मौद्रिक नीति की दिशा को लेकर काफी चिंताएं हैं। पिछले आठ में से सात महीनों में कुल मुद्रास्फीति 2 से 6 फीसदी सीपीआई मुद्रास्फीति के जरूरी दायरे से बाहर रही है। हालांकि मुद्रास्फीति आंकड़ा अप्रैल 2020 में कीमतों में तेजी दिखाता है जब लॉकडाउन ने आपूर्ति को बाधित कर दिया था। आपूर्ति बाधाओं के कमजोर होने पर मुद्रास्फीति दबावों के भी शिथिल होने की संभावना है। इन अल्पकालिक अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) सही दिशा में है और 12-18 महीनों के मुद्रास्फीति पूर्वानुमानों पर नजरें टिकाए हुए है। प्रभावी नीतिगत दर को पिछले डेढ़ वर्षों में लगातार कम करते हुए 7 फीसदी से घटाकर 3.23 फीसदी पर लाया जा चुका है जो कि एक सूझबूझ-भरा रास्ता है।
मुद्रास्फीति लक्ष्य के 4 फीसदी पर होने के बीच इसका मुनासिब दायरा 2 से 6 फीसदी है। पिछले आठ में से सात महीनों में कुल मुद्रास्फीति 6 फीसदी की ऊपरी सीमा से ऊपर जा चुकी है। यह हमारे लिए खासी चिंता की बात है। फरवरी 2015 में लागू किए गए मुद्रास्फीति निर्धारण मसौदे ने अभी तक काफी अच्छा काम किया है। इन आठ महीनों में पहली बार यह मसौदा कारगर नहीं साबित हुआ है।
मौद्र्रिक नीति का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव 12 से 18 महीनों की देरी से पड़ता है। लिहाजा दिसंबर 2019 से लेकर जुलाई 2020 के दौरान के मुद्रास्फीति संकट के बारे में सामान्य समझ यही बनती है कि जून-दिसंबर 2018 के दौरान नीतिगत दर काफी कम थी और एमपीसी एक साल बाद मुद्रास्फीति में इस तेजी का अनुमान लगा पाने में नाकाम रही। सितंबर 2018 में नीतिगत ब्याज दर सात फीसदी के उच्च स्तर पर थी और उसके बाद उसमें कटौती का सिलसिला शुरू हो गया। शायद इस कटौती का समय और मात्रा हद से ज्यादा थी।
पारंपरिक कुल मुद्रास्फीति में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में 12 महीनों के दौरान आए बदलाव को आंका जाता है। इसे 12 अलग-अलग महीनों में आए बदलावों के समूह में भी बांटने के लिहाज से उपयोगी है। ऐसा मौसमी समायोजन के जरिये किया जा सकता है। जब हम इस आंकड़े को परखते हैं तो सितंबर-दिसंबर 2019 की अवधि में मुद्रास्फीति को ऊंचे स्तर पर पाते हैं जिसमें मासिक आधार पर मुद्रास्फीति क्रमश: 9.67, 7.28, 10.04 और 22 फीसदी रही। हालांकि आने वाले महीनों में इसमें गिरावट देखी गई।
उसके बाद तो लॉकडाउन की स्थिति ही आ गई। लॉकडाउन का सबसे सख्त रूप अप्रैल 2020 में देखा गया था जिसमें आपूर्ति शृंखला पर बहुत बुरा असर पड़ा। इस वजह से कई उत्पादों की किल्लत हो गई। मांग एवं आपूर्ति की इस नई परिस्थिति में कीमतें बढ़ गई हैं ताकि मांग-आपूर्ति के असंतुलन को पाटा जा सके। इससे मौजूदा मुद्रास्फीति की काफी हद तक व्याख्या होती है। अगर अप्रैल के महीने की 22 फीसदी मुद्रास्फीति को अलग रखकर देखें तो पिछले 11 महीनों का औसत 5.5 फीसदी ही बैठता है। मौद्र्रिक नीति 12-18 महीने के प्रभाव दायरे में काम करती है, लिहाजा एमपीसी को ऐसे क्षणिक कारकों पर बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देनी चाहिए।
लॉकडाउन में लगी पाबंदियों को शिथिल करने का सिलसिला 18 अप्रैल से शुरू हो गया था। यह प्रक्रिया अब भी देश भर में जारी है। अगस्त में आपूर्ति की स्थिति दुरुस्त होने की संभावना है और खरीफ फसल सत्र की पैदावार के बाजार में आने पर स्थिति में और सुधार होगा। सितंबर तक कुल मुद्रास्फीति के नीचे आ जाने की संभावना है।
मौद्रिक नीति के बरताव पर गौर करें तो अल्पावधि ब्याज दर जैसे कई तरीके हैं जिनके माध्यम से आरबीआई मौद्रिक परिस्थितियों को प्रभावित करता है। इन उपायों में रीपो एवं रिवर्स रीपो दर में बदलाव, खुले बाजार में हस्तक्षेप और मुद्रा की खरीद-बिक्री शामिल हैं। मौद्र्रिक नीति की सच्ची तस्वीर पेश करने वाला सबसे सही आंकड़ा द्वितीयक बाजार में 91 दिनों का ट्रेजरी बिल दर होता है।
यह दर सितंबर 2018 के सात फीसदी के उच्च स्तर से गिरकर जुली 2020 में 3.23 फीसदी पर आ गई। इस तरह दर में कुल 377 आधार अंकों की कटौती हुई है जो औसतन 14 आधार अंकों की मासिक कटौती दर्शाता है। कुल मिलाकर, ब्याज दर में कटौती अर्थव्यवस्था की कठिनाइयों के आकलन में समझदारी दर्शाती है। लॉकडाउन से जुड़े अस्थायी गतिरोधों से परे देखें तो अर्थव्यवस्था की स्थिति एक लंबे समय तक मुश्किल दिख सकती है और ब्याज दरों की यह कटौती मुद्रास्फीति को वांछित दायरे के भीतर रखने के लिए ही है। अगर अल्पावधि दर की तुलना 4 फीसदी के सीपीआई-आधारित मुद्रास्फीति लक्ष्य से करें तो 323 आधार अंकों के मौजूदा स्तर पर यह सही मायनों में अब नकारात्मक ही है। अब अवरोध वित्तीय नीति में ही निहित हैं। जब आरबीआई ब्याज दरों में कटौती करता है तो इसका अर्थव्यवस्था पर कम असर ही होता है। जब मौद्रिक नीति मुद्रास्फीति को 4 फीसदी के नीचे रखने का मकसद हासिल करने में सफल है तो वित्तीय नीति सापेक्षिक रूप से निष्प्रभावी ही है।
इसे एक उदाहरण से समझते हैं। दबावग्रस्त होने पर बैंक अत्यधिक सजगता दिखाते हैं और वे निम्न दरों पर उधार लेने एवं ऋण देने में अनिच्छुक होते हैं। इसका असर बैंकों के ऋण कारोबार की वृद्धि में गिरावट के रूप में पड़ा है। हाल के समय में बैंक ऋण की वृद्धि दिसंबर 2018 में एक साल पहले की तुलना में करीब 15 फीसदी रही थी लेकिन उसके बाद से इसमें लगातार गिरावट आई है। जुलाई 2020 में बैंक ऋण वृद्धि 5.64 फीसदी रही है। दिसंबर 2019 के बाद से ही ऋण वृद्धि दर वास्तविक अर्थों में लगभग शून्य रही है और जुलाई में तो यह थोड़ा नकारात्मक ही है। अगर बैंकिंग नियमन बेहतर रहा होता तो बैंकों की मनोदशा ऐसी न होती। इसी तरह बॉन्ड बाजार भी कुछ विश्वसनीय जारीकर्ताओं तक सिमटकर रह गया है। अधिकांश लेनदार बॉन्ड बाजार तक आसान पहुंच से वंचित हैं। इसका नतीजा यह होता है कि उधारी की लागत ऊंची बनी हुई है जबकि प्रभावी नीतिगत दर 3.23 फीसदी पर है। अगर वित्तीय बाजार का नियमन बेहतर रहा होता तो बॉन्ड बाजार भी व्यवहार्य होता जिससे निजी एवं सरकारी उधारी दोनों को ही मदद मिली होती।
ये समस्याएं वित्तीय क्षेत्र में सुधारों की जरूरत पर बल देती हैं। भारत में बैंकिंग एवं बॉन्ड-मुद्रा-डेरिवेटिव गठजोड़ के ठीक से काम नहीं कर पाने के बारे में काफी जानकारी उपलब्ध है। इसके आधार पर ऐसे कार्यक्रम बनाए गए हैं जो इन समस्याओं का निराकरण कर सकें। अगर यह कार्यक्रम कारगर साबित होता है तो कोविड महामारी की वजह से वृहद-आर्थिक नीति एवं वित्त नीति के संदर्भ में पेश आई समस्याएं दूर हो जाएंगी। इसके लिए हमें मौद्रिक नीति में किए गए सुधारों की तर्ज पर वित्तीय नियमन में भी व्यापक संस्थागत सुधार करने की जरूरत होगी।
(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)
