सामना किया।
इस वर्ष के आरंभ में आरबीआई को एक अप्रत्याशित संकट का सामना करना पड़ा था जब अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा कोविड-19 महामारी की रोकथाम की कोशिश में ठप पड़ गया था। आरबीआई को न केवल आर्थिक नुकसान को सीमित करना था बल्कि उसे भुगतान व्यवस्था को भी जारी रखने, वित्तीय बाजारों का सुचारु संचालन करने और वित्तीय स्थिरता कायम रखने का काम भी करना था। अन्य नियामकों के साथ आरबीआई ने भी इनमें से अधिकांश लक्ष्य हासिल किए। बल्कि नीतिगत समर्थन के मामले में आरबीआई ने ही ज्यादातर काम किया। संकट को लेकर प्रतिक्रिया देते हुए उसने नीतिगत दरों में 115 आधार अंकों की कमी की। फरवरी 2019 के बाद से दरों में कुल 250 आधार अंकों की कमी आ चुकी है। केंद्रीय बैंक ने व्यवस्था में भी काफी नकदी डाली। इससे ब्याज दरों में कमी आई और सरकार और कारेाबार दोनों को कमतर दरों पर उधारी मिल सकी। इस व्यापक समर्थन को समेटना दास के लिए एक और बड़ी चुनौती होगी।
मुद्रास्फीति पिछले कई महीनों से तय दायरे से ऊपर है। उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति नवंबर में 6.93 फीसदी रह गई थी और दिसंबर में सब्जियों की कीमतों में तीव्र गिरावट आई। इससे कुछ और राहत मिल सकती है लेकिन अभी भी मुद्रास्फीति का स्तर चिंताजनक बना हुआ है। दिसंबर में सब्जियों की कीमतों से राहत मिल सकती है लेकिन इसका स्तर चिंताजनक है। यह स्पष्ट है कि आरबीआई वृद्धि का समर्थन करना चाहता है लेकिन निरंतर उच्च स्तर मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाली व्यवस्था से विचलन माना जा सकता है। ऐसे विचलन को भले ही विशेष परिस्थितियों में मंजूरी दी जाए लेकिन यह विश्वसनीय नीतिगत ढांचे के रूप में काम नहीं करता। निश्चित तौर पर अधिकांश विकसित देश मुद्रास्फीति के जोखिम को रियायत देकर चल रहे हैं। परंतु भारत इस रास्ते पर चलने की स्थिति में नहीं है। परंतु विकसित दुनिया में भी अर्थशास्त्रियों ने इस जोखिम के बारे में बात करनी शुरू कर दी है। फेडरल ओपन मार्केट कमेटी के पूर्व उपाध्यक्ष बिल डडली ने हाल ही में एक आलेख में उच्च मुद्रास्फीति के संभावित कारणों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मुद्रास्फीति सबसे बड़ा खतरा साबित हो सकती है क्योंकि अब इसे खतरा नहीं माना जाता। वैश्विक जिंस कीमतों पर नजर डालें तो पता चलता है कि मुद्रास्फीति सर उठा रही है।
परिसंपत्ति मूल्य मुद्रास्फीति का स्तर वैसा है जैसा शिथिल मुद्रा आपूर्ति और ऋणात्मक वास्तविक ब्याज दर से हासिल होती है। भारत के लिए दिक्कत यह है कि मुद्रास्फीति संबंधी अनुमान नीचे आने लगे हैं लेकिन निरंतर उच्च मुद्रास्फीति और प्रतिकूल पूर्वानुमान के चलते इनमें पुन: तेजी आ सकती है। ऐसे में दास के सामने प्रमुख चुनौती यह है कि इस हालात से कैसे निपटा जाए। इसकी कीमत सरकारी उधारी की उच्च लागत के रूप में चुकानी होगी और उन्हें सरकार को नाखुश करने की इच्छाशक्ति पैदा करनी होगी। इसमें देरी के दीर्घकालिक नीतिगत असर हो सकते हैं।
