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  लेख  टाटा समूह की बड़ी जीत के मायने
लेख

टाटा समूह की बड़ी जीत के मायने

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —April 21, 2021 11:28 PM IST
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अक्टूबर 2016 में साइरस मिस्त्री को टाटा समूह की होल्डिंग कंपनी टाटा संस के कार्यकारी चेयरमैन के पद से हटा दिया गया था। उसके बाद एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया।
मिस्त्री ने दावा किया कि उन्हें टाटा समूह में मौजूद कई गड़बडिय़ों को दुरुस्त करने की कोशिश करने की वजह से हटाया गया। उन्होंने सवालों के घेरे में आए कारोबारी फैसलों और कुछ पुराने लेनदेन का भी जिक्र किया था। साइरस के मुताबिक कोई नोटिस दिए बगैर और किसी तरह की वजह बताए बगैर उन्हें कार्यकारी चेयरमैन पद से हटाना गैरकानूनी कदम था।
इस फैसले के खिलाफ मिस्त्री ने राष्ट्रीय कंपनी कानून अधिकरण (एनसीएलटी) की शरण ली। जुलाई 2018 में एनसीएलटी ने उनकी याचिका खारिज कर दी। उस आदेश के खिलाफ उन्होंने राष्ट्रीय कंपनी कानून अपील अधिकरण (एनसीएलएटी) में अपील की। दिसंबर 2019 में एनसीएलएटी ने मिस्त्री की अपील स्वीकार करते हुए आदेश दिया था कि वादी को टाटा संस के कार्यकारी चेयरमैन के पद पर बहाल किया जाए।
इस मामले में पिछले महीने उच्चतम न्यायालय ने भी अपना निर्णय दे दिया। सर्वोच्च अदालत ने एनसीएलएटी के आदेश को पलटने के साथ ही मिस्त्री एवं शापूरजी पलोनजी (एसपी) समूह की तमाम आपत्तियों को भी नकार दिया। टाटा समूह के लिए इससे बड़ी जीत नहीं हो सकती थी। फिर भी कंपनी शासन से जुड़े कुछ अहम मसलों पर इस फैसले के निहितार्थ एक हद तक साफ नहीं हैं।
उच्चतम न्यायालय का यह फैसला रतन टाटा एवं साइरस मिस्त्री के बीच लंबे समय से चली आ रही लड़ाई देखने वाले कई लोगों को भ्रमित कर सकता है। सामान्य समझ यही कहती है कि मिस्त्री की कुछ शिकायतों, खासकर कार्यकारी चेयरमैन के पद से अचानक हटा दिए जाने की शिकायत में दम था। लेकिन सामान्य समझ कानून की गाइड नहीं होती है। सर्वोच्च न्यायालय  के 282 पृष्ठों के विधिवत लिखित आदेश को पढ़ा जाना चाहिए। इससे साफ होता है कि कानून की नजर में पलड़ा टाटा समूह के पक्ष में झुका हुआ था। कंपनी कानून के छात्रों को यह निर्णय कंकंपनी कानून के विकास एवं न्यायिक पूर्व-निर्णयों के संदर्भों के लिए खासा मददगार साबित होगा।
मिस्त्री की तरफ से दायर याचिका में शापूरजी पलोनजी समूह ने टाटा समूह के कुछ कारोबारी फैसलों एवं तमाम लेनदेन पर गंभीर सवाल उठाए थे। स्टर्लिंग समूह की कंपनियों से संबंधित आचरण, ब्रिटेन में कोरस कंपनी के अधिग्रहण और नैनो कार परियोजना को लेकर सवाल खड़े किए गए थे। एनसीएलटी ने इन सभी आपत्तियों को खारिज कर दिया था। यहां तक कि एनसीएलएटी ने भी इन बिंदुओं एनसीएलटी के नतीजों को नहीं पलटा था। खुद एसपी समूह ने भी उच्चतम न्यायालय में की गई अपनी अपील में एनसीएलएटी की इस नाकामी पर सवाल नहीं उठाए थे। इस तरह उच्चतम न्यायालय यह रुख अपनाता है कि एसपी समूह की तरफ से लगाए गए आरोपों के बारे में एनसीएलटी के निष्कर्ष ही अंतिम हैं।
मिस्त्री एवं टाटा के बीच छिड़े विवाद का एक अहम मसला अक्टूबर 2016 में मिस्त्री को कार्यकारी चेयरमैन पद से अचानक हटाने का था। उस समय तक मिस्त्री के नेतृत्व को लेकर किसी तरह के असंतोष का कोई संकेत नहीं दिखा था। उनकी अगुआई में टाटा समूह का प्रदर्शन अच्छा भी रहा था। होल्डिंग कंपनी टाटा संस के निदेशक मंडल की मनोनयन एवं पारितोषिक समिति ने मिस्त्री के प्रदर्शन को अनुकूल मानते हुए उनकी वेतन वृद्धि की अनुशंसा भी की थी। मिस्त्री की दलील थी कि जिस तरह से उन्हें हटाया गया वह दमनकारी था और अल्पांश शेयरधारकों के प्रति अनुचित रूप से हानिकारक था। इस बिंदु पर उच्चतम न्यायालय का रुख खासा रोचक है। उसने कहा है कि अगर टाटा समूह का आचरण दमनकारी रहा होता तो मिस्त्री की अगुआई में समूह का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा होता। और न ही मिस्त्री का बोर्ड के सदस्यों के साथ दोतरफा तारीफ वाला नाता बन पाया रहता।
कोई साधारण व्यक्ति यह पूछ सकता है कि एक-दूसरे की तारीफ करने वाली यह सोसाइटी अक्टूबर 2016 में अचानक ही कैसे भंग हो गई? मिस्त्री को औचक ढंग से हटाए जाने के असली कारण क्या थे? टाटा समूह की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में कहा गया था कि मिस्त्री उनका भरोसा गंवा चुके थे। सवाल है कि ऐसा कब और क्यों हुआ? हमारे पास इसका कोई जवाब नहीं है।
एसपी समूह ने दलील दी कि मिस्त्री को हटाए जाने के पहले कोई नोटिस नहीं दिया गया था और न ही उनकी पदमुक्ति बोर्ड बैठक के एजेंडे में ही शामिल थी। इस पर सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना है कि टाटा संस के गठन संबंधी नियमों के मुताबिक अग्रिम नोटिस की जरूरत केवल तभी होती है जब बोर्ड की बैठक में एक निदेशक कोई खास मुद्दा उठाना चाहता है। लेकिन बोर्ड के लिए कोई एजेंडा रखते समय ऐसा करना जरूरी नहीं है। बहरहाल बेचैनी का भाव बरकरार है। हो सकता है कि मिस्त्री को अचानक हटाना कानून के हिसाब से ठीक हो लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि ऐसा करना कंपनी शासन के बेहतरीन मानकों के भी अनुरूप है?
टाटा ट्रस्ट्स एवं टाटा संस के बीच के संबंध भी सुर्खियों में रहे हैं। टाटा समूह के दो ट्रस्टों के पास टाटा संस के बोर्ड में एक तिहाई निदेशकों को नामित करने के अधिकार हैं। टाटा संस के भीतर बोर्ड सदस्यों के बहुमत की मंजूरी की जरूरत वाले मुद्दों पर उन निदेशकों के सकारात्मक मत की जरूरत होती है जिन्हें टाटा ट्रस्ट ने नामित किया हुआ है। असल में, टाटा समूह के दो ट्रस्टों के पास टाटा संस के बोर्ड के खिलाफ वीटो शक्ति है। एसपी समूह का कहना था कि ऐसी स्थिति सुशासन के मानदंडों के प्रतिकूल है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि कंपनी अधिनियम 2013 के तहत उल्लिखित सुशासन मानक सार्वजनिक एवं सूचीबद्ध कंपनियों पर ही लागू होते हैं। टाटा संस जैसी निजी कंपनी इन प्रावधानों के दायरे में नहीं आती है। एसपी समूह ने कहा था कि टाटा ट्रस्ट्स के नामित सदस्यों के टाटा संस के बोर्ड में होने से दोनों संगठनों के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन में टकराव होता है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि टाटा ट्रस्ट्स के मनोनीत निदेशकों के कर्तव्यों में विरोधाभास होना अपरिहार्य है और कानूनों के प्रतिकूल नहीं है।
उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि टाटा के ट्रस्ट चैरिटी कार्यों से जुड़े हुए हैं जबकि टाटा संस एक होल्डिंग कंपनी है और वह किसी भी कारोबारी गतिविधि में संलिप्त नहीं है। इस लिहाज से टाटा ट्रस्ट्स द्वारा टाटा संस में नामित किए गए निदेशक कंपनी की साधारण सभा में नियुक्त निदेशकों के समान नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय यह भी कहता है कि एक बोर्ड के सभी निदेशकों से स्वतंत्र निर्णय की अपेक्षा करना पूरी तरह व्यावहारिक नहीं है। अगर वे ऐसा करते हैं तो फिर स्वतंत्र निदेशक श्रेणी की जरूरत ही नहीं होती।
इन टिप्पणियों से कुछ दिलचस्प सवाल भी खड़े होते हैं। क्या प्रवर्तक ट्रस्टों, होल्डिंग कंपनी एवं नामित निदेशकों के माध्यम से कामकाज चलाते रहते हैं और हितों के टकराव से खुद को बचाए भी रखते हैं? क्या गैर-होल्डिंग कंपनियों में स्वतंत्र निदेशकों से इतर शामिल निदेशक प्रवर्तकों के प्रति अपने दायित्वों को दूसरे शेयरधारकों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों पर हावी होने देते हैं? सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के बोर्ड में क्या सरकार द्वारा नामित निदेशक भी इसी तरह की रियायत की मांग कर सकते हैं?
मिस्त्री ने मांग की थी कि उनके समूह को टाटा संस के बोर्ड में आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया जाए। इस पर अदालत ने कहा है कि सार्वजनिक या निजी किसी भी क्षेत्र की कंपनी के लिए कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। अधिकतम यही हो सकता है कि एक सूचीबद्ध कंपनी के छोटे शेयरधारक अपनी तरफ से एक निदेशक चुन लें।
इस मामले में टाटा समूह का रुख दोषरहित साबित हुआ। उसे उच्चतम न्यायालय की यह टिप्पणी काफी सुकूनदेह लगेगी कि अपने बोर्ड के कामकाज को लेकर टाटा संस कानूनी अड़चनों से काफी आगे रहा है। लेकिन कानूनी रूप से सही होने का हमेशा मतलब यह नहीं है कि कंपनी शासन के बेहतर मानदंड पर भी खरा उतरे। कई लोग चाहेंगे कि टाटा समूह कंपनी शासन के मामले में भी काफी आगे रहे। इसका एक तरीका यह है कि टाटा संस को सूचीबद्ध कर दिया जाए ताकि कंपनी शासन के उच्च मानदंडों का पालन हो सके।
(लेखक भारतीय प्रबंध संस्थान अहमदाबाद के प्राध्यापक हैं)

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