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बिज़नेस स्टैंडर्ड
  लेख  मुश्किलों से ही निकलती कामयाबी की नई राहें
लेख

मुश्किलों से ही निकलती कामयाबी की नई राहें

बीएस संवाददाताबीएस संवाददाता—June 30, 2008 10:38 PM IST
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इस पर विश्वास करना लगभग असंभव ही होगा कि इस दशक की शुरुआत तक क्रॉम्पटन ग्रीव्स की हालत पतली थी।


लेकिन पिछले तीन साल में तीन अधिग्रहण करने के बाद करीब 6,833 करोड़ रुपये वाली इस कंपनी ने बेहतरीन वापसी की है और यह इंजीनियरिंग कंपनी दुनिया में आला दर्जे की ट्रांसफार्मर बनाने वाली 10 कंपनियों में शुमार हो चुकी है। अपनी बड़ी ग्राहक संख्या और उत्पादों की विस्तृत शृखला के दम पर कं पनी न केवल देसी बाजार में बल्कि विदेशी बाजार में भी अपनी पैठ बढ़ाना चाहती है।

कंपनी बिजली ट्रांसमिशन और डिस्ट्रिब्यूशन उत्पादों के 40 अरब डॉलर के बाजार में कुछ मायनों में पहले ही सफलता हासिल कर चुकी है। गौतम थापर की अवंता के एक और हिस्से के रूप में इस कंपनी की निगाहें अब नए लक्ष्य की ओर लगी हैं। कंपनी के प्रबंध निदेशक एस एम त्रेहन का मानना है कि अगले तीन साल में कंपनी एबीबी, सीमेन्स और अरेवा जैसी कंपनियों की फेहरिस्त में शामिल हो सकती है।

अधिग्रहण की माया

अगर आप अपने प्रतिद्वंदियों को पछाड़ नहीं सकते तो उनको खरीद लो। क्रॉम्पटन ने कुछ साल पहले इस बात को समझा कि आपका उत्पाद चाहे कितना भी बढ़िया क्यों न हो विदेशी बाजार में किसी देसी ब्रांड को बेचना बेहद मुश्किल है। इसलिए कंपनी ने रणनीति बनाई कि उन कंपनियों को हथियाया जाए जो पहले से ही विदेशी बाजारों में जाना-पहचाना नाम हो जिससे उस बाजार में पैठ बनाने में आसानी हो। इस कंपनी की नजरें खास तौर पर अमेरिकी बाजार पर लगी रहीं। गौरतलब है कि दुनिया में ट्रांसफार्मरों की जितनी खपत होती है, उसका 45 फीसदी बाजार तो केवल अमेरिका में ही है।

क्रॉम्पटन ने सबसे पहले ब्रसेल्स और बेल्जियम को अपना बेस बनाया जहां इसने 27 लाख डॉलर वाली ‘पॉवेल्स’ को चुना।  पॉवेल्स के अधिग्रहण के बाद क्रांप्टन को बेल्जियम, कनाडा, अमेरिका, आयरलैंड और इंडोनेशिया जैसे पांच देशों में उत्पादन सुविधाएं तो मिली हीं, इन देशों का अच्छा-खासा बाजार भी मिल गया।  इस तरह क्रॉम्पटन को 4 करोड़ 30 लाख डॉलर का कारोबार मिल गया। यह मई 2005 की बात है। अगले ही साल उसने अक्टूबर 2006 में हंगरी की घाटे में जा रही कंपनी ‘गैंज’ को 3 करोड़ 50 लाख डॉलर में खरीदा।

‘गैंज’ में स्विचगियर बनाए जाते थे और वह उत्पादों की गुणवत्ता के लिए जानी जाती थी। उसका पश्चिम एशिया और यूरोप में बड़ा बाजार था। मई 2007 में क्रॉम्पटन ने तीसरा अधिग्रहण किया और आयरलैंड में मामूली मुनाफा कमा रही ‘माइक्रोसोल होल्डिंग’ को 90 लाख डॉलर में खरीद लिया। इससे कंपनी को सब स्टेशन चलाने के लिए ऑटोमेटेड तकनीक मिल पाई।

वैश्विक बाजार

माइक्रोसोल के झोली में आने के बाद बिजली ट्रांसमिशन और वितरण के क्षेत्र में क्रांप्टन के उत्पादों की श्रंखला बहुत विस्तृत हो गई है। कंपनी के अधिकारी कहते हैं, ‘ हम अब एंड-टू-एंड सॉल्यूशंस मुहैया करा सकते हैं।’ लेकिन उत्पादों की विस्तृत श्रंखला से भी ज्यादा, क्रॉम्पटन  को जिस लिहाज से सबसे ज्यादा फायदा पहुंचा, वह है बड़ा बाजार और बहुत सारे ग्राहक। मौजूदा हालत के हिसाब से भी कंपनी दुनिया के 80 फीसदी बाजार पर कब्जा कर सकती है। त्रेहन का कहना है कि बाजार बहुत तेजी से-सालाना 4.5 से 5 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। बाजार में बहुत संभावनाएं हैं।

हम अमेरिकी बाजार में तो मजबूत हो ही रहे हैं, साथ ही कनाडाई और पश्चिमी एशियाई देशों से भी बढ़िया मांग आ रही है। त्रेहन बताते हैं कि हम इन बाजारों पर अधिक ध्यान दे रहे हैं तो इसका यह अर्थ नहीं है कि हम दूसरे बाजारों को नजरअंदाज कर रहे हैं। उनके मुताबिक कंपनी कई दूसरे बाजारों में और बेहतर कर सकती है। क्रॉम्पटन चीनी बाजार से निकलने की योजना बना रही है। यह जरूर हैरान करने वाला लग सकता है क्योंकि चीन दुनिया के सबसे तेजी से उभरते हुए बाजारों में है जहां 15 से 16 फीसदी की सालाना विकास दर है।

कंपनी अपना सारा ध्यान अमेरिकी और यूरोपीय बाजार पर केंद्रित करना चाहती है। त्रेहन बताते हैं कि अधिग्रहणों के बाद पश्चिमी यूरोपीय बाजार में कंपनी की हिस्सेदारी में तीन से चार प्रतिशत का इजाफा हुआ है। कंपनी ने पुराने ग्राहकों को तो बरकरार रखा ही, इस दौरान नये ग्राहक भी जोड़े।

कंपनी को भारतीय बाजार में भी अपार संभावनाएं नजर आती हैं क्योंकि पूरी दुनिया के बाजार में भारत की हिस्सेदारी महज 2.5 फीसदी से भी कम है जिससे कंपनी को लगता है कि इस बाजार में अभी और तेजी आ सकती है। अगर बाजार में कारोबार बढ़ाने की बात आएगी तो क्रॉम्पटन किसी और अधिग्रहण से भी नहीं हिचकेगी। लेकिन फिलहाल तो कंपनी की रणनीति यही है कि जहां वह पहले से है, उन्हीं बाजारों पर ध्यान दिया जाए।

मिक्स एंड मैच

कंपनी ने प्रोडक्ट डिजाइन पर बहुत ध्यान देना शुरू किया है। डिजाइन इकाई को मुंबई ले जाया गया है। कंपनी ने एकदम नई सोच के साथ काम करना शुरू किया है। त्रेहन बताते हैं कि माइक्रोसोल के बहुत ज्यादा ग्राहक  नहीं थे लेकिन हमने सिर्फ बेहतरीन तकनीक की वजह से उसे खरीदा।

उनका कहना है कि उनकी कंपनी ने कई चीजों को बदला है और आने वाले समय में सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर दोनों तरह के उत्पाद भारत में बनाए जाएंगे। और हम तैयार उत्पादों को गैंज और पॉवेल के ग्राहकों को बेचेंगे। गैंज के गैस आधारित सब स्टेशन, रोरेटिंग मशीन जैसे उत्पाद इस साल से भारतीय बाजार में भी उतारे जाएंगे।क्रॉम्पटन की भारतीय इकाई पॉवेल द्वारा बनाए जाने वाले कई उत्पादों के लिए जरूरी पुर्जों की आपूर्ति भी करने लगी है।  

कमाई के साथ बचत भी

भारत में मजदूरी लागत बेहद कम है। इस वजह से यहां कल-पुर्जों का निर्माण काफी सस्ता हो जाता है। इसमें अगर वाहन की लागत भी जोड़ दें तो यह पूरी लागत भी काफी कम ही पड़ती है। हालांकि इसका मतलब यह बिल्कु ल नहीं है कि उत्पादन संबंधी सभी काम यहीं कराए जाएं बल्कि इसके साथ ही कोशिश यह भी है कि विदेश के संयंत्रों को ज्यादा सक्षम बनाया जाए। पिछले दो सालों में पॉवेल इकाई की क्षमता 60 से 95 प्रतिशत तक बढ़ी है। इतनी क्षमता बढ़ाने के लिए वहां  75 लाख रुपये की अतिरिक्त पूंजी लगानी पड़ी और कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए नई कोशिशें शुरू की गईं।

बेहतर अर्थव्यवस्था के पैमाने और बेहतर सुविधाओं के उपयोग की वजह से ही लागत कम हुई। कंपनी के तौर पर क्रॉम्पटन का खर्च अब कम है इसकी वजह यह है कि उसने सम्मिलित मार्केटिंग टीम और कच्चे माल की खरीदारी के लिए अलग-अलग यूनिट बना दी है जिसका मुख्यालय ब्रसेल्स में है। त्रेहान कहते हैं कि वैश्विक स्तर पर कच्चे माल की जो आपूर्ति होती है उसके बिल में 0.75 प्रतिशत की कमी आई है जो तकरीबन हर साल 35 करोड़ रुपये रहता है।

मार्च 2008 तक 1 प्रतिशत का इजाफा काफी बेहतर है। जैसे जैसे कारोबार में इजाफा हुआ वैसे ही उसमें ज्यादा बचत की उम्मीद भी बढ़ गई। अर्नेस्ट ऐंड यंग के बिजनेस एडवाइजरी सर्विस के पार्टनर तन्मय कपूर कहते हैं, ‘लागत में कमी हो, यह बेहद महत्वपूर्ण क्षेत्र है, इस पर खास ध्यान देना भी चाहिए। इससे निचले स्तर पर खासा फर्क पड़ता है। दुर्भाग्य से कुछ कंपनियां लागत पर ध्यान नहीं देती।

ग्राहकों को लुभाना

त्रेहन का कहना है कि लागत में कटौती करना प्राथमिकता तो है ही, लेकिन लोगों को अपने साथ जोड़े रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। क्रांप्टन ने अपने किसी यूनिट के  वेतन में कोई कटौती नहीं की है और न ही अपने कर्मचारियों में कमी की है। दूसरी ओर इसने यूरोप और यूएस के लोगों को जोड़ा भी है। उनका कहना है कि हम नहीं चाहते थे कि कर्मचारियों में कोई गलत संदेश जाए।

क्रॉम्पटन के कर्मचारियों का एक तिहाई हिस्सा विदेशों में है। कंपनी अपने सीनियर मैनेजमेंट को लेकर काफी सतर्क होती हैं। कंपनी ने मैनेजरों की टीम भारत से भी भेजी ताकि विदशों में मौजूद प्रबंधन में कुछ बदलाव लाया जाए। वहां की टीम काफी छोटी थी।

जब क्रॉम्पटन ने पॉवेल का अधिग्रहण किया था उस वक्त उसकी हालत बेहद नाजुक थी। उसके बाद इस साल मार्च तक इसमें 25 प्रतिशत की बढ़ोतरी के साथ 2617 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ। इससे उसकी हालत तो खस्ता हो गई और मार्च 2006 में वह पूरी तरह टूट गई। गैंज भी तेजी से अपने कारोबार को बढ़ा रही थी और उसका मुनाफा पिछले साल बढ़कर 50 प्रतिशत हो गया।

कंपनी को इस साल भी बेहतर ही करना चाहिए। इसके जरिए उसे विदेशं में भी काफी मुनाफा मिल सकता है। उसका मुनाफा पहले से ही 43 प्रतिशत है। इसके शुद्ध मुनाफे का चौथाई हिस्से का योगदान तीन विदेशी इकाइयों से आता है। कुछ सालों में तो यह हिस्सा और भी बढ़ना चाहिए क्योंकि तभी कंपनी वैश्विक स्तर की मजबूत खिलाड़ी कही जाएगी।

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