कोविड महामारी ने 2020 और 2021 में भारत समेत अनेक देशों को मध्यम अवधि में जो नुकसान पहुंचाया उसका एक प्रमाण मानव विकास सूचकांक यानी स्वास्थ्य, शिक्षा और आय के संकेतकों में देखा जा सकता है। दशकों की धीमी मगर स्थायी प्रगति के बाद भारत को जीवन संभाव्यता तथा शिक्षा के मोर्चे पर झटके का सामना करना पड़ा है। दिलचस्प बात यह है कि 2020 की तुलना में 2021 में मानव विकास सूचकांक में अधिक गिरावट देखने को मिली। भारत का सूचकांक अब 2015 के स्तर से मामूली ऊपर है। कुछ नुकसान की भरपाई तो तत्काल की जा सकती है।
कोविड के कारण हुई मौतों के आंकड़े हटा दिए जाएं तो जीवन संभाव्यता को दो वर्षों के दौरान हुए नुकसान को भरा जा सकता है। परंतु शिक्षा के क्षेत्र में पुराने स्तर पर वापसी करना आसान नहीं होगा। ऐसे में सूचकांक को पहुंचा नुकसान कुछ समय तक बना रहेगा भले ही अन्य देशों की तुलना में यह सूचकांक में हमारी स्थिति को बहुत प्रभावित नहीं करे। 2021 तक के छह वर्ष में हमें केवल एक स्थान का नुकसान हुआ और हम 131वें स्थान से घटकर 132वें स्थान पर पहुंचे। इससे पता चलता है कि सूचकांक मूल्य में गिरावट बहुत अधिक नहीं है। कई देश कोविड से बेहतर तरीके से निपटे जबकि कई देश ऐसा नहीं कर सके।
दो अन्य बातें ध्यान देने लायक हैं। पहली, बांग्लादेश जैसे देश गैर आय सूचकांकों पर हमसे बेहतर स्थिति में हैं जबकि भारत जैसे देशों की स्थिति इसके उलट है। ऐसे में बांग्लादेश की आय कम है लेकिन सूचकांक पर उसकी स्थिति बेहतर है। बांग्लादेश का उल्लेख इसलिए भी करना उचित होगा कि कोविड वाले वर्षों में उसे मानव विकास सूचकांक के मोर्चे पर किसी तरह के झटके का सामना नहीं करना पड़ा।
तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो अगर भारत को आय से इतर विशुद्ध रूप से स्वास्थ्य और शिक्षा के स्तर पर रैंकिंग प्रदान की जाए तो हम छह स्थान नीचे फिसल जाएंगे। कहने का अर्थ यह कि स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर देश उस स्तर पर नहीं है जहां इस आय के स्तर के साथ उसे होना चाहिए। यह बात पिछले कुछ समय से सही साबित हो रही है। एक गंभीर बात यह भी है कि जहां भारत ‘मध्यम मानव विकास’ वाला देश बना हुआ है, वहीं वियतनाम हाल ही में ‘उच्च मानव विकास’ वाली श्रेणी में चला गया। जबकि मलेशिया और थाईलैंड जैसे एशियाई पड़ोसी देश ‘अत्यधिक उच्च’ श्रेणी में आ गए। यदि भारत को सूचकांकों में कोविड के पहले के स्तर तक सुधार करना था तो शायद उसे मध्यम से उच्च श्रेणी में पहुंचने में 2030 तक का समय लगता। दूसरी तरह से देखें तो भारत आज सूचकांक में उस स्थिति में है जहां चीन इस सदी के आरंभ में था। यानी हम चीन से दो दशक पीछे हैं। अपने प्राथमिक सामरिक प्रतिद्वंद्वी से हमारी यह दूरी इतनी अधिक है कि कई क्षेत्रों में तो दोनों देश मानो दो ध्रुवों पर हैं।
इसके बावजूद आय के बजाय स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में इस अंतर को पाटने की कोशिश करने पर ध्यान देना समझदारी भरा है। ऐसा करके हम केवल आर्थिक वृद्धि के बजाय अन्य लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में भी बढ़ सकते हैं। भारत इस समय जहां सबसे तेजी से विकसित होता बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश है, वहीं स्वास्थ्य और शिक्षा के मोर्चे पर उसके संकेतक एक से दूसरे वर्ष में कोई खास सुधार नहीं दर्शाते हैं। इस संदर्भ में अमर्त्य सेन की विकास की उस व्याख्या को ध्यान में रखना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा था कि वह क्षमताओं का निर्माण भी करता है।
इस विषय पर होने वाली बहस का बहुत बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य और शिक्षा पर होने वाले सरकारी व्यय पर केंद्रित रहा है। भारत इन दोनों मामलों में पीछे हैं। भारत में इन क्षेत्रों में निजी व्यय सरकारी व्यय पर भारी है। अक्सर इसका नुकसान उन लोगों को होता है जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। ध्यान देने लायक दूसरी बात है क्षेत्रीय पहलू। जिन राज्यों को बीमारू श्रेणी में रखा जाता रहा है उनकी स्थिति लगातार खराब बनी हुई है और इसके कारण राष्ट्रीय औसत में भी कमी आ रही है। उदाहरण के लिए बिहार में शिशु मृत्युदर तमिलनाडु की तुलना में ढाई गुना है।
हालिया पहलों की बात करें तो गरीब और वंचित वर्ग के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसे कदमों से अंतर आना चाहिए लेकिन बहुत अधिक अंतर शायद ही आए। ऐसे में सार्वजनिक व्यय के मामले में मोदी सरकार का ध्यान सामाजिक अधोसंरचना पर कम और भौतिक अधोसंरचनाओं पर अधिक है। इस पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। हाल के वर्षों में भौतिक बुनियादी ढांचे पर जीडीपी के करीब एक फीसदी के बराबर व्यय किया गया है। यह बहुत अच्छी बात है लेकिन सामाजिक अधोसंरचना में निवेश इसकी बराबरी पर नहीं है। भारत को जहां भौतिक बुनियादी ढांचा सुधारने की जरूरत है वहीं सामाजिक अधोसंरचना पर ध्यान देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ऐसे में क्षमता निर्माण को समझना होगा और उसका सार्थक इस्तेमाल करना होगा।
