कृषि विकास के ज्ञान और तकनीकों पर आधारित होने के लिए यह बहुत जरूरी है कि कृषि क्षेत्र में अनुसंधान और शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त निवेश किया जाए।
हालांकि यह सही है कि भारत ने कृषि अनुसंधान एवं शिक्षा के क्षेत्र में इतना बड़ा बुनियादी ढांचा खड़ा कर लिया है कि उसकी गिनती विश्व में की जाती है लेकिन हकीकत यह भी है कि इन पहलुओं पर वास्तविक खर्च बहुत कम हुआ है।
विकसित देशों में तकनीकी विकास तेजी से हुआ है और 1960 के दशक के बाद कृषि उत्पादन के विकास में 50 से 80 प्रतिशत तक का योगदान तकनीकी प्रगति का रहा है। दूसरी तरफ भारत में यह हिस्सेदारी 1950 के बाद से एक चौथाई से लेकर हाल के दशकों में आधे से थोड़ा ज्यादा ही रही है।
विकसित देशों में ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि वे अपने कृषि के सकल घरेलू उत्पाद (कृषि जीडीपी) का औसतन 2.39 प्रतिशत हिस्सा कृषि संबंधी शोध कार्यों पर खर्च कर रहे हैं। वहीं भारत ने इस महत्त्वपूर्ण कार्य पर अपने कृषि जीडीपी का 0.5 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च किया है।
केंद्र में एक के बाद एक आने वाली सरकारें और राज्यों की सरकारें भी कृषि क्षेत्र में शोध और शिक्षा को बढ़ावा देने का ढिंढोरा पीटती हैं, लेकिन उनकी कथनी और करनी में अंतर इस बात से ही स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने इस क्षेत्र पर कितना पैसा खर्च किया है।
भारतीय रिजर्व बैंक के एक अध्ययन ‘1991 के बाद भारत में कृषि का विकास’ ( स्टडी नं. 27) से भी इसका पता चलता है, जिसे पिछले महीने जारी किया गया। इस विश्लेषण में कृषि शोध, शिक्षा और विस्तार के बारे में सुधार के दौर के बाद कृषि के क्षेत्र में आई गिरावट के बारे में बताया गया है।
रिजर्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘यह स्पष्ट है कि सुधार के दौर के बाद से ज्ञान पर आधारित खेती पर 1991 के बाद से कम व्यय हुआ है, जबकि वास्तव में यह बढ़ना चाहिए था।’ इसमें यह भी कहा गया है कि भारत के कृषि क्षेत्र का मसला शासन प्रणाली और राष्ट्रीय जागरण से भी जुड़ा हुआ है।
यह पाया गया कि कृषि शोध और शिक्षा पर कुल खर्च कुल राजस्व खर्च के 0.5 प्रतिशत के आसपास ही रहा है। विकसित देशों की तुलना में तो यह बहुत कम है ही, अगर अपने देश के भीतर भी 11 वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा और शोध पर हुए कुल खर्च से तुलना करें तो यह बहुत ही कम है। इस दौरान सामान्य शिक्षा और शोध पर कुल जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च किया गया।
दिलचस्प है कि रिपोर्ट में इस बात की भी जांच की गई कि क्या खस्ता वित्तीय स्थिति के कारण खर्चों में कटौती करने के सरकार के कदमों से ही कृषि तकनीकों के लिए पर्याप्त धन नहीं मिल पा रहा है लेकिन यह पाया गया कि ऐसा कुछ नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘इस मामले में हमारा आकलन यह है कि अनुसंधान और प्रसार के कार्यों में बहुत ही कम खर्च किया गया जिसका सुधारों से कोई वास्ता नहीं है।
बल्कि यह भारत में कृषि के प्रति रवैए को प्रदर्शित करता है।’ सरकार के वित्तीय खाते से मिले आंकड़ों के मुताबिक इस अध्ययन समूह ने दिखाया है कि कृषि शोध और शिक्षा पर कृषि जीडीपी की तुलना में केवल आंशिक बदलाव आया है। यह 1992-94 के 0.40 प्रतिशत की तुलना में 2004-06 में बढ़कर केवल 0.52 प्रतिशत पर पहुंचा है।
कृषि प्रसार और प्रशिक्षण पर भी खर्च का आंकड़ा बहुत ही दयनीय है। सही रूप से देखें तो कृषि जीडीपी की तुलना में 1992-94 में 0.15 प्रतिशत खर्च हुआ था जो 2004-06 में घटकर 0.13 प्रतिशत रह गया है। ये सब तमाम कारण हैं जिनकी वजह से देश के कृषि क्षेत्र की निरंतर वृध्दि नहीं हो पा रही है।
कृषि शोध और शिक्षा के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बहुत जरुरी है क्योंकि हम न तो उधार ली गई तकनीक से और न ही निजी क्षेत्र द्वारा विकसित की गई तकनीकों पर निर्भर रह सकते हैं। अगर कोई तकनीक हमें मिल भी जाती है तो हालत यह हो जाती है कि भारत में उसका इस्तेमाल करना संभव नहीं हो पाता।
जो तकनीकें निजी क्षेत्र द्वारा विकसित की गई हैं, जैसे बायोटेक्नोलॉजी और उत्पादन के क्षेत्र में, संकरित और नई पीढ़ी के ट्रांसजेनिक बीज का इस्तेमाल नहीं हो पाता, जिससे लाभ मिल सके। सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश इस लिहाज से भी कठिन हो जाता है क्योंकि कृषि शोध का परिणाम देरी से आता है और यह बहुत महंगा होता है तथा इसमें समय भी लगता है।
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च (आईएफपीआरआई) के एक अध्ययन से पता चला है कि कृषि शोध के क्षेत्र में निजी निवेश की मात्रा बहुत ही कम है। इस रिपोर्ट के मुताबिक इस काम में 50 प्रतिशत धन केंद्र सरकार से आता है, 20 प्रतिशत धन राज्य सरकारों से आता है, 14 प्रतिशत अंतरराष्ट्रीय दानदाताओं का हिस्सा है और केवल 16 प्रतिशत भागीदारी निजी कंपनियों की है।