नवीन नेपाल के बारे में काठमांडू की गली-गली में चर्चा है, लेकिन मतभेद यह है कि नेपाल में वाकई कुछ बदला है क्या? पिछले महीने पुष्पकमल दहल उर्फ ‘प्रचंड’ को देश का प्रधानमंत्री चुना गया।
माओवादी आंदोलन के शीर्ष नेताओं में से एक, प्रचंड (और माओवादियों) का चुनावी नारा था – सबको परखा, अब हमको परखो। सरकार बननी थी सभी दलों की। लेकिन शामिल हुए केवल वामदल और मधेस (तराई) इलाके की पार्टियां। गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व में नेपाली कांग्रेस ने सरकार से अलग होकर विपक्ष में बैठने का फैसला किया है।
नेपाल बदलाव की तरफ अग्रसर है और वहां बहुत कुछ बदल चुका है। दरबार मार्ग स्थित 20 फुट ऊंची दीवार, जो नेपाल नरेश को आम लोगों से सुरक्षित रखा करती थी, आज भी बरकरार है। लेकिन आज उस शाही महल में केवल दो बूढ़ी महिलाएं रहती हैं, राजकुमारी रत्ना और पुराने राजा की तीसरी पत्नी। कुछ है ही नहीं आज शाही महल नारायण हिति में सुरक्षित रखने के लायक।
जिन पगडंडियों को हमेशा साफ सुथरा रखा जाता था, उन पर आज की तारीख में घास और सूखे पत्तों की मोटी परत चढ़ चुकी है। नजारा कुछ-कुछ निराला की कविता सरीखा है -‘अबे सुन बे गुलाब! भूल मत, जो पाई खुशबू रंगोआब, खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा कैपिटलिस्ट’। अंतर केवल इतना है कि नेपाल के बुध्दिजीवी वर्ग में गपशप यही है कि राजा ज्ञानेंद्र अब कहां डेरा बसाएंगे।
अभी उन्होंने अपने दूर के रिश्तेदार के घर को अपना आवास बनाया हुआ है। यह काठमांडू शहर से लगभग 12 किलोमीटर दूर पहाड़ की ऊंचाई पर एक महल है, जो शहर से साफ दिखता है । लेकिन चर्चा यह है कि वह जल्दी ही वहां से कहीं और जाने वाले हैं। उधर, युवराज पारस और युवरानी हिमानी (बाल-बच्चों के साथ सिंगापुर चले गए हैं।
खबर है कि अंग्रेजों के साम्राज्यवाद के एक स्तंभ सिंगापुर में युवराज को कुछ ही दिनों पहले काफी बेइाती झेलनी पड़ी थी। दरअसल, उन्हें वहां एक क्लब से नम्रतापूर्वक बाहर ले जाया गया क्योंकि उनके बाल बहुत लंबे थे और पोनीटेल में बंधे हुए थे। वैसे, युवराज और युवरानी अब शायद ही स्वदेश वापस आएंगे।
काठमांडू में चीजें अब बदली हैं। जगह-जगह लोग मकानों को बनाने में जुटे हैं, लेकिन सड़कों की हालत जस की तस है। गाड़ियों की तादाद काफी बढ़ चुकी है, लेकिन सड़कें अब भी संकरी ही हैं। इसलिए टै्रफिक जाम होना तो जैसे आम बात बन गई है। यहां डीजल और पेट्रोल की भारी कमी के चलते तीन-तीन दिन तक लाइन में खड़े रहने के बाद भी टैंक भरने की कोई गारंटी नहीं है।
नेपाल विपन्न है, लेकिन हर नेपाली अच्छा खाता है और अच्छा पहनता है। डिपार्टमेंटल स्टोर हो या फिर छोटा सा ‘पसल’ (नेपाली में दुकान), हर जगह चीनी सामान अटा पड़ा हुआ है। चीन बड़े पैमाने पर नेपाल में झलकता है। प्रचंड को जब पेइचिंग ओलंपिक खेलों में शामिल होने का न्योता मिला था, तो उन्होंने कार्यभार संभाला ही था।
वहां उनका शानदार स्वागत किया गया, लेकिन उन्होंने नेपाली अखबारों को बताया कि उनकी पहली राजनीतिक यात्रा भारत की ही होगी। मुमकिन है कि वह न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र को संबोधित करने से पहले 15 या 16 सिंतबर को दिल्ली आएं। यह तो काफी हद तक साफ है कि भारत नेपाल को यह नहीं बता सकता कि चीन के साथ उसके रिश्ते कैसे होने चाहिए।
लेकिन भारत नई नेपाली सरकार को कभी यह भूलने नहीं देता कि जब माओवादियों ने राजा के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी, तब चीन ने राजा का साथ दिया था, जबकि भारत ने लोकतांत्रिक ताकतों का। यह बात अपनी जगह है। माओवादियों को यह भी अच्छे से याद है कि उनके दो साथियों को भारत सरकार ने करीब दो सालों तक जेल में बंद रखा था, जाली पासपोर्ट के आरोप में।
चीन पर नेपाल ने कभी कोई आरोप नहीं लगाया है, लेकिन भारत हमेशा ही दाजूभाई के नाम से नेपाल में जाना गया है। नेपाल को हमेशा ही शिकायत और संदेह रहता है कि भारत उसे पटखनी देना चाहता है। इसके कई कारण हैं। भारत और नेपाल के बीच सीमा खुली हुई है। भूटान के साथ यह एक ऐसा देश है, जिसके साथ भारत का कोई सीमा विवाद नहीं है।
शायद ऐसा इसलिए है क्योंकि 1950 भारत नेपाल संधि के तहत कई ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर विवाद की गुंजाइश भी है और विवाद है भी। सबसे पहला सवाल है नेपाल की प्रभुसत्ता का। बीबीसी नेपाली सेवा से बातचीत में प्रचंड यह साफ कर चुके हैं कि इस संधि की समीक्षा होनी चाहिए। ऐसा माओवादियों का ही नहीं, बल्कि नेपाल की सभी पार्टियों का कहना है।
लेकिन अंतर यह है कि पहले जब यह मुद्दा उठा तो विदेश मंत्री चक्र बास्तोला ने सभी दलों से अपने विचार मांगे – नई संधि का क्या स्वरूप होना चाहिए। बास्तोला ने कहा कि कई बार याद दिलाने के बावजूद किसी दल ने अपना मत नहीं रखा और इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल देना पड़ा। ऐसा क्यों? भारत का कहना है कि समीक्षा के लिए भारत तैयार है, लेकिन बदलाव से नेपाल को ही सबसे ज्यादा नुकसान होगा।
संधि के मुताबिक नेपाल किसी तरह के हथियार खरीदता है तो उसे भारत को बताना होगा कि वे उन्हें किन देशों से खरीद रहा है। फिर नेपाल के नागरिकों को भारत में जमीन खरीदने का, निवेश करने का और मकान बनाने का हक है। नेपाली नागरिक हिंदुस्तानी फौज में भी भर्ती हो सकते हैं, लेकिन भारतीयों को यह अधिकार नहीं है।
खुली सीमा होने की वजह से कई ऐसे परिवार हैं, जिनका ननिहाल भारत के बिहार या बंगाल में है, तो दादी का घर नेपाल में। ये सभी परिवार तराई के इलाकों में रहते हैं। पहाड़ और तराई का झगड़ा पुराना है। नेपाल ने कभी साम्राज्यवाद के आगे सिर नहीं झुकाया, लेकिन माना जाता है कि सगौली की संधि तभी हुई थी, जब तराई के छोटे राजाओं ने अंग्रेजों के साथ हाथ मिला लिया था।
इसलिए तराई को हमेशा हिकारत की नजर से देखा जाता था। हिंदी के स्कूल बंद कर दिए गए और नेपाली में पढ़ने के लिए उन्हें मजबूर कर दिया गया। लेकिन यह सब राजा के जमाने की बात है। भारत ने कभी तराई के लोगों को भारतीय नहीं माना और उन्हें यही सलाह दी कि वे अपनी सरकार से अपनी समस्याओं का समाधान मांगें। लेकिन अब सब बदल सकता है।
तराई के लोगों का अपना आंदोलन जारी है और ऊंट किस करवट बैठेगा, यह भारत को देखना है। अब प्रचंड की भारत यात्रा में तय होगा कि भारत और नए नेपाल के बीच संबंध कैसे होने चाहिए। बेशक नहीं है कि दोनों दोस्त एक दूसरे से साफगोई करेंगे। हां, चीजें कितनी बदलती हैं, यह बात दूसरी है।