वक्त गुजरता जा रहा है, लेकिन वित्त बाजार में उठा तूफान रुकने का नाम नहीं ले रहा। ऐसी हालत में वारेन बफेट ने डेरिवेटिव्स के बारे में जो कहा है, वह सच साबित हो रहा है।
बफेट ने इन्हें ‘जनसंहार के हथियार’ की संज्ञा दी है और ये सचमुच बैंकों और उनके कॉर्पोरेट क्लाइंट को तबाह करने का ही काम कर रहे हैं। सिर्फ पिछले कुछ हफ्तों में ही डॉयचे बैंक को इक्विटी डेरिवेटिव्स की वजह से 40 करोड़ डॉलर की चपत लगी है।
वहीं इक्विटी डेरिवेटिव्स के कारोबार से जुड़े फ्रांसीसी बैंक, कैस डी’एपार्ग्न को तो अक्टूबर में 60 करोड़ पाउंड का नुकसान उठाना पड़ा है। यह किसी फ्रांसीसी बैंक द्वारा घोषित किया गया तीसरा सबसे बड़ा घाटा था। इससे पहले सोसियाते जेनेराल और क्रेडिट एग्रीकोल भी 4.9 अरब पाउंड और 25 करोड़ पाउंड के घाटे का ऐलान कर चुके हैं।
इसके अलावा, कुवैत का गल्फ बैंक जबरदस्त घाटे की खाई में बस गिरने वाला ही है। हालांकि, उसे यह घाटा सीधे-सीधे बाजार में कारोबार की वजह से नहीं, बल्कि कर्ज पर मौजूद जोखिम की वजह से हुआ है। दरअसल, उसने अपने कॉर्पोरेट क्लाइंट के लिए कारोबार किया था, लेकिन अब उनका वह क्लाइंट घाटे को उठाने से इनकार कर रहा है।
दूसरी तरफ, लैटिन अमेरिका और हॉन्गकॉन्ग में भी करेंसी डेरिवेटिव्स की वजह से भारी नुकसान हो रहा है। मेक्सिको के तीसरे सबसे बैंक, कमर्शियल मैक्सिकाना ने करेंसी डेरिवेटिव्स में एक अरब डॉलर गंवाने के बाद खुद को दिवालिया घोषित कर दिया।
दुनिया की सबसे बड़ी सीमेंट कंपनियों में से एक, सीमैक्स को बाजार की वजह से 65 करोड़ डॉलर का घाटा उठाना पड़ा है। इसी तरह अल्फा (20 करोड़ डॉलर) और ग्रुमा (70 करोड़ डॉलर) को भी मोटा ताजा नुकसान उठाना पड़ा है। अगर इन्होंने सचमुच हेज में इतने पैसे गंवाए हैं, तो इसकी भरपाई करने के लिए उन्हें मोटा मुनाफा कमाना होगा।
कमर्शियल मैक्सिकाना के मामले में सारे डेरिवेटिव्स को सिर्फ हेजिंग के लिए नहीं खरीदा गया था। अगर ऐसा होता तो उनके सामने दिवालियेपन की नौबत ही नहीं आती। मेक्सिको सेंट्रल बैंक के गवर्नर ने हाल ही में उन बैंकों की खुले तौर पर आलोचना की थी, जिन्होंने डेरिवेटिव्स बेचे थे।
उनका कहना था कि, ‘इनवेस्टमेंट बैंक एक ऐसी कंपनी की तरह काम कर रहे हैं, जिसका अपने उत्पादों से ही कुछ लेना-देना नहीं है। अगर बहुत मुलायम अंदाज में भी कहूं तो यह बिल्कुल गैर पेशेवाराना है।’ मेक्सिको के बाजार नियामक ने भी चेतावनी दी थी कि अगर बैंकों ने जोखिमों की जानकारी दिए बिना ही डेरिवेटिव्स बेचे तो उनके खिलाफ जांच की जा सकती है।
उनका कहना है कि, ‘जो लोग ऐसी चीजों को बेच रहे हैं, उन्हें इसके बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। हम अपने बाजार में ऐसे मानकों को ही देखना चाहते हैं।’ ब्राजील की कंपनियों को भी इस वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ा है।
लेकिन एक ऐसी कंपनी जिसे इस वजह से काफी घाटा झेलना पड़ा है, उसका नाम है सीटिक पैसिफिक। उसे 2 अरब डॉलर का मोटा-ताजा नुकसान झेलना पड़ा है। हॉन्गकॉन्ग में सूचीबद्ध इस कंपनी की प्रमोटर है चाइना इंटरनैशनल ट्रस्ट एंड इनवेस्टमेंट कॉर्पोरेशन।
इस घाटे की वजह से सीटिक पैसिफिक को अपने प्रमोटर से 1.5 अरब डॉलर का मोटा-ताजा कर्ज लेना पड़ा है। मैंने जब इस बारे में विस्तार से पढ़ा तो मुझे यह मामला दिखा-दिखा सा लगा। सीटिक पैसिफिक का दावा है कि उसने डेरिवेटिव्स का सहारा खुद को डॉलर की मार से बचाने के लिए किया था।
इसके लिए उसने ऑस्टे्रलियन डॉलर और यूरो का सहारा लिया। अगर काफी अच्छी तरह से इस बारे में कहूं तो भी यह खुद को बचाने का यह तरीका काफी ‘अजीब’ था। बाद में डॉलर की कीमत में इजाफा होने की वजह से इस कंपनी को 2 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ा।
लेकिन जिस तरीके से यह सौदा किया गया था, उसमें अगर डॉलर की कीमत में गिरावट आती तो भी कंपनी को थोड़ा-बहुत ही फायदा होता। दूसरी तरफ, कीमत के चढ़ने पर इसे मोटा घाटा उठाना पड़ता और हुआ भी यही। कुछ ऐसा ही नजारा अब हिंदुस्तानी बाजार में भी देखने को मिल रहा है।
साफ तौर पर यह साल डेरिवेटिव्स का ही है और इससे सबसे ज्यादा चोट खानी पड़ी है यूरोपीय और अमेरिकी बैंकों को। अपनी नई किताब में जॉर्ज सॉरोस ने केंद्रीय बैंकों की जमकर आलोचना की है। उनका कहना है कि इन्होंने बैंकों को उतना जोखिम उठाने की इजाजत दे दी, जिसकी गणना नियामक भी नहीं कर सकते थे।
यह बात मैंने भी पहले कही थी। यहां अहम मुद्दा यह है कि यूरोप और अमेरिका में क्या नियामकों के पास गणित की इतनी अच्छी जानकारी थी, जिसके बूते पर वे बैंकों और रेटिंग कंपनियों के इंटर्नल मॉडलों का मूल्यांकन कर सकते थे? आप सोच रहे होंगे कि यही बात तो अपने रिजर्व बैंक से भी पूछी जा सकती है?
पिछले एक साल में देसी करेंसी डेरिवेटिव्स बाजार में जो कुछ हुआ है, उसके आधार पर तो यह सवाल पूछा ही जा सकता है। संसद के सामने जो जानकारी रखी गई है, उसके मुताबिक बाजार को इस तूफान की वजह से 27,300 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। लेकिन सरकार इससे एक बड़ा खतरा मानने से भी इनकार कर रही है।
हेजिंग के साथ जोखिम तो जुड़े ही होते हैं, लेकिन बात भी पक्की है कि इसमें आधे से ज्यादा वायदा कारोबार तो डीलर अपने क्लाइंट के लिए करते हैं। मेरा मानना है कि आज भी लोगों को डेरिवेटिव्स के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। इसलिए यह जिम्मेदारी बैंकों की है, जिन्होंने वायदा कारोबार के बारे में जानकारी दिए बिना ही लोगों को डेरिवेटिव्स बेचे।
यह विनिमय नियमों का एक तरह से उल्लंघन है। वहीं अधिकृत डीलर इस मामले में रिजर्व बैंक के एजेंट के तौर काम करते हैं। इसलिए तो फेमा के तहत किसी भी विदेशी मुद्रा के सौदे में अधिकृत डीलरों को भी शामिल करना चाहिए।
मेरे एक बैंकर दोस्त ने मुझे डेरिवेटिव्स के अनोखे रूपों से रुबरु करवा बताया था। उसके मुताबिक वे लोग इसका इस्तेमाल पिछले कई सालों से कर रहे हैं और इस मामले में पर्र्यवेक्षकों ने कोई सवाल भी नहीं उठाए।
अगर उन पर अंकुश नहीं लगाया तो लोगों को यह हैरानी होने लगेगी कि क्या नियामक अपने काम के बारे में अच्छी तरह से जानते हैं? और खास तौर पर क्या वह ‘हेज’ शब्द का मतलब भी जानते हैं?
जैसा वित्त मंत्रालय के सी.के.जी. नायर और सेबी के एम.एस. साहू ने एक अखबार में हाल ही में लिखा है, ‘नियामकों को बाजार में मौजूद खिलाड़ियों की चालों पर वाह-वाह करने के बजाए उनके उत्पादों और तरीके के बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए। साथ ही, उनके लिए आर्थिक उथल-पुथल मचाने की काबिलियत रखने वालों के बारे में और भी अच्छी जानकारी होनी चाहिए।’