पिछले तीन दिनों में अगर सबसे अच्छी बात किसी ने कही है, तो वो शख्स भारतीय सेना का वह जवान है जो ताजमहल होटल में फंसे लोगों को बाहर निकाल रहा था।
डरे-सहमे लोगों को बाहर निकालते वक्त उस सैनिक ने मुस्कुराकर कहा था, ‘आप घबराइए मत, पहली गोली मुझे लगेगी।’ यह बात है उस अनजान हीरो के बारे में, जिसने डरे सहमे लोगों को उम्मीद की एक नई किरण दिखलाई। यह बात दिखलाती है उस सैनिक की हिम्मत को, जिसे अपनी जान से ज्यादा मासूम लोगों की जिंदगियां प्यारी थीं।
लेकिन सबसे ऊपर इससे पता चलता है, उसकी परिस्थितियों को संभालने की जबरदस्त क्षमता के बारे में। वह इस बात को बखूबी जानता था कि वह क्या कर रहा है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारे नेता भी इस बात को जानते हैं?
जरा कारगिल के बारे में सोचिए। ये भारतीय सेना के बहादुर जवान ही थे, जो मुश्किल से मुश्किल मिशनों पर यह जानते हुए गए कि वे ताबूतों में वापस आएंगे। उन्होंने अपने जनरलों की गलतियों की कीमत चुकाई थी।
या फिर आंतकियों की गिरफ्त वाले होटलों के उन स्टॉफ मेंबर्स के बारे में सोचिए, जिनकी तारीफ करते वहां फंसे रहे मेहमान नहीं थक रहे। इस त्रासदी से गुजरे हरेक मेहमान ने यही बताया है कि मुसीबत के उस दौर में भी होटल के स्टॉफ ने उनका पूरा ध्यान रखा।
उन्होंने हर तरीके से मेहमानों को आश्वस्त किया। साथ ही, उन्होंने कई ग्राहकों को फोन करके होटल से दूर रहने के लिए भी कहा। भारत में कई अच्छे लग्जरी होटल हैं, जिनकी सर्विस वाकई उम्दा है। पर मुसीबत की घड़ी में सेवा भाव की ऐसी मिसाल शायद ही कहीं और देखने को मिले।
लेकिन क्या हम अपने राजनेताओं के बारे में भी ऐसा कह सकते हैं? आज मालेगांव मामले को लेकर एटीएस के खिलाफ भाजपा और संघ परिवार के प्रचार अभियान के बारे में याद न करना नामुमकिन है।
एटीएस और उसके अधिकारियों पर हर तरह के इल्जाम लगाए गए। तो अब आलोचक क्या कहेंगे, जब फर्ज की राह में करकरे और काले ने अपनी जान न्यौछावर कर दी? क्या वे सचमुच ऐसे लोग थे, जो राजनीतिक या सांप्रादायिक खेल खेल सकते थे?
या फिर क्या वे बस ऐसे अधिकारी थे, जो सिर्फ अपना काम कर रहे थे? उन कमांडोज के पेशेवाराना अंदाज को देखकर वाकई काफी अच्छा लगा, जो नीचे छुपे दहशतगर्दों को नेस्तानाबूद करने हेलीकॉप्टर से रस्सी के सहारे इमारत की छत पर उतरे। लेकिन क्या शिवराज पाटिल को उस वक्त का खुलासा करने में गर्व का अहसास, जब एनएसजी के कमांडो मुंबई पहुंचने वाले थे?
और क्या उन्होंने सबके सामने अपनी गलती मानी या फिर अपनी फौज से माफी मांगी? या फिर क्या उन्होंने कम से कम अपना इस्तीफा ही दिया? हर बार अलग-अलग संदर्भ और हालातों में एक ही चीज दोहराई जाती है।
मोर्चे पर मौजूद लोग तो बेहतरीन से भी बेहतर करके दिखाते हैं, लेकिन ऊपर बैठे शख्स अपना काम तक करने में नाकामयाब रहते हैं।
इसका खामियाजा चुकाना पड़ता है मासूमों को। यहां कटघरे में खुद सरकार है, जो आंतक के इस खूनी खेल पर लगाम कसने में नाकामयाब रही है। 25 साल से पाकिस्तान ने हमारे खिलाफ एक जंग छेड़ रखा है और हमारी सरकार उससे निपटने का रास्ता नहीं ढूंढ़ पाई है।
गुप्तचर एजेंसियां का दामन भी कम दागदार नहीं है। या तो वे समय पर जानकारी नहीं देते या फिर वे उनके आधार पर कार्रवाई नहीं करते। हमारे मुल्क में अमेरिका के तर्ज पर सार्वजनिक चेतावनी का तीन लेवल वाला सिस्टम क्यों नहीं हो सकता है?
साथ ही, कटघरे में आपदा प्रबंधन ग्रुप भी है, जो एक मीडिया ब्रीफिंग के लिए भी साथ नहीं खड़ा हो सकता। इसकी मिसाल आपको मुंबई में मिली ही होगी, जहां मुंबई पुलिस, एनएसजी और सेना ने अलग-अलग मीडिया से बात की। साथ ही, दोषियों की लिस्ट में होटल मैनेजमेंट भी है, जिसे सुरक्षा का तो ध्यान रखना ही चाहिए था।
जरा सोचिए आखिर क्यों नहीं हमारे सबसे अच्छे होटलों तक में एक्सेस कंट्रोल स्वाइप की सुविधा नहीं है, ताकि सिर्फ मेहमान ही होटल के कमरों तक पहुंच सकें। हमारी नाकामयाबियां हमारे नेताओं की असफलता है, लेकिन आज तक कितने नेताओं ने इसकी कीमत चुकाई है?