कुछ दिन पहले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने देश की उच्च न्यायपालिका को न्यायालयों में सुनवाई के दौरान ‘अत्यधिक सावधानी एवं संवेदनशीलता’ बरतने की सलाह दी। इससे पहले अगस्त मध्य में देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने कहा था कि ढीले-ढाले ढंग से तैयार कानूनों की व्याख्या करने में संवैधानिक न्यायालयों को कठिनाई होती है। इसका एक समाधान यही है कि कोई भी कानून तैयार करने से पहले संसद में इस पर बहस एवं पूर्ण चर्चा होनी चाहिए। इसका एक लाभ यह होगा कि न्यायापालिका उस संदर्भ को बखूबी समझ पाएगी जिसे ध्यान में रखकर संबंधित कानून बनाया गया है। पिछले एक वर्ष के दौरान तीनों नए कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों को जब अपनी बात रखने के लिए कहा गया तो उन्होंने उच्चतम न्यायालय की बात सुनने से इनकार कर दिया।
ऐसे मामले यदा-कदा सामने नहीं आते हैं और एक दूसरे से अलग भी नहीं होते हैं। ऐसे उदाहरण राज्य के अंगों-कार्यपालिका, न्यायपालिका, राजनीतिक वर्ग एवं विभिन्न संबंधित पक्षों सहित आम लोगों में गहरी निराशा के परिचायक हैं। हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया और इसके विभिन्न घटक जिस तरह से काम कर रहे हैं उनसे कोई भी संतुष्ट नहीं है। जब हमारा संविधान तैयार हुआ था तो इसे एक क्रांतिकारी और उदार सिद्धांतों का एक उम्दा उदाहरण माना गया था। समय के साथ इसमें बदलाव का भी पर्याप्त प्रावधान था। मगर अब यह उस तरह काम नहीं कर रहा है जिस तरह से उसे करना चाहिए। अगर 1949 में तैयार हुए संविधान में 72 वर्षों में 105 संशोधन की जरूरत होती है और सातवीं अनुसूची में 280 से अधिक कानून के वर्णन से न्यायपालिका को इनकी विवेचना में कठिनाई पेश आती है, साथ ही सड़क पर बैठेलोग कानून में बदलाव का कारण बन जाते हैं तो निश्चित तौर पर हमें संविधान बदलने की जरूरत आन पड़ती है। अमेरिकी संविधान को अस्तित्व में आए लगभग ढाई सौ वर्ष पूरे हो गए हैं मगर इसमें अब तक कुल 27 संशोधन ही किए गए हैं। भारत में हरेक तीन वर्षों में दो बदलाव करने पड़ रहे हैं। यह शायद ही स्थिर राजनीति के लिए अनुकूल है।
आखिर भारतीय संविधान में किस तरह की त्रुटियां हैं? यह तो सभी पहले से ही जानते हैं कि यह भारत की वास्तविकताओं को परिलक्षित नहीं करता है। एक बात तो साफ दिख रही है कि कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका सहित राज्य के विभिन्न अंगों एवं लोकतंत्र में सबसे अधिक शक्तिशाली जनता के बीच आपसी समन्वय का नितांत अभाव है। मसलन न्यायपालिका को इतनी अधिक ताकत मिली है कि वह संविधान का उल्लंघन नहीं करने वाले कानून को भी निरस्त कर सकती है, वहीं कार्यपालिका विधायिका पर भारी पड़ती है। इसी तरह, राज्यों की तुलना में केंद्र को कहीं अधिक आर्थिक अधिकार प्राप्त हैं और इसी तर्ज पर राज्यों के पास स्थानीय निकायों से अधिक ताकत है। संक्षेप में कहें तो लोकतंत्र के इस वृक्ष की जड़ कमजोर है।
इसका नतीजा यह है कि राज्य का कोई भी अंग दूसरे अंग को उत्तरदायित्व का निर्वहन करने से रोक सकता है और इनमें कोई भी अपने अधिकारों का इस्तेमाल वैध एवं प्रभावी तरीके से नहीं कर सकता है। न्यायपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति कर सकती है मगर यह कार्यपालिका को परोक्ष रूप से ऐसी नियुक्तियों को प्रभावित करने से नहीं रोक सकती है। जब उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का प्रावधान निरस्त कर दिया तो कार्यपालिका ने अब नियुक्ति में देरी कर कुछ नियुक्तियों पर हामी नहीं भरने का अधिकार हासिल कर लिया है। न्यायपालिका अनुच्छेद 142 के तहत कानून भी बना सकती है मगर इसके क्रियान्वयन के लिए उसे राज्य के संसाधनों की जरूरत होगी और वह संसाधन कार्यपालिका ही दे सकता है। इसी तरह, विधायिका को कानून बनाने का अधिकार है मगर सामाजिक दबाव एवं सड़क-नुक्कड़ पर हो रहे विरोध प्रदर्शन के कारण यह उपयुक्त कदम नहीं उठा पाती है। देश के ज्यादातर हिस्सों में गोहत्या पर पाबंदी के बावजूद गायों की तस्करी और इसके प्रत्युत्तर में हो रही हिंसा इसका एक उदाहरण है।
पिछले कई वर्षों से देश का शीर्ष न्यायालय किसी बड़े संवैधानिक मामले पर निर्णय नहीं ले पाया है। सबरीमला समीक्षा से लेकर अनुच्छेद 370 और नागरिकता संशोधन कानून से लेकर अंतर-राज्यीय विवाद (कावेरी विवाद) का कोई हल नहीं निकल पाया है। न्यायालय ने राज्यों को मंदिरों के नियंत्रण से दूर रहने के लिए कहा है मगर इन निर्देशों का कभी पालन नहीं हुआ है। 2018 में शीर्ष न्यायालय ने कहा था कि एससी/एसटी कानून का इस्तेमाल मनमाने ढंग से लोगों को गिरफ्तार करने के लिए नहीं किया जा सकता है। मगर इस निर्णय पर राजनीतिक गलियारों में इतना शोरगुल हुआ कि संसद ने यह आदेश पलट दिया और बाद में न्यायालय ने भी संसद के इस कदम पर अपनी मुहर लगा दी। उच्चतम न्यायालय ने पुलिस सुधार के निर्देश दिए हैं मगर ज्यादातर राज्यों ने इसे लागू नहीं किया है। सरल शब्दों में कहें तो राज्य के सभी अंगों ने संविधान के प्रावधानों के क्रियान्वयन से अधिक इन्हें निष्प्रभावी करने के तरीके अपनाए हैं। राज्य के सभी अंगों के पास एक दूसरे के अधिकारों पर कैंची चलाने का अधिकार है मगर किसी के पास कोई कानून प्रभावी रूप में क्रियान्वित एवं उसे लागू करने का अधिकार नहीं है। अब इन परिस्थितियों में कानून बनाने का अधिकार सड़क पर विरोध प्रदर्शन कर रहे लोगों को मिल जाए तो इसमें हैरान होने की कोई बात नहीं है। किसानों के प्रदर्शन ने उच्चतम न्यायालय की कार्य शैली को भी प्रभावित किया है। शीर्ष न्यायालय ने किसी भी पक्ष की बात सुने बिना कृषि कानूनों पर रोक लगा दी। शक्ति में ऐसे असंतुलन केवल कानून में बदलाव या संविधान में संशोधन कर दुरुस्त नहीं किए जा सकते हैं।
सभी लोगों के प्रतिनिधित्व वाली एवं एक समावेशी समिति को शायद संविधान पर व्यापक विचार करना चाहिए और उसके बाद सामने आए प्रस्तावों पर नव नियुक्त संविधान सभा या फिर स्वयं संसद को विचार करना चाहिए। नए संविधान के लिए कम से कम 80 प्रतिशत से अधिक मतदान का प्रावधान होना चाहिए। खासकर, कुछ विशेष विषयों में तो अवश्य बदलाव किया जाना चाहिए। पहली बात, समवर्ती सूची समाप्त की जानी चाहिए और ज्यादातर अधिकार राज्यों को देकर कुछ अधिकार ही केंद्र को दिए जाने चाहिए। स्थानीय
निकायों के लिए एक अलग अनुसूची बननी चाहिए ताकि राज्य उनके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं कर पाएं। लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करने के लिए स्थानीय निकाय सर्वाधिक उपयुक्त स्थान हैं मगर इस समय सरकारी संरचना का यह सबसे कमजोर हिस्सा है। न्यायपालिका और राज्य के बीच अधिकारों के आवंटन पर भी विचार होना चाहिए। न्यायपालिका को कानून बनाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। उच्च न्यायपालिका का विभाजन कर एक शीर्ष अपील न्यायालय और संवैधानिक न्यायालय का गठन होना चाहिए। जनहित याचिकाओं पर निर्णय लेने का अधिकार केवल संवैधानिक न्यायालय को होना चाहिए। इन याचिकाओं पर निर्णय उसी स्थिति में होना चाहिए जब ये मूल रूप से कानून से संबंधित हों। इन दिनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण की रोकथाम के लिए एसयूवी के प्रवेश पर रोक लगाने या फिर केंद्र की टीकाकरण नीति की समीक्षा करने के लिए भी लोग एवं विभिन्न संगठन जनहित याचिकाएं दायर करने लगे हैं। स्थानीय स्तर पर त्रि-स्तरीय राज्य संरचना का अधिकतम इस्तेमाल होना चाहिए ताकि वे स्वयं से जुड़े महत्त्वपूर्ण विषयों पर वे मुखर होकर अपनी बात कह सकें।
(लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
