सहरसा स्टेशन पर 31 अगस्त की सुबह पहुंचते ही यह स्पष्ट हो गया कि कोसी नदी का तटबंध टूटने से सामान्य बाढ़ नहीं, ‘मुसीबतों की बाढ़’ आई है। स्टेशन पर भारी संख्या में लोग।
कुछ लोग इस इलाके को छोड़कर भागने को तैयार, तो कुछ इस उम्मीद में बैठे हुए कि कई दिनों की भूख-प्यास से मुक्ति मिलेगी। स्टेशन के बाहर निकलने पर छोटे-छोटे बैनर, जिस पर लिखा था कि बाढ़ पीड़ितों के लिए, राहत शिविर… आदि आदि।
स्थानीय लोग पूरी शिद्दत के साथ लोगों की मदद में जुटे थे। सहरसा जिले के सभी होटल पूरी तरह से भरे हुए थे। मीडिया के लोग, स्वयंसेवी संगठनों के लोग और कुछ कर्मचारी। पूरे जिले में भरे हुए लोग। प्रमुख होटलों के सामने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ओबी वैन की भीड़ लगी थी। सहरसा में इलेक्ट्रॉनिक चैनलों की ओबी वैन पहले भी आती रही हैं।
इसका प्रमुख कारण यह है कि सुपौल जिले का बलुआ बाजार मिनी संसद के नाम से जाना जाता रहा है, स्वतंत्रता के पहले से ही यहां पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र जैसे नामी नेता रहते थे। बाद में बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र, सांसद विजय मिश्र और बिहार सरकार के वर्तमान आपदा राहत मंत्री नीतीश मिश्र जैसे दिग्गज नेता हुए।
मंडल आयोग के लागू होने के बाद भी यहां तमाम नेता हुए, बाहुबली हुए। सांसद आनंद मोहन का गांव पंचगछिया, लहटन चौधरी का गांव कर्णपुर, सहरसा के दिग्गज नेता रहे चंद्रकिशोर पाठक का गांव, पप्पू यादव की राजनीति का यह इलाका प्रत्यक्ष गवाह रहा। मधेपुरा में शरद यादव और लालू प्रसाद में अब हर संसदीय चुनाव में कुश्ती होती है।
एक हफ्ते तक इस इलाके में विभिन्न इलाकों में विभिन्न दृश्यों को देखने के बाद लगा कि इस बाढ़ के बाद नजारा कुछ बदला बदला सा है। होटलों में कमरे नहीं हैं और शहर में किसी के घर पर भी जगह नहीं है। सहरसा शहर का हर घर शरणार्थी शिविर बना है। जिसके भी रिश्तेदार गांवों में रहते थे, सभी ने अपने परिजनों के यहां डेरा डाल रखा है।
थाना चौक के यादें स्टूडियो में काम करने वाला आलोक बताता है कि उसके घर में इस समय पिछले एक हफ्ते से अधिक समय से 15 लोग रह रहे हैं। यही हाल मनोज के घर का है। आखिर बाढ़ के बाद जाएं कहां। जिनके किसी भी रिश्तेदार का शहर में मकान नहीं है, वे लोग सरकार के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। यहां भी सेवा भाव के साथ राजनीति है।
सरकारी स्कूलों की बात करें तो थाना चौक से आगे बढ़ते ही एक गर्ल्स स्कूल में शिविर चल रहा है। ज्यादातर लोग मधेपुरा जिले से आए हैं। इसका संचालन ‘फ्रैंड्स आफ आनंद मोहन’ कर रहा है। उसके आगे बढ़ने पर एक और सरकारी स्कूल, जिसका संचालन संस्कार भारती के स्वयंसेवक कर रहे हैं। हर कैंप में दर्द ही दर्द है। कहां से शुरू किया जाए। तमाम परिवार ऐसे हैं, जिनके अपने लोग बिछड़ गए हैं। उन्हें पता भी नहीं है कि वे बाढ़ में बह गए या किसी दूसरे कैंप में शरण लिए हुए हैं।
सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और पूर्णिया के शहरी इलाकों में तो शरणार्थी कैंप बने ही हैं, ग्रामीण इलाकों में भी स्कूलों में बाढ़ पीड़ितों के शिविर चल रहे हैं। सुपौल के लोहिया चौक के आगे बने रेलवे स्टेशन से भी बाढ़ पीड़ितों का काफिला निकल रहा है।
आगे बढ़ने पर थुमहा बाजार के एक स्कूल में भी बाढ़ राहत शिविर, गणपतगंज में बाढ़ राहत केंद्र, प्राथमिक स्कूल मानिकचंद्र चकला में राहत शिविर, राघोपुर रेलवे स्टेशन पर बाढ़ पीडितों की भीड़, भीमनगर में बंधे के किनारे पॉलिथीन लगाकर रह रहे हजारों लोगों की भीड़। इसी में तेज धूप और रुक-रुककर होती तेज बारिश ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है।
सुपौल के कटैया मुख्य नहर पर भी 200 से ज्यादा पॉलिथीन के टेंट लगाकर लोग रह रहे हैं। इन इलाकों के लोगों का दर्द इतना बड़ा है कि समझ में नहीं आता कि कहां से शुरू किया जाए और कहां खत्म। जब भी कोई चार पहिया गाड़ी आती है, तो पचासों बच्चे दौड़ पड़ते हैं कि कुछ खाने की चीजें आ रही हैं। अगर किसी से कुछ पूछना शुरू किया तो सैकड़ों लोग घेर लेते हैं कि अपना दर्द कहें।
इलाज की व्यवस्था के बारे में पूछें तो लोग अपने छोटे-छोटे बच्चों का हाथ पकड़ा देते हैं कि इसे चार दिन से बुखार है, कुछ करिये। बच्चों को पेचिश हो रही है, कुछ कर सकते हों तो करिये। मधेपुरा जिले के भवनटेकरी के पास बंधे पर रह रहा लूटन तीर-बांस लेकर बैठा है।
हिंदू संस्कारों की परंपरा के मुताबिक इस हालत में कोई तभी बैठता है जब उसके किसी परिजन की मौत हो जाती है और वह संस्कार कर रहा होता है। पूछने पर लूटन बताता है कि उसकी आंखों के सामने उसकी मां भटियारी देवी पानी में बह गई। अब वह अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ बंधे पर पॉलिथीन का आशियाना बनाकर बैठा है।
सरकार पूर्ण मनोयोग से पीड़ितों की मदद कर रही है, लेकिन लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि क्या हो गया और अब क्या हो रहा है। भविष्य के बारे में तो किसी को चिंता ही नहीं है।
आपदा को इंसान का खुला आमंत्रण
बाढ़ अचानक नहीं आती। पहले संकेत देती है। यह अलग बात है कि पहले यह भीगी बिल्ली की तरह आती थी, अब भूखे शेर की तरह आती है। कहीं न कहीं से यह स्पष्ट हो जाता है कि असंतुलित विकास ने इस आपदा को बुलाया है। बाढ़ आई और पिछले 50 साल में हुए विकास कार्यों को बहाकर ले गई।
अगर सड़कों की बात करें तो इस इलाके में तीन राष्ट्रीय राजमार्ग, स्थानीय स्तर पर कच्ची और पक्की सड़कों के संजाल, रेल की सुविधा उपलब्ध है। इलाके की मुख्य सड़क एनएच-31 है जो उत्तर भारत को पूर्वोत्तर राज्यों से जोड़ती है। इसके अलावा एनएच-107 है, जो महेशखूट-सोनबरसा, सिमरी बख्तियारपुर, सहरसा, मधेपुरा और पूर्णिया को जोड़ती है।
वहीं एनएच-106 नौगछिया के थाना बिहपुर से सुपौल के बीरपुर को जोड़ती है। साथ ही सुपौल, सहरसा, मधेपुरा और तमाम छोटे-छोटे कस्बों को जोड़ने वाली रेल लाइनें भी हैं। बाढ़ आते ही विकास के इन स्तंभों की कलई खुल गई। एनएच-107 सोनबरसा के पास टूटी। एनएच-106 सिंहेस्वर के पास और मधेपुरा के ठीक पहले पानी में डूब गया।
मधेपुरा में तो पानी की तेज धार ने रेल लाइन के नीचे की जमीन खिसका दी। इसके साथ ही कोसी नदी का पानी हर साल तमाम इलाकों को डुबाता है, जिसकी प्रमुख वजह है कि एनएच-31 पर महेशखूट से पूर्णिया के बीच कोई बड़ा पुल नहीं है, जिससे नदी की धार को अविरल प्रवाह के लिए रास्ता मिल सके।
स्वाभाविक है कि इन निर्माण कार्यों को करते वक्त इलाके में उच्चतम जल स्तर का ध्यान नहीं रखा गया, इसके साथ ही जल निकासी की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई। भीमनगर तक जाने के लिए मुझे गांवों के रास्ते होकर गुजरने वाली सड़कों से होकर जाना पड़ा। करीब 15 किलोमीटर सर्पिल आकार की सड़कों पर घूमने के बाद एनएच 106 मिली।
स्थानीय लोगों ने बताया कि आप जिस रास्ते से गुजर रहे हैं, इसे जिलेबिया रोड कहते हैं, क्योंकि यह जलेबी के आकार में बनी है। पिपरा बाजार से एनएच-106 बहुत ही बेहतरीन बनी है, जिस पर आगे भी निर्माण कार्य चल रहा है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग, सिमराही बाजार में पहुंचकर गुम हो जाती है। यह जानना भी कठिन है कि गाड़ी सड़क पर चल रही है या गांवों में बनी कच्ची चकरोड पर।
आप इस सड़क का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि 15 किलोमीटर के बीच गांवों के लिए मुफीद मानी जाने वाली टाटा सूमो दो बार पंक्चर हुई। शुक्र है कि इन ग्रामीण इलाकों में पंक्चर ठीक करने वाले मिल जाते हैं। रास्ते में ही मिले राघोपुर गांव के शिव नारायण चौधरी। उन्होंने बताया, ‘पिछले 15 साल में इस सड़क पर कोई काम नहीं हुआ है, धीरे-धीरे करके सड़क खत्म हो गई।
अब पिछले एक-डेढ़ साल से कुछ काम होने लगा है और कुछ दूरी तक सड़क बनी है।’ आगे जाने के बाद कटैया नहर के पास एनएच-106 टूट गई है और लोग विभिन्न गांवों से निकलकर नाव से सड़क पार कर रहे हैं। भीमनगर बैराज के आसपास बने तटबंधों पर भी लोग पॉलिथीन का टेंट बनाकर रह रहे हैं। तटबंधों पर भी सड़क का निर्माण किया गया था। उद्देश्य तो बहुत ही बढ़िया था।
इससे तटबंधों की रक्षा भी होती और स्थानीय लोगों को आने जाने का रास्ता भी मिलता। कुसहा से लौटते समय हमने बंधे पर बनी सड़क वाला रास्ता ही पकड़ा कि हो सकता है कि स्थिति कुछ बेहतर हो, लेकिन ये सड़कें भी खस्ताहाल हैं। कहीं भी सड़क की हालत ऐसी नहीं है कि गाड़ी की रफ्तार 15 किलोमीटर प्रतिघंटे से अधिक की जा सके।
यह अलग बात है कि कुछ किलोमीटर की दूरियों पर पैरामिलिट्री फोर्स के जवान इन सड़कों पर तैनात हैं, जो इस सड़क से गुजरने वाले वाहनों की जांच करते हैं। सड़क की दयनीय हालत तो है ही, बंधे को पानी की धार से बचाने के लिए बनाए गए स्पर भी जर्जर हो चुके हैं। इस बांध, सड़क और स्पर को देखकर यही लगता है कि अगर तटबंध कुसहा में न टूटा होता और इन तटबंधों से होकर 2 लाख क्यूसेक पानी गुजरता तो कहीं भी तटबंध टूट जाता।
इसी इलाके से होकर अमीनगांव से सिलचर जाने के लिए प्रस्तावित स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के तहत राजमार्ग का निर्माण किया जा रहा है। यह पश्चिम में दरभंगा से लेकर पूर्व में किशनगंज के बीच बननी है, जिसका ठेका गैमन इंडिया को मिला है। यह सड़क सरायगढ़ से पूर्णिया तक पट गई है।
कंपनी ने शायद उच्चतम जल स्तर का ध्यान रखा था, जिसके चलते यह सड़क जलमग्न नहीं हुई है और लोग उस पर शरण लिए हुए हैं। बाढ़ आते ही कंपनी के लिए काम कर रहे मजदूर भाग गए हैं और कंपनी का सामान वहीं पर पड़ा है।
हालांकि बाढ़ ने सुपौल के प्रतापगंज के निकट स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के तहत बन रही इस कच्ची सड़क को भी तोड़ा है। स्थानीय लोग कहते हैं कि हमने इस कंपनी का नाम नहीं सुना है, लेकिन इसके काम के तरीके को देखकर लगता है कि अगर इस कंपनी को ही काम दिया गया होता, तो बांध नहीं टूटता।