हफ्ते दर हफ्ते महंगाई के आंकड़े इस बात को सच साबित कर रहे हैं कि अब आर्थिक परिस्थितियां बदल चुकी हैं और वह भी काफी तेजी से।
इस वजह से नीति-निर्धारकों को अब महंगाई की चिंता छोड़, विकास दर की तरफ ध्यान देने का काफी मौका मिलेगा। तेजी से कम होती कच्चे तेल की कीमत ने महंगाई की दर को कम करने में सबसे बड़ा योगदान दिया है। साथ ही, इसकी वजह से दूसरी जिंसों की कीमतों में भी तेज गिरावट देखने को मिली है।
वैसे, इसमें उत्पादकों की अपनी क्षमता का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाने और बढ़ते जमा माल के बोझ की वजह से भी जिंसों की कीमतों में यह गिरावट देखने को मिली है।
दिसंबर में कर संग्रह में आई गिरावट भी उसी तरफ इशारा कर रही है, जिसके बारे में दूसरे आर्थिक सूचक पहले से बता रहे थे। जहां तक दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों की बात है, तो उनके बीच भी मंदी का मुकाबला पारंपरिक हथियारों से करने की क्षमता में भारी अंतर है।
अमेरिकी फेडरल रिजर्व और बैंक ऑफ जापान ने अपनी दरों को शून्य पर ले आया है। इसी वजह से अब उन्हें अपनी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए दूसरे रास्तों का इस्तेमाल करना होगा।
लेकिन रिजर्व बैंक और पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना की ब्याज दरें अब भी 6.5 और 5.3 फीसदी के अच्छे-खासे स्तर पर है। महंगाई के गिरते आंकड़े मजबूत कारण मुहैया करते हैं,
ताकि उनमें जल्दी ही और कटौती की जा सके। पूंजी के बाहर जाने का खतरा भी नहीं है क्योंकि विदेशों में ब्याज दर पहले से ही काफी ज्यादा गिर चुकी हैं।
भारत में इसकी जरूरत और भी ज्यादा है क्योंकि चुनावों की वजह से सरकार जुलाई तक का ही बजट पेश कर पाएगी। इससे राजकोषीय नीतियों के मामले में सरकार के पैरों में बेड़ियां साफ नजर आती हैं।
इस वजह से सारा बोझ मौद्रिक नीतियों पर ही आ जाता है। इसीलिए रिजर्व बैंक को रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट और कैश रिजर्व रेश्यो में जल्द से जल्द कमी करनी करनी चाहिए। हालांकि, यहां यह भी याद रखना जरूरी है कि ये कदम जरूरी तो हैं, लेकिन ये संकट से निपटने के लिए पूरे नहीं पड़ेंगे।
मौद्रिक नीतियों का असर तभी शुरू हो सकता है, जब वित्त सेक्टर कम दरों पर कंपनियों और उपभोक्ताओं को कर्ज देना शुरू करे। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। इसका सबूत है सरकारी प्रतिभूतियों की तेजी से घटती कमाई। हालिया दिनों में यह कमाई 6.5 फीसदी के रेपो रेट से भी नीचे जा चुकी है।
यह अब तेजी से पांच फीसदी के रिवर्स रेपो रेट के स्तर पर आ रहा है। मतलब, बैंक अब तेजी से उस बिंदु की तरफ बढ़ रहे हैं, जहां सारी ज्यादा रकम रिवर्स रेपो व्यवस्था में डाली जा रही है ।
या फिर सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश किया जा रहा है। बैंकों की सस्ते ब्याज दरों की कई घोषणाओं के बावजूद भी हकीकत यही है कि ये सारी दरें सिर्फ कागज पर ही मौजूद हैं।
ब्याज दरों में कटौती के साथ-साथ कर्ज देने में इस आनाकानी का हल ढूंढ़ना जरूरी है। नहीं तो, रिवर्स रेपो रेट में अगली कटौती का मतलब सरकारी प्रतिभूतियों से होने वाली कमाई में और भी ज्यादा गिरावट होगी।
इसके लिए हमें कई कदमों की जरूरत होगी, जिसमें सबसे बड़ी जरूरत तो अकाउंटिंग के तरीके में बदलाव की है। पारंपरिक तरीकों की वजह से बैंक गिरती हुई परिसंपत्ति से हुई कमाई को कैपिटल गेन की तरह नहीं दिखा सकते।