अपना नियंत्रण कायम रखने वाले सत्ता प्रतिष्ठान प्राय: एक ही ढंग से काम करते हैं। उदाहरण के लिए शी चिनफिंग कह चुके हैं कि ‘पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और मध्य, हर जगह पार्टी का शासन है।’ यह वाक्य मुसोलिनी के कथन की प्रतिध्वनि लगता है जिसने कहा था, ‘सबकुछ राज्य में, कुछ भी राज्य के बाहर नहीं, राज्य के विरुद्ध कुछ नहीं।’ भारत की स्थिति वैसी नहीं है। लेकिन अमेरिका के एक गैर सरकारी संगठन के मुताबिक वह ‘आंशिक रूप से मुक्त’ है। संगठन ने भारत को ऐसा देश बताया है जो स्वतंत्रता सूचकांक पर आंशिक स्वतंत्रता वाला है। परंतु मोदी सरकार स्वतंत्र संस्थानों पर नियंत्रण बढ़ाने की इच्छुक है और उसकी गतिविधियां साफ बताती हैं कि देश किस दिशा में बढ़ रहा है।
पिछले सप्ताह के आरंभ मेंं सोशल मीडिया के लिए जो नियम घोषित किए गए वे इस इच्छा की ताजा बानगी हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का स्वामित्व, उन पर नियंत्रण रखने और उनका नियमन करने वाली वैश्विक टेक कंपनियों पर अब दबाव है कि वे सरकार का साथ दें। इसका असर व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर पड़ेगा। डिजिटल समाचार मीडिया को नए नियमों के दायरे में लाए जाने की बात से यह स्पष्ट होता है कि असहमति के स्वरों को दबाने का इरादा है।
व्यापक भागीदारी वाले अन्य क्षेत्रोंं मसलन खेल और मनोरंजन आदि को भी निशाना बनाया जा रहा है। क्रिकेट से जुड़ी संस्थाओं पर नियंत्रण किया जा चुका है और लग रहा है कि देश के सबसे लोकप्रिय खेल में भी सांप्रदायिकता का जहर फैलाया जा रहा है। जाहिर है यह मामला केवल स्टेडियम का नाम बदलने का नहीं बल्कि उससे कहीं आगे की बात है। इस बीच, हिंदी सिने जगत भी व्यक्ति आधारित प्रभाव से परे नहीं है। क्षेत्रीय भाषा का सिनेमा तो दशकों से राजनीतिक रहा ही है। शिकंजा बढ़ता ही जा रहा है। बेनामी दान के माध्यम से कॉर्पोरेट फंडिंग की सुविधा है जिससे राजनीतिक वित्त का बड़ा हिस्सा पहुंच रहा है। इस बीच नागरिक समाज के संगठनों की फंडिंग के स्रोतों को जकड़ा जा रहा है। लुटियन जोन के बाशिंदों पर हमले की शुरुआत जिमखाना क्लब का प्रबंधन छीनकर की जा चुकी है। ऐसी पहल अपेक्षाकृत आसान हैं क्योंकि नागरिक समाज के अधिकांश संस्थानों के संचालन मानक कमजोर हैं। इसके अलावा सत्ता प्रतिष्ठान की आलोचना करने वाले लोगों में कर वंचना कमजोर पक्ष है। नियंत्रण या अनुपालन का दबाव अब लुटियन दिल्ली के एक या दो संस्थानों या थिंक टैंक पर केंद्रित है।
ऐसी बातें उस आलोचना की धार कुंद करती हैं जिनमें कहा जाता है कि सरकारी कर छापे और अन्य एजेंसियों की कार्रवाई सरकार के आलोचकों पर केंद्रित होती हैं। लेकिन फिर भी निशाना बनाया जाना स्पष्ट है और संदेश भी साफ है। उच्च शिक्षा भी ऐसा ही एक क्षेत्र है। देश के दो सर्वाधिक रैंकिंग वाले शिक्षा संस्थानों-जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया पर अलग-अलग तरीके से कार्रवाई की गई लेकिन ये इकलौते संस्थान नहीं हैं। नियंत्रण के लिए अपने मनपसंद कुलपति के चयन को प्राथमिकता दी जाती है जो ऊपर से बदलाव लागू करता है। लेकिन पुलिस बल का प्रयोग भी किया गया है। इस बीच स्कूली पुस्तकों को दोबारा लिखने का सिलसिला जारी है और इस दौरान समकालीन भारतीय इतिहास से नेहरू का नाम मिटाने वाले बदलाव लागू किए जा रहे हैं।
कई बार सरकार सीमा का अतिक्रमण कर देती है। मसलन आदेश दिया गया कि ऑनलाइन वैज्ञानिक सेमीनार में भाग लेने के लिए पूर्व अनुमति की जरूरत होगी, हालांकि बाद में इसे वापस ले लिया गया। डिजिटल समाचार माध्यम को लेकर बने नए नियम भी वापस लेने पड़ सकते हैं क्योंकि संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। हालांकि अदालतें भी अब व्यक्तिगत स्वतंत्रता को लेकर क्या निर्णय देंगी, कहा नहीं जा सकता। सरकार अपनी तय दिशा में कितना आगे जाएगी यह इस बात पर निर्भर करता है कि घरेलू संस्थान किता प्रभावी प्रतिरोध करते हैं और सरकार अंतरराष्ट्रीय निंदा का कितना जोखिम उठाने को तैयार है। इस बीच यदि राहुल गांधी को लगता है कि आपातकाल लगाना एक ‘गलती’ (लाल बत्ती का उल्लंघन करने जैसी) थी और कांग्रेस ने संस्थानों पर कब्जा नहीं चाहा, तो उन्हें इतिहास का ज्ञान बढ़ाने की जरूरत है। उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के स्वतंत्र न्यायाधीशों के दमन, ‘प्रतिबद्ध’ अफसरशाही की चाह और आकदमिक जगत, शोध संस्थानों और सांस्कृतिक संगठनों में अनुकूल वैचारिकी वाले लोगों को भरे जाने के बारे में पढऩा चाहिए। तोल्सतोय का एक कथन प्राय: उद्धृत किया जाता है: ‘खुश परिवार एक जैसे होते हैं, हर नाखुश परिवार अपनी तरह से नाखुश होता है।’ इसी तरह अधिनायकवादी शासन भी एक जैसे होते हैं, भले ही वे किसी भी दल के हों, किसी भी समय, स्थान और संदर्भ में हों। हालांकि हर दमित राजनीति भी अपनी तरह से नाखुश होती है।
