कोई भी चिकित्सक इस बात से इनकार नहीं करेगा कि आपात चिकित्सा में उसका पहला उद्देश्य मरीज को जिंदा रखने का होता है। आगे का इलाज तो उसके बाद भी किया जा सकता है।
आजकल विभिन्न देशों के केंद्रीय बैंक ऐसे चिकित्सकों की ही भूमिका निभा रहे हैं जो खस्ताहाल वित्तीय इकाइयों को आपात राहत पहुंचा रहे हैं क्योंकि वित्तीय इकाइयां एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
जब से यह घोषणा की गई है कि लीमन ब्रदर्स दिवालियेपन की अर्जी दाखिल करेगा तब से ही अमेरिकी फेडरल रिजर्व, पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (पीबीओसी) और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) हरकत में आ चुके हैं।
उन्होंने अपने अपने ढंग से कदम उठाने शुरू कर दिए हैं क्योंकि उन्होंने भांप लिया है कि इस घटनाक्रम का उनकी मैक्रो अर्थव्यवस्थाओं और वित्तीय स्थिरता पर क्या असर पड़ेगा।
कुछ लोगों का मानना था कि फेडरल रिजर्व मंगलवार को ब्याज दरों में कटौती की घोषणा कर सकता है, पर ऐसा हुआ नहीं। फेडरल ने यह साफ कर दिया है कि उसकी पहली प्राथमिकता महंगाई से निपटना है।
उसने मर्ज का सीधा इलाज करना बेहतर समझा और एआईजी को दिवालियेपन से रोकने के लिए 85 अरब डॉलर की वित्तीय सहायता की घोषणा कर दी। इसे लेकर बहस छिड़ सकती है कि उसने लीमन को बचाने के लिए वित्तीय सहायता देना क्यों जरूरी नहीं समझा जबकि एआईजी के मामले में उसने ऐसा किया।
हालांकि यह एक अलग कहानी है। पीबीओसी ने अर्थव्यवस्था के रुख को भांपते हुए ब्याज दरों में कटौती की घोषणा की ताकि विकास के लिए अनुकूल माहौल मिल सके और महंगाई को लेकर बहुत चिंता इसलिए भी नहीं थी क्योंकि हाल के कुछ हफ्तों में मुद्रास्फीति की दर में तेज गिरावट आई थी।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में जो अनिश्चितता बनी हुई है उसे देखते हुए इसे जोखिम भरा कदम कहा जा सकता है पर फिर शायद इसे आर्थिक आपात चिकित्सा कहते हैं।
आरबीआई ने एक बीच का रास्ता अपनाया। उसके पास ऐसे खास वित्तीय संस्थान नहीं दे थे जिसे उसे लक्षित करना था और साथ ही महंगाई को देखते हुए ब्याज दरों में भारी कटौती की उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी।
ऐसा समझा जा रहा है कि आरबीआई के पास दो अन्य गंभीर मसले हैं जिनका हल उसे ढूंढना होगा, ‘एक तरफ रुपये के कमजोर पड़ने का दबाव है तो दूसरी ओर विदेशी निवेशक देश छोड़कर बाहर का रुख कर रहे हैं और ऐसे में तरलता का संकट पैदा हो सकता है।’
पहली समस्या से निपटने के लिए आरबीआई ने पहले ही यह संकेत दे दिया है कि वह विदेशी मुद्रा कोष का इस्तेमाल कर रुपये को और कमजोर पड़ने से रोकेगी। साथ ही वह नॉन रेसिडेंट डिपोजिट पर ब्याज दरों को बढ़ाकर विदेशी मुद्रा के देश में प्रवाह को भी बढ़ावा देगी।
यह तो स्पष्ट नहीं है कि इससे निकट भविष्य में विदेशी मुद्रा प्रवाह कितना बढ़ सकेगा पर इतना तय है कि आरबीआई ने इन समस्याओं से निपटने के लिए जो प्रतिबद्धता दिखाई है वह लाजवाब है। तरलता के मोर्चे पर भी आरबीआई ने एसएलआर घटा कर राहत पहुंचाई है।
कुल मिलाकर मौजूदा हालात को देखते हुए जो कदम उठाए गए हैं उन्हें उपयुक्त कहा जा सकता है।
