नवंबर में मुंबई में हुए आतंकवादी हमले और पिछले कई सालों में हुए ऐसे हमलों से भारत की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था की कमजोरी उजागर हुई है।
लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि सुरक्षा व्यवस्था में चूक भ्रष्टाचार और सीमा (बॉर्डर) पर निगरानी प्रणाली जैसे मुद्दों से जुड़ी हुई है।
(पुलिस वैसे निषिध्द माल की तस्करी में सहयोग देती हैं, यहां तक कि आरडीएक्स की खेप भी आने देती हैं)। इसी तरीके से सत्यम का घोटाला भारतीय कॉरपोरेट जगत में मौजूद अंधकार, इसके नियामक और कानूनी ढांचे की खामियों की तरफ इशारा करता है।
सच यह है कि कंपनी के स्वतंत्र निदेशकों, अंकेक्षकों और बैंकरों की विफलता के बिना सत्यम जैसी घटना नहीं हुई होती। साथ ही दोषी प्रमोटरों के साथ वरिष्ठ अधिकारियों के जुड़ाव के बिना भी नहीं। बोर्ड पर आधारित यह विफलता किसी दुर्घटना की नतीजा नहीं हो सकती, ये पूरी प्रणाली की विफलता की कहानी है।
सत्यम के साथ अधिग्रहण के मामले में मायटास फर्म का मूल्यांकन अग्रणी अकाउंटिंग कंपनी ने गोपनीयता के वादे के साथ किया। एक ऐसा तरीका जो कभी पहले नहीं सुना गया और स्वतंत्र निदेशकों ने इसे बिना किसी आपत्ति के स्वीकार कर लिया।
मीडिया खबरों में कहा गया है कि गंभीर धोखाधड़ी जांच कार्यालय (आज तक एक भी मामले में अंजाम तक नहीं पहुंचा है) और इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (अकाउंटेंट को सजा देने का इनका रिकॉर्ड भी कमजोर है) के हाथ लगे रिकॉर्ड दिल पर असर डालने वाले हैं। इन रिकॉर्डों से प्रणालीगत समस्याओं के प्रमाण सामने आए हैं।
बोर्ड आधारित समस्या की बाबत अब जागरूकता धीरे-धीरे बढ़ रही है। मुझे भी मोबाइल पर संदेश मिल रहे हैं जिसमें लोग (पता नहीं सही है या गलत) कुछ और घोटालों की बात कर रहे हैं। एक व्यक्ति का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र की एक बिजली कंपनी के खाते में 900 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है।
अन्य व्यक्ति वैश्विक कंपनी की भारतीय सहयोगी कंपनियों में घोटाले की बात कर रहा है तो तीसरा दो बड़े भारतीय ग्रुप की कंपनी में घोटाले की बात कर रहा है।
पता नहीं ये सच है भी या नहीं, लेकिन सच्चाई यह है कि लोग ऐसे संदेश पर सहजता से भरोसा कर रहे हैं और उन्हें लगता है कि भारतीय कॉरपोरेट जगत दागदार है और यह भारत से बाहर भी फैल चुका है।
वित्तीय दुनिया से जुड़े लोग पुरानी बात याद करते हुए कहते हैं कि विदेशी कंपनियों ने रातोंरात उन कंपनियों में निवेश से किनारा कर लिया क्योंकि वे ऐसी कंपनियों के खाताबही पर भरोसा नहीं कर सकती।
कुछ अन्य का कहना है कि क्रेडिट एजेंसियों ने अग्रणी रियल एस्टेट कंपनियों की रेटिंग और कम कर दी है क्योंकि हर कोई स्वीकार करने लगा है कि ये कंपनियां वित्तीय रूप से टूट चुकी हैं।
हमारी स्तंभकार सुनीता नारायण ने कहा है कि कैसे अकाउंटिंग से जुड़ी अग्रणी कंपनियों ने कार्बन क्रेडिट के मामले में धोखाधड़ी की है।
मीडिया को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है। एक वित्तीय पत्रिका के संपादक ने विज्ञापनदाता को दिए जाने वाले पुरस्कार में गड़बड़ी का मामला देखकर कंपनी छोड़ दी।
(दरअसल मामला विज्ञापनदाता को खुश करने का था ताकि विज्ञापन के जरिए ज्यादा से ज्यादा कमाई हो।) हर कोई जानता है कि कारोबार में सब कुछ नैतिक नहीं होता। हर जगह अच्छे व बुरे दोनों लोग होते हैं। सवाल यह है कि इन दोनों के मेल से क्या बन सकता है और क्या यह रुचिकर होगा?
जब विश्व बैंक ने बड़े कॉरपोरेट का नाम गिनाया था तो किसी ने ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल की बात को याद किया जिसने कहा था कि अंतरराष्ट्रीय बिजनेसमैन उन तथ्यों को लेकर सामने आएं जिसके तहत घूस देने के मामले में भारतीय बिजनेसमैन विदेश में अव्वल हैं।
किसी घोटाले की बाबत हम असहज बातों को छुपाकर यह सोच तो सकते हैं कि कारोबार पहले की तरह चलता रहेगा, पर यह किसी समस्या के समाधान का सबसे खराब संभावित तरीका साबित होगा।
अगर हम अगले घोटाले का इंतजार किए बिना पूरी तरह साफ-सफाई चाहते हैं तो हमें व्यवस्था में मौजूद खामियों की तरफ नजर डालनी होगी।