ऐसे समय में जबकि पहचान की राजनीति देश के राजनीतिक फलक पर बुरी तरह हावी है, मापण्ना मल्लिकार्जुन खरगे का कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होना लगभग तय था और ऐसा ही हुआ है। वह एक दलित और बौद्ध हैं। उनके पास कर्नाटक विधानसभा और केंद्र में काम करने का लंबा अनुभव है और वह कुछ समय के लिए सदन में नेता प्रतिपक्ष भी रहे हैं।
सरसरी तौर पर देखने पर तो यही प्रतीत होता है कि अपने विशाल राजनीतिक अनुभव के साथ वह शक्तिशाली भारतीय जनता पार्टी के समक्ष कांग्रेस का नेतृत्व करने में सक्षम हैं। इसके बावजूद 7,897 मत पाकर 1,072 मत पाने वाले शशि थरूर को हराने वाले खरगे की जीत से बहुत अधिक अपेक्षाएं नहीं हैं।
अस्सी वर्षीय खरगे गांधी परिवार के पसंदीदा प्रत्याशी थे और उनके चयन में उनकी संगठन क्षमता या किसी अन्य गुण के बजाय गांधी परिवार के प्रति वफादारी तथा गैर विवादित व्यक्तित्व का स्वामी होना अधिक काम आया। कांग्रेस अध्यक्ष के पद को अतीत में तीन बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री के पद से वंचित रह जाने के बदले पुरस्कार के रूप में भी देखा जा सकता है।
उनके लंबे करियर या वर्तमान प्रचार अभियान में भी ऐसी कोई विशिष्टता देखने को नहीं मिली जो कांग्रेस पार्टी के लिए तत्काल जरूरी हो चुके बदलावों को अंजाम देने में मदद कर सकें और जिनकी मदद से कांग्रेस देश भर में भाजपा को मजबूत चुनौती दे सके। जब उनसे कांग्रेस के भीतर मौजूद जी23 समूह के बारे में पूछा गया जिससे उनके प्रतिद्वंद्वी भी आते थे, तो उनका जवाब इसके अस्तित्व को ही नकारने का था। इतना ही नहीं हारे हुए प्रत्याशी ने अनियमितताओं का आरोप लगाया और इस प्रकार इतिहास एक बार फिर दोहराया गया।
खरगे का पार्टी अध्यक्ष बनना बताता है कि पार्टी पर गांधी परिवार का वर्चस्व बरकरार है और 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की भारी पराजय के बाद राहुल गांधी के अनिर्वाचित पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे के बाद उत्पन्न अस्पष्टता और भ्रम का सिलसिला भी जारी है। हालांकि उस वक्त उनकी मां ने पुरानी भूमिका दोबारा अपना ली थी लेकिन राहुल गांधी बिना किसी खास जिम्मेदारी के अनौपचारिक रूप से शक्ति का केंद्र बने रहे। उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा शक्ति के एक अन्य केंद्र के रूप में उभरी हैं। राहुल और प्रियंका में से किसी ने ज्यादा नेतृत्व क्षमता नहीं दिखाई है।
राहुल गांधी को कई सवालों के जवाब देने हैं जिनमें एक समय उनके करीबी सहयोगी रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत भी शामिल है। सिंधिया के भाजपा में जाने से मध्य प्रदेश में कांग्रेस को अपनी सरकार गंवानी पड़ी थी। पंजाब में वह तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और उन्हें चुनौती दे रहे नवजोत सिंह सिद्धू के बीच के विवाद को सही ढंग से नहीं निपटा सके।
इसके चलते पार्टी को न केवल पंजाब में हार का सामना करना पड़ा बल्कि पार्टी के सबसे प्रतिभाशाली और सम्मानित राजनेताओं में से एक अमरिंदर सिंह ने पार्टी भी छोड़ दी। प्रियंका गांधी वाड्रा को भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी के निराशाजनक प्रदर्शन का जवाब देना होगा।
किसी भी अन्य दल में ऐसा प्रदर्शन करने पर किनारे लगा दिया जाता लेकिन वाड्रा अभी भी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की महासचिव हैं। यहां तक कि उन्होंने गत सप्ताह हिमाचल प्रदेश के लिए पार्टी के प्रचार अभियान की शुरुआत तक की।
निश्चित तौर पर यह स्पष्ट नहीं है कि अपने सीमित देशव्यापी आधार के चलते शशि थरूर पार्टी में किस कदर नई जान फूंक पाते लेकिन 66 वर्ष की अपेक्षाकृत कम उम्र के साथ उन्होंने लगभग बागी के रूप में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया जिससे पता चलता है कि वह पारंपरिक कांग्रेस के साये तले नए विचारों को सामने रखने के इच्छुक हैं।
उनके विचार नरम हिंदुत्व रूपी उस विचार से अलग हैं जो फिलहाल चुनावी रणनीति के रूप में आजमाई जा रही है। पार्टी को न केवल चुनावों में भाजपा का मुकाबला करने के लिए विचारों की आवश्यकता है बल्कि उसे विपक्ष में अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से निभाने के लिए भी उनकी आवश्यकता है। बहरहाल, गांधी परिवार के प्रत्याशी को एकतरफा विजय दिलाकर कांग्रेस पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने अध्यक्ष पद के लिए दो दशक में हुए पहले चुनाव में एक अहम अवसर गंवा दिया है।