लाख कोशिश के बावजूद भी दुनिया भर में बाल श्रमिकों के मामले में हमारा देश आज भी नंबर एक की कुर्सी पर मौजूद है।
इसकी एक मिसाल आपको कोयम्बटूर से मुन्नार जाते वक्त मिल सकती है। इस पांच घंटे के ड्राइव में आपको कई खूबसूरत घाट मिलेंगे, लेकिन हो सकता है कि इसी सफर के दौरान आपकी मुलाकात एक चाय की दुकान पर मिठाईलाल टिकरी से हो जाए।
जी नहीं, वह दुकान का मालिक नहीं है। वह तो 10 साल का एक छोटा सा बच्चा है, जो आपको दुकान की फर्श साफ करते हुए मिल जाएगा। साथ ही, अपने मालिक के चिल्लाने पर वह आपसे ऑर्डर लेने के लिए भी आ जाएगा।
मिठाई की फटी हुई पैंट और गंदी कमीज को देखकर आप आसानी से अंदाजा लगा सकते हैं कि टूरिस्ट सीजन के पूरे शबाब पर होने के बावजूद यहां पयर्टक क्यों नहीं आते। आखिरकार, अपनी सेहत को लेकर सतर्क रहने वाले टूरिस्ट एक ‘गंदे’ बच्चे के हाथ से चाय लेना तो पसंद करेंगे नहीं। मिठाई का कहना है कि उसके पिता कोयम्बटूर की एक तौलिया फैक्टरी में मजदूर थे। उनकी दो साल पहले मौत हो गई। उसकी मां, पास के एक ढाबे में खाना बनाती है।
मिठाई का मालिक छोटी सी गलती होने पर भी उसके कान उमेठ देता है, लेकिन उस मासूम को यह बुरा नहीं लगता। वजह ‘बहुत बड़ी’ है। उसका कहना है कि मालिक उसे हर दिन मुफ्त में खाना और तनख्वाह के नाम पर हर दिन पूरे 10 रुपये देता है। और तो और वह रात को आठ बजे के बाद अपनी मां के साथ अपने घर भी जा सकता है।
उस बच्चे ने चाय परोसते वक्त हमसे गुजारिश की कि जब हम पैसे देने के लिए उसके मालिक के पास जाएं तो इन बातों का जिक्र न करें। असल में उसके असली नाम को तोड़-मरोड़ मिठाई बना दिया गया है। मिठाई तो बस एक नजीर है भारत की खूबसूरत तस्वीर पर लगे बालश्रम के धब्बे की। यह हालत तो तब है, जब केंद्र सरकार को डेढ़ साल से ज्यादा अरसा हो गया कानून बनाए हुए।
इस कानून के तहत बच्चों को घरों या रेस्तरां या ढाबों में नौकर के तौर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। वैसे हकीकत में तो यह 1986 के बाल श्रम कानून का एक विस्तार भर ही है, जिसके तहत बच्चों को खतरनाक कामों में लगाने को प्रतिबंधित कर दिया गया। अपने मुल्क के पास आज भी बाल श्रमिकों के मामले में सबसे बड़ा देश होने का कुख्यात खिताब है।
आधिकारिक आंकड़ों की मानें तो इनकी तादाद 1.1 करोड़ है, जबकि असल मायने में इनकी संख्या 10 करोड़ से भी ज्यादा होगी। इस बात के सबूत हैं देश भर में फैले हुए मिठाई जैसे बच्चे। वह आज भी घरों के फर्श साफ कर रहे हैं, कड़ी धूप में पत्थर तोड़ रहे हैं, खेतों में 16-16 घंटों तक काम कर रहे हैं, शहरों की गलियों में प्लास्टिक की बोतलें चुन रहे हैं या फिर हाईवे के किनारे बने हुए ढाबों में काम कर रहे हैं। कानून भले ही बना दिए गए हों, लेकिन हकीकत तो यही है कि खतरनाक काम करने वालों में बच्चों की तादाद बढ़ती ही जा रही है।
सुरक्षा एजेंसियों ने कुछ कदम तो उठाए हैं, लेकिन ऐसे कदमों को आप उंगलियों पर गिन सकते हैं। अब दिल्ली के जरदोजी वर्कशॉप्स पर कुछ दिनों पहले हुए पुलिस की रेड को ही ले लीजिए, जिसे न्यूज चैनलों पर खूब बढ़ाचढ़ा कर दिखाया गया था। उस समय पांच से 15 साल के 550 लड़कों को उन दुकानों से बचाया गया था, लेकिन इस मामले में कोई फैसला नहीं किया जा सका कि उन लोगों को आखिर कहां रखा जाए।
इसलिए उन्हें एक खाली शॉपिंग मॉल में एक हफ्ते तक बंद करके रखा गया, जिसके बाद उनकी हालत और भी बदतर हो गई। उनकी हालत तब तक वैसी ही रही, जबतक उन्हें दूसरे ठिकाने नहीं मिल गया। फिर जब से टीवी कैमरों ने उनकी तरफ ने मुंह मोड़ लिया, तब से तो किसी नेउन बच्चों के बारे में सुना भी नहीं है। अब मिसाल के तौर पर बीड़ी उद्योग को ही ले लीजिए।
औसतन एक दिन में एक बाल मजदूर कम से कम 1500 रुपये की बीड़ी बना लेता है, लेकिन उसे मजदूरी के नाम पर केवल नौ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलते हैं। ऊपर से यहां काम करने का मतलब होता है, बीमारियों को दावत देना। तंबाकू की टोकरी के ऊपर झुककर लंबे समय तक काम करने से शारीरिक विकास में दिक्कतें आ जाती हैं। साथ ही, तंबाकू की धूल के संपर्क में लंबे समय तक रहने से फेफड़ों में तरह-तरह की बीमारी होने का खतरा रहता है।
जो समुदाय खास तौर पर बीड़ी बनाने के काम में लगे रहते हैं, उनके बीच टीबी के मामले खास तौर पर देखने को आते हैं। ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट की मानें तो देश का हरेक उद्योग में बाल श्रम कानून के बचाव प्रावधानों का खुलेआम उल्लंघन होता है।
जिन प्रावधानों का उल्लंघन होता है, उनमें खास तौर तीन घंटे के काम के बाद एक घंटे के आराम, छह घंटे के अधिकतम काम, सुबह आठ बजे से पहले या शाम को सात बजे के बाद काम पर रोक, एक दिन की जरूरी छुट्टी और स्वास्थ्य व सुरक्षा से जुड़े हुए कायदे मुख्य रूप से शामिल हैं। हालांकि, ऐसे भी मिसालें मौजूद हैं, जो इस अंधेरे में रोशनी की किरण के तौर पर मौजूद हैं।
हालांकि, यह मिसालें पुलिस या दूसरी सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से नहीं, बल्कि कुछ एनजीओ की तरफ से आईं हैं। अब सेतु नाम के एक एनजीओ और यूनिसेफ के उदाहरण को ही ले लीजिए। इन्होंने अपनी रिपोर्ट में महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के एक छोटे से गांव प्रभाबनी के एक बूचड़खाने में काम करने वाले बच्चों से बात की। उन बच्चों ने बताया कि उन्हें अपने छोटे-छोटे हाथों से जानवरों को मारना और काटना पड़ता था।
उस बूचड़खाने में काम करने वाले आधे से ज्यादा कर्मचारी 6 से 14 साल के मासूम बच्चे थे। उन्हें जानवरों को मारना पड़ता, उनकी खाल उतारनी पड़ती और उन्हें काटना पड़ता। ये बच्चे स्थानीय कुरैशी समुदाय से ताल्लुक रखते थे, जो सदियों से यही काम करता आ रहा था।
उस बूचड़खाने का मालिक बच्चों को अपने पे रोल पर नहीं दिखाकर कानून से भी बच जाता था। उन दोनों संस्थाओं ने उस नरक में काम कर रहे 550 बच्चों का पुनर्वास कराया। उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं मुहैया करवाईं। ऐसी मिसालें ही तो मिठाईलाल जैसे बच्चों के लिए उम्मीद की किरणें हैं।