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  लेख  कुछ तो मजबूरियां रही होंगी मार्गरेट अल्वा की
लेख

कुछ तो मजबूरियां रही होंगी मार्गरेट अल्वा की

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —November 14, 2008 10:12 PM IST
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अगर किसी व्यक्ति की अनुशासन लागू करने की जिम्मेदारी हो लेकिन खुद उसे पार्टी अनुशासन का उल्लंघन करने के आरोप पर सफाई देनी पडे तो यह वाकई बड़ा दुखद है।


मार्गरेट अल्वा कांग्रेस की बहुत ही अनुभवी नेता और वरिष्ठ प्रबंधकों में से एक हैं। अपने पूरे राजनीतिक जीवन में जब उन्हें लगा कि कुछ गलत हो रहा है, वह कभी भी सच बोलने से नहीं चूकीं। और एक बार फिर आप उनके इस रूप को देख सकते हैं।

पी. वी. नरसिंह राव जब प्रधानमंत्री थे और पार्टी आर्थिक सुधारों को लागू करने की कोशिश कर रही थी, वह अकेली ऐसी नेता थीं जिन्होंने सीधे तौर पर कहा कि सरकार ने सुधारों के बारे में आम लोगों को नहीं बताया। उन्होंने पार्टी नेतृत्व से स्पष्ट रूप से कहा कि ‘जनता को यह बताया जाना चाहिए कि एक अच्छी अर्थव्यवस्था, अच्छी राजनीति भी होती है।’

महासचिव और महाराष्ट्र प्रभारी रहते हुए उन्होंने देखा कि उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख पर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के शरद पवार का कितना प्रभाव है। इसी के मुताबिक उन्होंने कोशिश की कि वहां पर शासन कर रहे डेमोक्रेटिक फ्रंट में तीन मोर्चे तैयार हो जाएं।

पहले मोर्चे पर शरद पवार थे तो दूसरे मोर्चे पर देशमुख। इसके अलावा एक तीसरी ताकत को भी खड़ा कर दिया गया, वह थे नारायण राणे। इसका उद्देश्य था कि अगर देशमुख एनसीपी से नजदीकियां बढ़ाते हैं तो राणे उन पर लगाम लगाएं। 

हो सकता है कि यह गलत अवधारणा रही हो, लेकिन अल्वा ने अपने इस फैसले को जारी रखा। बहरहाल देशमुख ने अपना मुंह बंद रखने से इनकार कर दिया और शरद पवार ने दिल्ली में शिकायत की कि महासचिव भेदभाव बरत रही हैं। उस समय अल्वा पर यह भी आरोप लगा कि वह महाराष्ट्र में कांग्रेस के एक धड़े की महासचिव बनकर रह गई हैं, जिससे उनको खीझ हुई, लेकिन वह अपने फैसलों पर बरकरार रहीं।

महाराष्ट्र में इस समय विकट स्थिति को देखते हुए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। अल्वा कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ा जिले की रहने वाली हैं। लेकिन 2004 के लोकसभा चुनावों में वह कन्नड़ा लोकसभा क्षेत्र से मैदान में उतरीं, जो दक्षिण कन्नड़ा से सटा हुआ है। वह 33,000 मतों के अंतर से चुनाव हार गईं।

लोकसभा चुनावों के साथ ही विधानसभा चुनाव भी हुए। एक विधानसभा क्षेत्र- खानापुर में कांग्रेस जीतने से चूक गई। वहां पर प्रत्याशी मुस्लिम थे- रफीक खानापुरे। वह 600 मतों से हारे, जो न्यूनतम मतों से कांग्रेस की हार थी। इस साल की शुरुआत में जब विधानसभा चुनाव हुए, अल्वा ने अपनी बात स्क्रीनिंग कमेटी के सामने रखी, जिसकी अध्यक्षता कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह कर रहे थे।

उन्होंने अपने बेटे निवेदित को बेंगलुरु की सर्वज्ञानगर सीट देने का आग्रह किया। उनका कहना था कि अगर यह नहीं तो उसे खानापुर सीट दी जाए। स्क्रीनिंग कमेटी ने इस मसले पर विचार किया। परिसीमन के चलते बेंगलुरु में सीटें दोगुनी से ज्यादा हो गईं थीं।  लेकिन हर सीट पर पहले से ही प्रत्याशी तय किए जा चुके थे। अल्वा और उनका परिवार कन्नड़ा का प्रतिनिधित्व करता था।

वहीं  भले ही रफीक खानापुरे चुनाव हार गए थे, लेकिन वह लंबे समय से अपने क्षेत्र से जुड़े हुए थे।  क्या यह बेहतर होता कि किसी के बेटे के लिए एक ऐसे कार्यकर्ता की उपेक्षा की जाती, जो अपने क्षेत्र में शुरू से लगा हो। सच कहें तो ऐसा नहीं था कि किसी बड़े नेता के बेटे, बेटी या संबंधी को टिकट न मिला हो।

पार्टी ने हालांकि पूर्व रेल मंत्री सीके जाफर शरीफ के नाती को टिकट नहीं दिया, लेकिन उनके एक दामाद को टिकट दिया गया। पूर्व कांग्रेस सांसद आरएल जालप्पा के पुत्र को कांग्रेस का टिकट दिया गया। इसके साथ दो वर्तमान सांसदों ने अपने लड़कों के लिए टिकट मांगा और उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी।

उन्होंने ऐसी हालत पैदा कर दी कि वहां के क्षमतावान नेताओं को टिकट नहीं मिल सका, और उनके बेटों को टिकट मिल गया। यह अलग बात है कि दोनों चुनाव हार गए। खानापुर अनूठी सीट है। यह महाराष्ट्र और कर्नाटक के सीमावर्ती जिले बेलगाम में आती है, इसलिए बड़ी संख्या में यहां मराठी लोग भी हैं।

वहां पर मराठा जाति ही बहुसंख्यक है। इसलिए अगर मराठा जाति के डमी प्रत्याशी उतार दिए जाते हैं, तो यह सीट अन्य समुदाय के कब्जे में चली जाती है। कांग्रेस में आए राणे अल्वा के एकमात्र मददगार थे, जो अगर मराठी वोटों का ध्रुवीकरण अल्वा के पक्ष में कराने में कामयाब होते तो अल्पसंख्यक ईसाई को यह सीट मिल सकती थी।

अल्वा ने शायद यह भी सोचा था कि वे अपनी महाराष्ट्र की ताकत कर्नाटक में प्रयोग कर सकती हैं। ज्यादातर लोग इस बात से वाकिफ थे कि इस बार खानापुर सीट पर महाभारत होने जा रहा है। अगर अल्वा इस क्षेत्र में ताकतवर थीं तो वहीं कांग्रेस नेता आरवी देशपांडे भी उतने ही ताकतवर थे, जो उसी क्षेत्र के रहने वाले हैं।

जो लोग अल्वा के ताजा बयान पर आश्चर्य कर रहे हैं, जो 6 महीने पहले बीत चुकी घटना के बाद उठाया गया, उन्हें इन 6 महीनों में हुई तमाम घटनाओं पर जरूर गौर करना चाहिए। महाराष्ट्र कांग्रेस समिति के प्रमुख प्रभा राव को पदोन्नति देकर गवर्नर बना दिया गया है।

देशपांडे कर्नाटक कांग्रेस के अध्यक्ष बना दिए गए हैं। लेकिन अल्वा को कुछ भी नहीं मिला। यहां तक कि उनके बेटे को भी टिकट नहीं दिया गया, जबकि उन्होंने सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि वह खानापुर सीट से चुनाव लड़ने वालों में से एक होंगे।

अब ऐसे में अगर कोई कर्नाटक में टिकट बेचे जाने के उनके बयान का समर्थन करता है तो यह आश्चर्य की बात है।  उनके समर्थकों में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री पी शिवशंकर, कर्नाटक में मंत्री रहे और सांसद आरएल जालप्पा, और जाने माने कुरुबा नेता सिध्दारमैया आदि शामिल हैं। इन सभी बदलावों में कुछ और बातें उभरकर सामने आती हैं।

क्या इस नाटक के पीछे कुछ और भी है? अल्वा के निशाने पर वास्तव में दिग्विजय सिंह हैं। वे इस समय स्क्रीनिंग कमेटी के चेयरमैन हैं। ऐसा माना जा रहा है कि दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी के बहुत करीबी हैं।  असली चिंता उन लोगों को है, जो सोनिया गांधी को खतरों के प्रति आगाह कर रहे हैं।

क्या अल्वा को दिग्विजय सिंह पर हमले करने और उनकी छवि को धूमिल करने की छूट मिलनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कांग्रेस की ऐसी राजनीति है, जिसमें कुछ लोगों ने दिग्विजय सिंह सहित अन्य नेताओं को निशाना बनाने के लिए अल्वा को बलि का बकरा बनाया। अब कांग्रेस इस मामले का किस तरह से समाधान करती है, यह उसके अनुभव पर निर्भर करता है। लेकिन एक बात तो साफ है- कांग्रेस के भीतर चापलूसी जिंदा रहेगी।

there should be atleast problem with margret alwa
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