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बिज़नेस स्टैंडर्ड
  लेख  दिमाग नहीं, दिल की सुनते हैं ज्यादातर भारतीय उपभोक्ता
लेख

दिमाग नहीं, दिल की सुनते हैं ज्यादातर भारतीय उपभोक्ता

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —May 1, 2009 3:36 PM IST
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साबुन, डिटरजेंट, शैंपू, सौंदर्य देखभाल, मंजन, चाय, कॉफी और प्रसंस्कृत खाद्य सामग्री जैसे तेज खपत वाली उपभोक्ता वस्तु खंड में सर्वाधिक सफल ब्रांडों के विज्ञापनों के कुछ नमूनों पर विचार कीजिए।
सभी विज्ञापनों में इस बात के अलावा क्या कॉमन है कि सभी श्रेणियों में पश्चिमी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का वर्चस्व है। अच्छा, वे सभी एक ही बात करते हैं, तर्क के आधार पर गढ़ी गई कहानियां जिनमें उत्पाद के बारे में तथ्यों और वैज्ञानिक पहलुओं की भरमार है।
ये सभी प्रयोगशाला के निष्कर्ष और वैज्ञानिक मुहावरों के आधार पर एक दूसरे को मात देते हुए नजर आते हैं। वे जीवन के एक हिस्से या फिर सेलेब्रिटी एनडोर्समेंट का सहारा लेते हैं और मनोरंजन के औसत स्तर से नीचे रही नजर आते हैं। इनमें से ज्यादातर विज्ञापनों को सख्त उपभोक्ता शोध से होकर गुजरना पड़ता है और उसके बाद ही उन्हें हरी झंडी मिलती है।
ये विज्ञापन निश्चित तौर से कारगर साबित होते हैं क्योंकि इनमें से कई ब्रांड मार्केट लीडर हैं और प्रमुख हिस्सेदारी रखते हैं। तो, क्या हम भारतीय लोग ऐसे तार्किक प्राणी हैं जिन्हें साबुन या मंजन या कोल्ड क्रीम जैसे सस्ते उत्पाद खरीदने पर सहमत करने के लिए वैज्ञानिक क्लास देने की जरूरत है? या यह भारत जैसे ‘विकासशील’ देश के बारे में ‘पश्चिमी विकसित बाजार’ की सोच को दर्शाता है?
इसके विपरीत इन बहुराष्ट्रीय ब्रांडों के समान ही बड़े और सफल ‘स्थानीय’ ब्रांडों के सफल विज्ञापन दर्शकों को चुनौती देते हुए नजर आते हैं और उन्हें उत्तेजित करते हैं। ये नीरस नहीं हैं और सीधे सहमत कराने की जगह भावनाओं को उभारते हैं। फेविकोल ने एक ब्रांड तैयार करने के लिए पिछले एक दशक के दौरान भारतीय जीवन से जुड़े छोटे-छोटे पहलुओं को उभारा है और आज यह उत्पाद अपनी श्रेणी में एक बेंचमार्क है।
हच ने ‘न्यू मिलेनियम’ के जरिए अपनी कहानी कहने के लिए रूपकों का सहारा लिया। इसके जरिए उत्पाद की विशेषता बताने के साथ ही ब्रांड के प्रति भावनात्मक जुड़ाव तैयार किया गया। फेविकोल एक ग्लू है, जिसका इस्तेमाल बढ़ई द्वारा फर्नीचर बनाने के लिए किया जाता है।
हच और वोडाफोन एक प्रौद्योगिकी आधारित उत्पाद है। दोनों ही उत्पादों में तकनीकी तथ्यों को पेश करने की काफी संभावनाएं हैं। सपाट और तथ्य आधारित विज्ञापन के जरिए लंबे समय तक उपभोक्ता को प्रतिबद्ध बनाए रखा जा सकता है और वे तार्किक निर्णय कर सकते हैं। हालांकि दोनों इसके प्रति उदासीन रहे हैं और सफल हुए हैं। भारतीय लोगों, समाज और संस्कृति की सच्चाई को बेहतर ढंग से कौन दर्शाता है?
सच्चाई यह है कि हम ज्ञान आधारित और मूल्यों को लेकर सजग नस्ल हैं। हम जो कुछ भी खरीदते हैं उससे अधिक प्रतिफल चाहते हैं। हम ज्ञान को प्रमुखता देते हैं। परंपरागत जाति व्यवस्था में ब्राह्मण को सबसे अधिक सम्मान मिला। हालांकि आधुनिक समाज में डिग्री के लिए शोर मचाना खेदजनक है।
बीच में कॉलेज छोड़ देने को अच्छा नहीं माना जाता है और अगर किसी सफल व्यक्ति ने कभी कॉलेज छोड़ा है तो वह इस तथ्य को जगजाहिर करने के बजाए छिपाना अधिक पसंद करता है। (जबकि कई सफल अमेरिकी उद्यम इस तथ्य को स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाते हैं।) ये सभी बिंदु इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां सही राह पर हैं।
हालांकि जब आप भारतीय समाज के चारों तरफ देखिए तो दूसरी ही तस्वीर दिखेगी। आमतौर पर बॉलीवुड फिल्मों में सभी तर्कों को हवा में उड़ा दिया जाता है। गांव की कहानी में अचानक गाने के दौरान स्विटजरलैंड की वादियां नजर आ सकती हैं और दर्शक बड़ी ही सहजता से इसे नजरअंदाज करते हुए आनंद लेते हैं। औसत टीवी धारावाहिकों का हाल भी कुछ ऐसा ही है।
दर्शक अक्सर अभिनेताओं के चरित्र और उसके वास्तविक जीवन में घालमेल कर देते हैं और उसे अलग-अलग नहीं देख पाते हैं। ऐसे मनोरंजन के दौरान भारतीयों की वह तर्कसंगतता कहां चली जाती है? अपनी संस्कृति और कहानी कहने के तरीके को अधिक गहराई से देखते  हैं। हमारे दो महाकाव्य- रामायण और महाभारत- में कथानकों, उपकथानकों और पूर्वकथानकों को एक भव्य तमाशे में पिरो दिया गया है।
चरित्र काफी लंबे चौड़े हैं, उनमें से ज्यादातर एक दूसरे से संबंधित हैं और सबके कार्य-कलापों को विगत की घटनाओं के साथ संबंध है। और आम भारतीय ऐसी जटिल कहानी को सहजता से स्वीकार कर लेता है। वह सभी कथानकों को याद रखता है और इसका अर्थ भी खोज लेता है। ऐसे ही कथानक उसे भारतीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों में देखने को मिलते हैं।
इसी तरह भारतीय समाज के मूल्य पंचतंत्र, अकबर-बीरबल या तेनालीराम की कहानियों के जरिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ते रहे हैं। यह भी रोचक है कि इन कहानियों के अंत में कहानी से मिलने वाली शिक्षा के बारे में बताया जाता है न कि कोई आदेश दिया जाता है। यहां तक कि भगवत गीता का जोर भी आदेश देने के बजाए, क्या सही है और क्या गलत, यह बताने पर अधिक है।
यह श्रोता पर छोड़ दिया गया है कि वह अपनी तरह से इसे समझे और व्याख्या करे। दूसरी ओर ज्यादातर विज्ञापन आदेश देते हुए प्रतीत होते हैं। क्या विपणनकर्ता गलत राह पर हैं? इसके अलावा भारतीय नाटय शास्त्र दर्शकों के साथ सबंध स्थापित करने के लिए भावों के महत्त्व को रेखांकित करता है। इसमें नौ भावों की पहचान की गई है जो दर्शकों को प्रभावित करते हैं।
ऐसे भाव स्थानीय हास्य कवि सम्मेलनों और राजनीतिक कार्टूंस में  देखने को मिलते हैं। इससे बौद्धिक चुनौतियों का आनंद लेने की स्थानीय भारतीयों की क्षमता का पता चलता है। भारतीयों के आतार्किक होने का सबसे बड़ा प्रमाण उसके द्वारा साझेदारी में किए जाने वाले कारोबार से मिलता है।
पश्चिमी लोग लिखित समझौतों के आधार पर काम करते हैं, दूसरी ओर भारतीयों के लिए ‘जुबान’ का महत्त्व बहुत अधिक है। अगर उसका दिल गवारा करता है तो वह आपके साथ कारोबार करेगा। सिर्फ बातों के आधार पर वह काम शुरू करने के लिए तैयार रहता है और संबंधों को आगे बढ़ाता है। भावनात्मक आधार पर वह अपने कारोबारी लेनदेन को आगे बढ़ाता है।
अगर कुछ और तरीकों से भी भारतीय लोग भावनाओं को प्रदर्शित करते हैं तो विज्ञापन और ब्रांडों के लिए अलग तरीके क्यों अपनाए जाते हैं? आखिरकार सभी ब्रांडों का आधार भावनात्मक ही है। विपणनकर्ताओं को यह समझना होगा कि वह उपभोक्ताओं के साथ ही लोगों को भी अपना सामान बेच रहे हैं।
उन्हें यह भी समझना होगा कि एक उपभोक्ता के तौर पर भारतीय मूल्यों की परवाह करते हैं और एक व्यक्ति के तौर पर वे भावुक हैं। इसलिए उनके दिमाग पर वार करने के बजाए दिल को छूने के बेहतर नतीजे सामने आएंगे। हार्ड सेलिंग के बजाए सॉफ्ट सेलिंग के बेहतर नतीजे सामने आएंगे।

indian consumers did not listen from wise either heart
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