रामलिंग राजू के अपना अपराध स्वीकार करने से पहले तक वर्ष 2009 में उनकी प्रस्तावित पर्यटन यात्राओं में ‘दावोस’ भी शामिल था। स्विट्जरलैंड के इस शहर में फरवरी में ‘वित्तीय नवीनता’ पर उन्हें भाषण देने पहुंचना था।
लेकिन इस कार्यक्रम का आयोजन करने वाले विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) ने अब उनके कार्यक्रम को ही रद्द करने का फैसला किया है। हालांकि उनके भाषण के रद्द होने पर हैरत नहीं होती, लेकिन शायद यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है।
आखिर इस विषय पर राजू से बेहतर और योग्य उद्यमी कौन हो सकता है, जिसने अपनी बैलेंस शीट को काफी साफ-सुथरा और परेशानियों से कोसों दूर रखा। अगर डब्ल्यूईएफ ने थोड़ा विचार किया होता तो वे राजू को जेल की कोठरी में से ही पावर प्वॉइंट की अपनी वीडियो प्रस्तुति देने के लिए जरूर कहते।
सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज की कहानी विडंबनाओं से भरी पड़ी है। सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) सेवाएं मुहैया कराने वाली यह कंपनी ऐसे प्रोग्राम विकसित करने के लिए जानी जाती थी, जिससे कारोबार में इजाफा हो।
यहां तक कि सत्यम अपनी ईमानदारी के लिए इतनी मशहूर थी कि उसे कॉर्पोरेट प्रशासन के लिए प्रमुख ग्लोबल अवॉर्ड से सम्मानित भी किया गया और वह भी तक जब वह अपने वित्तीय परिणाम और काल्पनिक बैलेंस-शीट पेश कर रही थी। सच, कंपनी ‘वित्तीय नवीनता’ के योग्य है?
दुनिया की बराबरी को बेताब
सत्यम घोटाला तो एक हिस्सा है और वह भारतीय कंपनियों की वैश्विक योग्यता को हासिल करने के सपने को उजागर करता है। डार्विन के सिध्दांत के मुताबिक हर प्रजाति समय के अनुसार अपने पूर्वजों से बेहतर होती जाती है और भारतीय कॉर्पोरेट माहौल भी एक ऐसा ही सच है।
इस देश में फलते-फूलते कारोबारों की स्थिति यह है कि वे कहीं भी मुकाबला करने के लिए तैयार हैं। देश के सभी बढ़िया और तेज उद्यमी वैश्विक बाजारों में अपने कदम रखना चाहते हैं। वे कई देशों और अलग-अलग माहौल में अपने कारोबार को चलाने के लिए अपनी योग्यताओं को विकसित करने की फिराक में हैं।
भारतीय मुख्य कार्य अधिकारियों (सीईओ) की जुबान से ‘विश्व की बेहतरीन कार्यप्रणाली की बराबरी करना’ सरीखे शब्द मक्खन की तरह फिसलते हैं। पिछले कुछ वर्षों में सीमाओं के पार कई बड़े अधिग्रहणों में भारतीय कंपनियों का हाथ रहा।
इस चलन के पीछे एक काला पक्ष भी है। एनरॉन और वर्ल्डकॉम की बराबरी कर सत्यम ने आखिरकार यह भी साबित कर दिया है कि भारतीय कंपनियों के पास भी अक्ल है, जिससे वे ठगी के कुछ खास क्षेत्रों में विश्व की बेहतरीन कार्यप्रणालियां अपनाकर उन्हें पछाड़ भी सकती हैं।
भारतीय कॉर्पोरेट प्रशासन के नियम अमेरिकी प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग (एसईसी) के नियमों को आदर्श मानकर बनाए गए। इसमें कई स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति और वित्तीय घोषणाओं के कड़े मानकों की जरूरत होती है।
भारत के बड़े कारोबार सभी विदेशों में सूचीबध्द होने या ईसीबी (बाह्य वाणिज्यिक ऋण) के इच्छुक है, साथ ही वे अंतरराष्ट्रीय बाजारों में प्रचलित अमेरिकी लेखा पध्दति जीएएपी के अनुसार बैलेंस-शीट तैयार करते हैं।
आंकड़ों का काल्पनिक संसार
हालांकि इन नियमों के साथ चलते हुए भी राजू अपने मुख्य आंकड़ों को 10 गुना बढ़ा-चढ़ाकर दिखा सके और वे ऑडिटिंग की 4 प्रमुख कंपनियों में से एक को अपने काल्पनिक आंकड़ों की पुष्टि करने के लिए मनाने में भी कामयाब रहे।
ऐसा सुनने को मिल रहा है कि उसी ऑडिटर ने सत्यम की बैलेंस शीट पर दस्तखत किए हैं, जिसने बुरी किस्मत वाले ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के वित्तीय आंकड़ों पर हस्ताक्षर किए थे।
8,500 करोड़ रुपये की कंपनी (वित्त वर्ष 2007-08 के सत्यम के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक कंपनी का कुल कारोबार 8,473 करोड़ रुपये था) के खाते हमेशा एक ही व्यक्ति के हाथों बने हों, ऐसा नामुमकिन है और न ही एक ही व्यक्ति ने ऑडिटिंग की होगी।
लेकिन राजू और उनके साथी प्राइस वाटरहाउस (पीडब्ल्यू) के पूरे ऑडिट दल को ही साल-दर-साल अपने परिणामों में फेर-बदल करने के लिए मना पाने में सफल रहे होंगे।
इससे ज्यादा क्या कहें कि वे अपने ही ब्रांड को इस बात के लिए राजी कर पाए, जिसमें आईटी के दिग्गज और बिजनेस स्कूलों के प्रोफेसर बतौर स्वतंत्र निदेशक शामिल हैं।
ये धोखे से भरे हुए नतीजे हमेशा ही भरोसे के लायक रहे। सत्यम ने हमेशा बढ़िया मार्जिन का दावा किया जो कभी अधिक नहीं लगे। कुछ आईटी कंपनियों (इन्फोसिस, विप्रो और टीसीएस आदि) ने अधिक मुनाफा और विकास दर्ज किया।
इस वजह से सत्यम के दावे अधिक विश्वसनीय लगे- इतने विश्वसनीय आंकड़ों को बिना किसी रुकावट के अमेरिकी और भारतीय लेखा मानकों के अनुसार पुन: व्यवस्थित कर दिया गया।
यहां तक कि जब मायटास करार को ठंडे बस्ते में डाला गया तो लोगों को लगा कि सत्यम के पास उसकी बैलेंस शीट में 5,000 करोड़ रुपये बतौर आरक्षित पूंजी के रूप में हैं।
यह इतनी बढ़िया कारीगरी से किया गया कि पिकासो को भी जलन हो जाए। बात इतनी है कि राजू ने जितने कहे थे, कंपनी के बहीखातों में उससे काफी कम पैसे थे। जालसाजी का मुखौटा पहने ये बैलेंस शीट पेश कर, उन्होंने अपने शेयरों की कीमतें काफी अधिक बढ़ाईं। उन्होंने निवेशकों को खुश किया।
इस अपराध का कोई शिकार नहीं हुआ, ऐसा नहीं था। शेयरों में निवेशकों की कुल पूंजी की कीमत 90 प्रतिशत से भी अधिक गिर गई और 50,000 से अधिक नौकरियों पर तलवार लटकने लगी। पांच पन्नों के अपराध स्वीकारोक्ति वाले बयान और इस्तीफे की घोषणा होने से पहले कंपनी के भीतर भी कई फेर-बदल हुए।
लेकिन अब भी सत्यम कंप्यूटर्स मौजूद है। इस मामले में धोखाधड़ी उन सब गड़बड़ियों से अलग है, जिनसे भारतीय कॉर्पोरेट जगत पहले रू-ब-रू हो चुका है। पहले वित्तीय क्षेत्रों में हुए घोटाले आमतौर पर सीधे-सीधे अनुचित रवैये पर निर्भर करते थे।
समय के हिसाब से इनके तरीके बदलते रहे हैं। पोंजी इनमें सबसे पुराना तरीका है जिसे कई घोटालों में देखा गया।
सीआरबी का जन्म
एक सीआरबी पध्दति है, जिसे सी. आर. भंसाली ने विकसित किया था। भंसाली 1990 के दशक के शुरू में कारोबार किया करते थे।
यह लगभग वही समय था जब नियंत्रण तो कम था, लेकिन नियमों को बनाया जा रहा था और नए बने प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड और भारतीय रिजर्व बैंक के बीच एक-दूसरे से आगे निकलने की दौड़ चल रही थी।
सीआरबी ने आईपीओ के ढांचे में कमजोरियों का फायदा उठाया और एक दूसरे से आगे निकलने की दौड़ ने तकरीबन 100 कंपनियों की एक शृंखला बना दी, जिसे सीआरबी समूह कहा जाने लगा।
हर कंपनी के पास इक्विटी का छोटा हिस्सा था, ये एक-दूसरे में निवेश करती थीं और प्रमोटरों की इच्छानुसार उनकी शेयर कीमतों को कम ज्यादा किया जाता था।
आखिर सीआरबी कंपनियों ने किया क्या? ये कंपनियां बड़ा रिटर्न देने का वायदा करती थीं, लेकिन बिना किसी छोटी-से-छोटी जानकारी के। कुछ कंपनियों का दावा था कि वे म्युचुअल फंड में काम करती हैं तो दूसरी कंपनियां कहती हैं कि वे दूसरी तरह के निवेश के कारोबार से जुड़ी हैं।
इनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे ऐसी वित्तीय कंपनियां थीं जो दूसरों के पैसे के साथ कुछ घातक खेल खेलती थीं। इनमें पोंजी भी शामिल थी, क्योंकि पुराने सावधि जमा पर निवेशकों को दूसरे ग्राहकों की नकद राशि से रिटर्न दिया जाता था।
सीआरबी कंपनियां आईपीओ, सावधि जमा योजना और म्युचुअल फंड योजनाओं में काम किया करती थी, जिसका एक साथ कुल कारोबार लगभग 900 करोड़ रुपये का था। बाद में यह सब खत्म हो गया जब सीआरबी के खिलाफ लगभग 400 से अधिक मामले दायर किए गए।
हालांकि सीआरबी कारोबार के कई सकारात्मक परिणाम भी थे, लेकिन 900 करोड़ रुपये एक बड़ी रकम थी। सेबी और आरबीआई तो कई दिनों तक घोटालों की जांच को लेकर एक दूसरे पर आरोप लगाते रहे और लंबे अरसे या फिर एक दिलचस्प तमाशे के बाद दोनों संस्थाओं ने आखिरकार अपने-अपने कार्यक्षेत्र का विभाजन कर ही लिया।
सेबी ने आईपीओ मानकों को कड़ा कर दिया और साथ ही इक्विटी आधारित योजनाओं में गारंटी रिटर्न पर प्रतिबंध लगा दिया। बहरहाल, घोटालों का एक अन्य रूप भी होता है, जिसे नकद के जरिए हवा दी जाती है और ये नकद बैंकों और सहकारी बैंकिंग प्रणाली के जरिए पहुंचाए जाते हैं।
भारतीय बैंकिंग में सहकारी बैंकिंग प्रणाली एक ‘ब्लैक होल’ की तरह है, जिसके नियमन अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की तुलना में कई गुणा ढुलमुल होते हैं।
आज तक इन महकमों में नियमन को इसलिए भी दुरुस्त नहीं किया जा सका क्योंकि पश्चिमी भारत की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां सहकारी बैंकिंग प्रणाली को एक निवेश कंपनियों के रूप में इस्तेमाल करती हैं।
और भी हैं नटवरलाल
सहकारी बैंकिंग प्रणाली से जुड़ा 1991-92 का हर्षद मेहता घोटाला और 1997-2000 का केतन पारेख घोटाला आधुनिक भारत के सबसे कुख्यात घोटालों में से है। हर्षद-भाई को खास तौर से अनौपचारिक नकद में सेंध लगाने के लिए जाना जाता है जो कि कारोबारियों के पक्ष में था।
भाई की कार्यप्रणाली कुछ ऐसी थी, सबसे पहले बैंक के खंजाची से अच्छी दोस्ती बनाओ। फिर उससे सुबह 1 लाख रुपये उधार लो और उसका इस्तेमाल कारोबारी पूंजी के लिए करो।
शाम होने तक बैंक के खंजाची को कुछ ‘तोहफे’ (जब आखिरी बार जांच हुई थी तो प्रति एक लाख रुपये पर 200 रुपये) के साथ पैसे वापस कर दो।
हालांकि हर्षद-भाई के दिमाग की तरंगे कहती थी कि किसी खंजाची से दोस्ती करने के बजाय बैंक के अध्यक्ष से दोस्ती करना ज्यादा फायदेमंद होता है।
ऐसा इसलिए भी है क्योंकि तब आप एक लाख रुपये से कई गुणा अधिक रकम उधार ले सकते हैं और आपके पास समय की भी कोई कमी नहीं होगी।
मसलन, कोई भी बैंक भारतीय रिजर्व बैंक को शेष नकद के बारे में पखवाड़े में एक बार ही सूचित करता है। हालांकि असुविधाजनक घाटे के भुगतान के लिए नकदचक्र के विस्तार का काम उस वक्त आपके लिए और भी आसान हो जाएगा जब आपकी जेब में ही सहकारी बैंक हो, जैसा कि हर्षद भाई के पास था।
हर्षद मेहता बैंकिंग प्रणाली से नकद बाहर ले जाता था और शेयर बाजार में निवेश किया करता था। उसकी अनर्गल खरीद की वजह से सिर्फ दो महीनों में ही सेंसेक्स 200 फीसदी ऊपर पहुंच गया था।
हालांकि हर्षद भाई की किस्मत ने आखिरकार एक दिन धोखा दे ही दिया। भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पास एक विशेष ऑडिट है जो कि उधार लिए गए अप्रत्याशित मांग की वापसी पर नजर रखता है।
उस दौरान एक नए नियामक के रूप में सेबी के विरोध में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज पर धरना प्रदर्शन चल रहा था। इस वजह से हर्षद न ही शेयर की बिक्री कर सका और न ही नकद वापसी और आखिरकार कानून के हत्थे चढ़ ही गया।
केतन पारेख ने बैंकिंग प्रणाली में सेंध लगाने के लिए कुछ अलग तरीका अपनाया। उसने दलालों का एक नेटवर्क बनाया। यह नेटवर्क एक काटर्ल (उत्पादक संघ) के रूप में काम करता था और एक-दूसरे में ही कारोबार कर कीमतों में उछाल लाया करता था।
अंतत: केतन पारेख को शेयर बाजार के इस खेल में मात मिल ही जाती है और ‘बियर काटर्ल’ (जिसमें शंकर शर्मा, निर्मल बंग भी शामिल थे) के नाम से जाने जाने वाले इस नेटवर्क से पर्दा उठता है।