छह महीने के भीतर दूसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली ने संसद का कार्यकाल दो साल बाकी रहने के बीच नए चुनाव कराने का आदेश जारी कर दिया है। राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने मंत्रिपरिषद की अनुशंसा के अनुरूप गत 21 मई को प्रतिनिधि सभा भंग करने के साथ ही आगामी 12 एवं 19 नवंबर को आम चुनाव कराने की घोषणा कर दी। लगता है कि मौजूदा समय में किसी भी दल के पास सरकार बनाने लायक संख्या नहीं होने की वजह से यह फैसला लिया गया है। लेकिन विपक्षी दलों की राय इससे अलग है और उन्होंने इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी है। इस मामले की सुनवाई का जिम्मा संविधान पीठ को सौंप दिया गया है। सभी दलों के पास सरकार बनाने के लिए प्रयास करने का 15 जून तक का वक्त है। अगर तब तक कोई सरकार नहीं बनती है तो नेपाल आम चुनावों के रास्ते पर बढ़ेगा और सत्ता की बागडोर ओली के ही हाथ में बनी रहेगी। कई लोगों का कहना है कि ओली असंवैधानिक तरीके से सत्ता में बने हुए हैं। नेपाल के एक विपक्षी नेता टीकाराम जोशी ने बिजऩेस स्टैंडर्ड से कहा, ‘हमें राष्ट्रपति ने बहुमत साबित करने का मौका ही नहीं दिया।’
ओली के अलावा विपक्षी दलों को भी बखूबी मालूम है कि नेपाल के दूरदराज के ग्रामीण इलाकों तक महामारी अपने पैर पसार चुकी है जहां स्वास्थ्य सुविधाएं लगभग नदारद हैं। तमाम विपक्षी दलों को लगता है कि मौजूदा सांसदों के भीतर से ही कोई नया प्रधानमंत्री सामने आ सकता है जिसे कई दलों एवं धड़ों के समूह का समर्थन हासिल हो। वहींं ओली ऐसा न होने देने के लिए प्रतिबद्ध नजर आ रहे हैं। काठमांडू स्थित सूत्रों की मानें तो ओली को अगर रोकने की कोशिश की गई तो वह राष्ट्रीय आपातकाल की भी घोषणा कर सकते हैं।
नेपाल में सरकार बनाने के लिए किसी भी दल या समूह को 275 सदस्यों वाले सदन में 136 सदस्यों का समर्थन होना चाहिए। विपक्षी नेपाली कांग्रेस के पास 63 सीटें हैं और पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड की अगुआई वाली नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के पास 54 सांसद हैं। अगर ये दोनों विरोधी दल अपने राजनीतिक मतभेदों एवं विरोधाभासों को दरकिनार कर किसी तरह एक साथ आ जाते हैं तो भी वे बहुमत के जादुई आंकड़े से दूर ही रहेंगे। ऐसी स्थिति में मधेशियों के बीच लोकप्रिय जनता समाजवादी पार्टी (जेएसपी) के पास सत्ता की चाबी आ सकती है जिसके पास 34 सीटें हैं।
मधेश समुदाय की शिकायत है कि मधेशियों के साथ ‘भारतीय नेपाली’ की तरह बरताव किया जाता है और खुद संविधान भी उनके अधिकारों एवं नागरिकता को लेकर भेदभाव करता है। इन शिकायतों को ध्यान में रखते हुए ओली ने फौरन जेएसपी से संपर्क साधा जो खुद दो धड़ों में बंट गया है। जेएसपी के प्रमुख महंत ठाकुर का दावा है कि ओली ने मधेशी समुदाय की वर्षों पुरानी शिकायतें दूर करने का आश्वासन दिया है, लिहाजा उनका समर्थन ओली को ही जाता है। लेकिन यह भी सच है कि ठाकुर के पास सिर्फ 15 सांसद ही हैं। पार्टी का दूसरा धड़ा अब भी ओली का विरोध कर रहा है। इस धड़े में पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई एवं पूर्व कानून मंत्री उपेंद्र यादव भी शामिल हैं। बहरहाल ओली ने मधेश समुदाय की शिकायतें दूर करने की बात साबित करने के लिए नागरिकता पर एक अध्यादेश भी जारी कर दिया है।
जब नेपाल में पिछली बार चुनाव हुए थे तो ओली की नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएन) के 173 सांसद चुनकर आए थे। कथित तौर पर भारत की पहल के बाद हुए समझौते के तहत ओली को बीच में ही प्रतिद्वंद्वी पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड के लिए सीट खाली कर देनी थी। लेकिन उस करार की शर्त का पालन ही नहीं किया गया और ओली ने प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ी। इससे नाराज प्रचंड ने पार्टी तोड़ दी और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी-मध्य) के नाम से नई पार्टी बना ली। हालांकि नेपाली निर्वाचन आयोग ने सीपीएन के विभाजन को अभी तक मान्यता नहीं दी है लेकिन प्रचंड के इस कदम से ही ओली नए चुनाव कराने के लिए मजबूर हुए हैं। उनकी पार्टी को फिलहाल संसद में दो-तिहाई बहुमत है और कई प्रांतों में भी उसकी सरकारें हैं।
इस राजनीतिक अस्थिरता एवं राजनीतिक खेल के बीच ओली के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं। इसके साथ बड़ी शक्तियों की प्रतिद्वंद्विता भी नेपाली राजनीति की एक पहचान बन चुकी है। ओली पहले भारत के पसंदीदा हुआ करते थे और उन्हें आगे बढ़ाने में भारत का हाथ माना जाता रहा है। लेकिन 2015 की आर्थिक घेराबंदी के बाद उन्होंने पाला बदल लिया और चीन को नेपाल में अपना असर बढ़ाने का मौका मिल गया। यह सिलसिला कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ओली के सियासी दबदबे को चुनौती मिलने तक जारी रहा। ओली ने पिछले साल चीनी राजदूत होइ यांकी की चालबाजियों के बावजूद भारत की तरफ थोड़ा रणनीतिक झुकाव दिखाया।
‘नेपाली टाइम्स’ में प्रकाशित सर्वे और हिमाल मीडिया के ओपिनियन पोल में लोकतंत्र को दांव पर लगाने के लिए ओली एवं प्रचंड दोनों को जिम्मेदार माना गया है। सर्वे के मुताबिक 65.5 फीसदी नेपाली नागरिक नेताओं पर यकीन नहीं करते हैं और 44.9 फीसदी लोगों का ओली पर भरोसा नहीं है।
सीपीएन (माओवादी) के बरशमन पुन और नेपाली कांग्रेस के गगन थापा ने स्थानीय मीडिया को बताया कि उन्होंने राष्ट्रपति से मुलाकात की है और सरकार बनाने के लिए एक साथ आने को तैयार हैं। उन्होंने 147 सांसदों के समर्थन का दावा किया लेकिन संसद भंग करने का मामला अदालत में लंबित होने से उनके गठजोड़ का कोई मतलब नहीं रह जाता है।
वैसे अगर 15 जून तक विपक्षी एकता कायम रहती है तो नतीजा अलग होगा। काठमांडू में लगातार बैठकें चल रही हैं और उधर देहाती इलाकों में महामारी का प्रकोप जारी है।
