भारत में अमेरिका के बाल्टीमोर स्थित इमर्जेंट बायोसॉल्युशंस से संबंधित विवाद पर विशेष चर्चा नहीं हुई है। यह कंपनी ट्रंप प्रशासन की उन पसंदीदा कंपनियों में एक थी, जिन्हें टीकों के उत्पादन का अनुबंध दिया जाता था। वर्ष 2020 में अमेरिका सरकार ने एंथ्रेक्स की आंशका देखते हुए इमर्जेंट को 62.6 करोड़ डॉलर मूल्य के टीकों के उत्पादन का ठेका दिया था। इमर्जेंट को जॉनसन ऐंड जॉनसन (जेऐंडजे) और एस्ट्राजेनेका के टीकों के उत्पादन के भी अनुबंध मिले थे।
इस वर्ष अप्रैल में ऐसी खबरें आई थीं कि इमर्जेंट में बने जेऐंडजे की करोड़ों खुराक अमेरिकी प्रशासन ने नष्ट करने का आदेश दिया था। अमेरिकी खाद्य एवं दवा प्रशासन (एफडीए) ने एक निरीक्षण में पाया था कि इमर्जेंट ने जेऐंडजे के टीके में एस्ट्राजेनेका के तत्त्वों का मिश्रण कर दिया था। अमेरिका ने टीकों की कमी से जुड़ी किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए चार अन्य टीका विनिर्माता कंपनियों-फाइजर, मॉडर्ना, एस्ट्राजेनेका और जेऐंडजे-से भी उनके टीकों के लिए अनुबंध किया था। हालांकि तब भी नुकसान तो नुकसान ही होता है।
भारत में दवा एवं टीकों के विनिर्माण गुणवत्ता को लेकर स्थानीय समाचार माध्यमों में विशेष चर्चाएं नहीं होती हैं। अमेरिका में जब एफडीए विनिर्माण मानकों का पालन नहीं करने के लिए भारतीय दवाओं पर तल्ख टिप्पणी करता है तब लोगों एवं मीडिया का ध्यान इस ओर जाता है। वैश्विक स्तर पर टीकों के विनिर्माण से जुड़ी अनियमितताएं एवं गुणवत्ता मानकों को लेकर चिंताएं फिर उजागर हो गई हैं और नजरें एक बार फिर गुणवत्ता नियंत्रण संबंधी विषय पर टिक गई हैं।
खबरों के अनुसार एफडीए के निर्देश के बाद इमर्जेंट में तैयार 6 करोड़ खुराक नष्ट की जा चुकी थी और दक्षिण अफ्रीका जैसे दूसरे देशों ने भी मिलावट वाली जेऐंडजे की खुराक ठिकाने लगा दी। टीका उत्पादन के लिए अपने अनुबंध साझेदारों पर मोटे तौर पर निर्भर रहने वाली एस्ट्राजेनेका के समक्ष भी कई चुनौतियां पेश आई हैं। अमेरिकी कंपनी इमर्जेंट से जुड़े विवाद के अलावा कंपनी को शुरू में बेल्जियम में अपने संयंत्र में मुश्किलें पेश आई थीं और थाइलैंड में अनुबंध साझेदारों के साथ भी इसे दिक्कतों का सामना करना पड़ा था।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रूस में स्पूतनिक के विनिर्माण संयंत्रों में जांच एवं आंकड़ों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए हैं। हालांकि कंपनी का कहना है कि उन मुद्दों का समाधान हो चुका है। भारत में तैयार कोविड-19 महामारी से बचाव के टीके कोवैक्सीन को ब्राजील के दवा नियामक ने शुरू में विनिर्माण मानकों हवाला देते हुए इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी थी। (बाद में नए आंकड़े देने पर कोवैक्सीन को ब्राजील में मंजूरी मिल गई लेकिन अब अनियमितताओं के आरोप में अनुबंध अस्थायी तौर पर निलंबित कर दिया गया है।)
भारत में केंद्रीय दवा मानक एवं नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीनस्थ है। यह दवाओं एवं टीकों से जुड़ी सुरक्षा, क्षमता एवं गुणवत्ता संबंधी मानक तय करता है। यह दवा एवं टीके बनाने का लाइसेंस भी जारी करता है। हालांकि अफसोस की बात है कि इसके पास अधिकार तो हैं लेकिन दवा एवं टीकों के उत्पादन पर नजर रखने के लिए आवश्यक संसाधन नहीं हैं। यह काम मोटे तौर पर राज्य नियामक संस्थाओं पर छोड़ दिया जाता है जिन पर सीडीएससीओ द्वारा तय गुणवत्ता एवं सुरक्षा मानकों का अनुपालन कराने का उत्तरदायित्व होता है। कसौली में केंद्रीय औषधि प्रयोगशाला (सीडीएल) बाजार में जारी होने वाले सभी टीकों की प्रत्येक खेप (बैच) की जांच करता है।
यहां समस्या यह है कि विनिर्माण प्रक्रियाओं से जुड़ी जटिलता के मद्देनजर राज्य प्राधिकरणों के पास आवश्यक संसाधनों की कमी की वजह से विनिर्माण मानकों एवं गुणवत्ता संबंधी पहलुओं से जुड़े आंकड़ों पर कड़ी निगरानी नहीं रखी जाती है। भारत में अनुबंध पर टीकों का उत्पादन करने वाले हजारों बड़े एवं छोटे विनिर्माता हैं जिनके मानकों में खासा अंतर पाया जाता है। अमेरिका एवं यूरोपीय संघ के बाजारों में दवाओं एवं टीकों का निर्यात करने वाले विनिर्माताओं पर इनके देशों की नियामकीय इकाइयां निगरानी रखती हैं। जहां तक भारतीय कंपनियों की बात है तो किसी संयंत्र को लेकर अमेरिकी एफडीए की टिप्पणी इनकी छवि एवं कारोबारी संभावनाओं को पंख दे सकता है या धराशायी कर सकता है।
दवाओं के मुकाबले टीकों का विनिर्माण अधिक पेचीदा होता है, लेकिन सीडीएल ने गुणवत्ता पर लगातार नजर रखी है और इसके लिए यह सराहना का पात्र है। इतना ही नहीं, भारत टीकों के उत्पादन एवं निर्यात के लिए लंबे समय से जाना जाता रहा है। हालांकि कोविड-19 से उत्पन्न चिंताओं के बीच टीके की मांग लगातार बढऩे से कसौली स्थित सीडीएल का काम काफी बढ़ गया है। हाल में ‘द प्रिंट’ ने खबर दी थी कि कोविड-19 टीकों की भारी मांग से समानांतर जांच शुरू की गई है। मसलन, टीकों की कुछ खेप की जांच सीडीएल के प्रयोगशाला में हो रही है, जबकि शेष की जांच टीका कंपनियों के गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशाला में की जा रही है। सीडीएल टीके बाजार में उतारने की अनुमति देने से पहले दोनों खेपों की जांच के नतीजों की तुलना करता है। सरकार टीकों की जांच के लिए दूसरे संयंत्र भी स्थापित कर रही है। नोएडा स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल्स में यह सुविधा शुरू करने की व्यवस्था हो चुकी है और अब पुणे स्थित नैशनल सेंटर फॉर सेल साइंस में भी जांच सुविधाएं तैयार की जा रही हैं। हालांकि, इन तमाम नई सुविधाओं के बावजूद नए टीकों की आपूर्ति बढऩे से जांच का काम पूरा करना मुश्किल लग रहा है।
भारत में कोविड टीकों का उत्पादन बढ़ाया जा रहा है और कुछ और देसी टीकों के इस्तेमाल की अनुमति दी जा रही है। सरकार दिसंबर तक अधिक से अधिक वयस्क आबादी को टीके लगाना चाहती है। स्पूतनिक वी का आयात शुरू हो चुका है और जेऐंडजे और मॉडर्ना के टीके भी जल्द उपलब्ध होने की उम्मीद है। टीकों की इस बाढ़ से निपटने के लिए जांच सुविधाएं भी तैयार करने की जरूरत होगी।
नियामक द्वारा मंजूर सभी टीके काफी कारगर साबित हो सकते हैं लेकिन किसी बैच में एक छोटी सी खामी भी टीकों से जुड़े सुरक्षा के पहलू एवं इनके असर को नाटकीय ढंग से प्रभावित कर सकती हैं। उम्मीद तो यही है कि सरकार टीका खरीद प्रक्रिया में अपनाई गई सतर्कता से भी कहीं अधिक गंभीरता से इस विषय पर ध्यान देगी।
(लेखक बिज़नेस टुडे के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजेकव्यू के संस्थापक एवं संपादक हैं।)