महामारी ने कई प्रकार के आर्थिक संकट को जन्म दिया है। वैश्विक अर्थव्यवस्था को दीर्घावधि के दौरान पटरी पर लाने के क्रम में इन सभी से निपटना होगा। लॉकडाउन और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं ने उभरते बाजारों पर कहीं अधिक आर्थिक बोझ डाला। इनमें से कुछ देशों ने कमी दूर करने के लिए वैश्विक पूंजी बाजारों का भी रुख किया। अन्य देश पहले से ही कर्ज में हैं और वे कर्ज के पुनर्भुगतान को माफ करने या फिलहाल स्थगित करने की गुजारिश कर रहे हैं। इन बातों के बीच कुछ देशों को सॉवरिन रेटिंग में कमी का सामना करना पड़ा है या इसके लिए मजबूर होना पड़ा है। इसके चलते महामारी से समुचित तरीके से निपटने की उनकी राजकोषीय क्षमता प्रभावित हुई है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि महामारी ने ऋण के स्तर को बुरी तरह प्रभावित किया है। उसका कहना है कि वर्ष 2019 के अंत की तुलना में 2021 में विकसित देशों में औसत ऋण अनुपात के जीडीपी की तुलना में 20 फीसदी बढऩे का अनुमान है। उभरते बाजारों वाले देशों में यह इजाफा 10 फीसदी रह सकता है और कम आय वाले देशों में सात फीसदी। यह बढ़ोतरी उस समय होनी है जब ऋण का स्तर पहले ही ऐतिहासिक रूप से उच्च स्तर पर है। पूंजी के बहिर्गमन और उसके बाद होने वाली व्यय कटौती के कारण संकट गंभीर हो सकता है।
जी 20 जो सन 2008-09 के पिछले वित्तीय संकट के समय वैश्विक निर्णय संस्था के रूप में उभरा था वह पहले ही इस समस्या को हल करने की शुरुआत कर चुका है। समूह के देशों के वित्त मंत्रियों के बीच अप्रैल में ऋण पुनर्भुगतान को निलंबित करने की पहल (डीएसएसआई) पर सहमति बनी और यह तय हुआ कि अत्यधिक कर्ज से जूझ रहे देशों का कर्ज भुगतान वर्ष के अंत तक स्थगित रहेगा। पारंपरिक ऋणदाता देशों के पेरिस समूह ने संबंधित समझौते पर हस्ताक्षर किए और ज्यादातर द्विपक्षीय कर को आगे खिसका दिया गया। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि केवल ये उपाय पर्याप्त नहीं थे। डीएसएसआई तो 2020 के साथ समाप्त हो जाएगी। जबकि महामारी अगले वर्ष भी बरकरार रहेगी। ऐसे में इस पहल को कम से कम 2021 में भी जारी रखना चाहिए।
एक प्रश्न यह भी है कि जैसा कि मुद्रा कोष कह रहा है कि अधिकांश सॉवरिन ऋण का दायित्व अब पेरिस क्लब के देशों पर नहीं है तो इससे जुड़ी एक अहम बात यह है कि चीन अब प्रमुख कर्जदाता है। खासतौर पर कम आय वाले देशों के ऋण के मामले में ऐसा ही है। जर्मनी स्थित कील इंस्टीट्यूट फॉर द वल्र्ड इकनॉमी के अर्थशास्त्रियों का समूह जिसमें विश्व बैंक के मौजूदा मुख्य अर्थशास्त्री कार्मेन रेनहार्ट भी शामिल हैं, ने पाया कि 50 सर्वाधिक कर्जग्रस्त देशों के कुल बाहरी कर्ज में चीन के कर्ज की हिस्सेदारी औसतन 40 प्रतिशत है। इसके अलावा विदेशों में चीन के सरकारी ऋण पर ब्याज दर अच्छी खासी होती है और परिपक्वता अवधि कम होती है। चीन के कर्ज में बड़ा हिस्सा छिपे कर्ज का भी है, जिसमें सरकारी बैंक भी शामिल हैं।
इससे सॉवरिन ऋण का मसला जटिल हो जाता है। खासकर इसलिए क्योंकि इसका कुछ हिस्सा अनुचित रूप से निजी क्षेत्र के ऋण के रूप में वर्गीकृत है जबकि उसे द्विपक्षीय ऋण होना चाहिए। वैश्विक समुदाय के लिए सीधे या मुद्रा कोष के जरिये चीनी बॉन्ड धारकों को उबारना मुश्किल होगा। नवंबर में जी 20 बैठक में इस पर अवश्य चर्चा होगी। आगे की राह तय करने में भारत की राय मायने रखेगी। एक नया सॉवरिन ऋण फॉर्मूला तो अहम है ही, भारत को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि चीन की सरकारी कंपनियों और बैंकों के साथ कर्ज को द्विपक्षीय ऋण माना जाए।
