क्रिकेट परिदृश्य पर इस समय खासी हलचल है। ऑस्ट्रेलिया में टी-20 क्रिकेट विश्व कप चल रहा है। इस बीच भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) में बदलाव की बयार बहती दिखी। बोर्ड की कमान संकोची-विनम्र, किंतु मजबूत इरादों वाले रोजर बिन्नी ने संभाल ली है।
ऐसे में सहज ही एक प्रश्न पूछने का समय आ गया है कि क्या अब लार्ड्स को ‘क्रिकेट के मक्का’ की पदवी से अपदस्थ कर उसकी जगह मुंबई को यह तमगा दिया जाना चाहिए। आखिरकार यह बीसीसीआई ही तो है, जो अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) को सबसे अधिक संसाधन मुहैया करा रहा है।
बात इतनी सी है कि एक वक्त जो इंगलैंड ने किया, वही अब भारत कर रहा है। वह धन-संसाधन उपलब्ध कराने के साथ-साथ उत्कृष्ट प्रतिभाएं भी दे रहा है। निःसंदेह वह एक प्रभुत्वशाली क्रिकेट महाशक्ति है। इसीलिए आप भले ही जिस पैमाने से देखें तो कोई संदेह नहीं रह जाता कि भारत क्रिकेट के मक्का की पदवी को लेकर अपना दावा करने से परहेज न करे।
जरा भारतीय तथ्यों और ब्रिटिश मिथकों पर विचार कीजिए। भारतीय अर्थव्यवस्था अब ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से बड़ी है। बीसीसीआई की कमाई मैरलबन क्रिकेट क्लब (एमसीसी) से कई गुना ज्यादा है। भारत में बेहतरीन क्रिकेटरों की तादाद ब्रिटेन की तुलना में तीना गुना अधिक है। और भारतीय क्रिकेट का इतिहास भी ब्रिटेन से कमतर नहीं। इस लिहाज से क्रिकेट के मक्का की पदवी भारत में किसी स्टेडियम को भला क्यों नहीं मिलनी चाहिए?
जहां तक ऐसे हस्तांतरण की बात है तो यह बहुत आसान होगा, क्योंकि ब्रिटिश बिना किसी मुश्किल के अगर कोई भाषा समझते हैं तो वह भाषा है- पैसों की। यकीन मानिए, यदि सही दाम मिलें तो अंग्रेज अपना शाही मुकुट तक बेच दें, जिसका सबसे बेशकीमती हिस्सा वैसे भी भारतीय ही है। अब एमसीसी से लॉर्ड्स ब्रांड खरीदने के विकल्पों की चर्चा कर लेते हैं।
यदि उसकी लाल एवं पीली धारी वाली भौंडी क्लब टाई अखरे तो इस ब्रांड को ही दफन किया जा सकता है। खरीदारी के विस्तृत खाके पर काम हो सकता है, जिसमें बुनियादी रूप से मूल्यांकन की समस्या आती है। शुरुआत के लिए बीसीसीआई को एक पेशकश कर एमसीसी को बतानी चाहिए, बिल्कुल वैसे जैसे साम्राज्यवादी अंग्रेज किया करते थे कि या तो इसे स्वीकार करो अन्यथा हम आईसीसी की फंडिंग रोक देंगे।
इससे इतर, स्वतंत्र रूप से बीसीसीआई को आईसीसी मुख्यालय भारत ले आना चाहिए। वह पहले ही एक बार दुबई स्थानांतरित हो चुका है। इस लिहाज से इस मामले में एक मिसाल भी है। बहरहाल, लार्ड्स को क्रिकेट का मक्का करार दिए जाने वाले दावे की बात करें तो ब्रिटिश ऐसे तमाम दावे करते हैं। मसलन-लोकतंत्र का गढ़? वेस्टमिंस्टर। भौतिकी का गढ़? कैंब्रिज विश्वविद्यालय। खगोलशास्त्र का गढ़? ग्रीनविच। आधुनिक मेडिसन का गढ़? एडिनबर्ग।
ऐसी सूची लगातार लंबी होती जाएगी। यहां तक कि वे विंबलडन को भी ‘द’ चैंपियनशिप कहते हैं। ये साम्राज्य के वाजिब मिथ्याभिमान थे। ब्रिटेन राजनीतिक, आर्थिक एवं सैन्य रूप से इतना प्रभावशाली था कि वह आसानी से ऐसे दावे कर सकता था। मगर वह दौर काफी पहले ही बीत गया है। अब कहानी बदल गई है। उपरोक्त तीनों पैमानों पर आज ब्रिटेन एक पराश्रयी देश बन गया है, जो बमुश्किल अपना संचालन कर सकता है।
इसे केवल नैतिक रूप से स्वीकार्य वित्तीय परंपराओं के प्रति अपने दृढ़ आग्रह के कारण ही महत्त्व दिया जाता है। जहां तक क्रिकेट का प्रश्न है तो जो कुछ लोग परंपराओं की दुहाई से जुड़ी बकवास करते हैं, वे जरा सा मुनाफा देखते हुए सबसे पहले उन्हें तिलांजलि देते हैं। यह पलायन-विचलन टेस्ट क्रिकेट से लेकर एकदिवसीय, फिर टी-20 से लेकर 100 गेंदों वाले मुकाबले तक दिखता है। टेनिस में तो वे वर्षों से गेंद के आकार और घास की ऊंचाई के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।
दूसरे शब्दों में कहें तो परंपरा के अनुसार लार्ड्स क्रिकेट का मक्का है, यह असल में एक ब्रिटिश शिगूफा ही है और बड़ी हैरानी की बात है कि अभी तक इसे किसी ने चुनौती भी नहीं दी। कुछ पैसों की पेशकश के साथ अब बीसीसीआई को ऐसा करना चाहिए।
अब सवाल यही उठता है कि क्या क्रिकेट के मक्का के किसी दूसरी जगह जाने को क्रिकेट खेलने वाले अन्य देश स्वीकार करेंगे? आखिर वे क्यों नहीं स्वीकार करेंगे? श्वेत देशों में अब इंगलैंड, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड ही क्रिकेट खेलने वाले प्रमुख देश रह गए हैं। यहां तक कि दक्षिण अफ्रीका भी अब इस पांत से बाहर हो गया है। आयरलैंड, स्कॉटलैंड और नीदरलैंड केवल श्वेत वोट बढ़ाने के लिए हैं, लेकिन उन्हें टेस्ट खेलने का दर्जा हासिल नहीं।
इसके उलट दक्षिण एशिया में आधुनिक क्रिकेट का शक्ति केंद्र भारत है। उच्च स्तरीय क्रिकेटर देने वाला दुनिया का दूसरा बड़ा देश पाकिस्तान है। श्रीलंका है, जो भले ही मौजूद फॉर्म में लड़खड़ाए, लेकिन वह अपने आप में खास है।
बांग्लादेश भी तेजी से स्थापित हो रहा है। वहीं अफगानिस्तान भी तैयार हो रहा है, जो अगले दस वर्षों में एमसीसी की टीम को पटखनी दे देगा। इसके अलावा वेस्टइंडीज और जिम्बाब्वे हैं। दक्षिण अफ्रीका की स्थिति कुछ असंगत है। अगर पूरा खर्चा-पानी नहीं भी तो बीसीसीआई उनका खासा ख्याल जरूर रखता है। बड़ी सब्सिडी देता है।
इसे देखते हुए क्रिकेट का मक्का आखिर कहां होना चाहिए? लंदन या मुंबई? वास्तव में, अगर लंदन में दो मैदान हैं तो मुंबई में तीन और सभी आला दर्जे के, जिन्हें हम आईपीएल के दौरान देख भी चुके हैं।
और अंत में, यदि किसी लिहाज से आपको यह मजाक लग रहा हो तो ऐसा कदापि नहीं है। यह बड़ा ही गंभीर सुझाव है। जरा 1983 के विश्व कप को याद कीजिए? तब टीम के अधिकांश खिलाड़ियों ने यही सोचा कि यह कहना किसी चुटकुले से कम नहीं होगा कि भारत खिताब जीत जाएगा। केवल कपिल देव ने ऐसा नहीं किया। और हम विश्व कप जीत गए।
