आर्थिक सुधारों के पिछले दो दशकों में सांसदों ने श्रम कानूनों में सुधार के लिए गंभीर प्रयास नहीं किए। हालांकि इस दौर में किसी भी व्यक्ति को अपने स्थान पर काबिज रहने के लिए काफी तेज भागना पड़ता है ताकि वह पीछे न छूट जाए।
कानून निर्माताओं की इसी जड़ता ने अदालतों पर बोझ बढ़ा दिया है और उन्हें नए परिदृश्य में पुराने कानूनों की विवेचना करनी पड़ती है। इसका एक रोचक उदाहरण उच्चतम न्यायालय के उस फैसले से मिलता है जब वर्ष 2005 में (यूपी राज्य बनाम जय बीर सिंह मामले में) उसने ‘उद्योग’ को फिर से परिभाषित करने का आदेश दिया।
साल 1978 में ‘बेंगलूर जल आपूर्ति’ मामले में उद्योग की जो परिभाषा तय की गई थी, वह पुरानी हो गई थी और तर्कसंगत नहीं जान पड़ती थी। हालांकि संविधान पीठ के पास इतना समय नहीं था कि वह इस परिभाषा पर फिर से विचार कर सके और जरूरत पड़ने पर उसमें बदलाव ला सके।
इधर अदालत आकस्मिक, अस्थायी, दैनिक भत्ता पाने वाले मजदूरों से जुड़े कई मामलों में फैसला सुनाती रही है। उन्हें नियमित करने की मांग से जुड़े अनेक मामलों में फैसला सुनाया गया पर फिर भी इनमें कोई स्पष्टता नहीं पाई गई। हाल ही के हफ्तों के दो फैसलों पर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि किस तरह दो मजदूरों ने अपनी जिंदगी के महत्त्वपूर्ण सालों को कानूनी लड़ाई में गंवा दिया।
उन्होंने अपनी मांगों को लेकर श्रम अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक का दरवाजा खटखटाया और दिलचस्प है कि दोनों ही मामलों में अलग अलग फैसला सुनाया गया। पहला मामला कुछ इस तरह का था। उत्तर प्रदेश विद्युत बोर्ड ने 1984 में एक कुली को नियुक्त किया था और दो साल बाद नौकरी से उसकी छुट्टी कर दी। उसने बोर्ड की इस कार्रवाई को 10 साल बाद चुनौती दी और यह मांग की कि उसे नियमित किया जाए।
श्रम अदालत ने कहा कि उस मजदूर को नौकरी से निकालना राज्य औद्योगिक विवाद कानून की धारा 6एन के खिलाफ है और इस तरह उसे बहाल किया जाना चाहिए। बिजली बोर्ड ने इस फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी, पर बोर्ड ने उसकी अपील को खारिज कर दिया। यहां तक कि उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि मजदूर को जितने समय के लिए नौकरी से हटाया गया था, उस अवधि का वेतन उसे दिया जाए।
यह रकम 7,00,000 रुपये के करीब आती थी। तब बोर्ड ने उच्चतम न्यायालय में अपील की जहां उसे जीत मिली। अदालत ने कहा कि मजदूर ने बोर्ड के साथ महज दो साल तक ही काम किया था और इसके एवज में उसे पर्याप्त मुआवजा दिया जा चुका है।
पहले उच्चतम न्यायालय का मानना था कि अगर किसी व्यक्ति की बर्खास्तगी अवैध पाई जाती है तो उसे फिर से नियुक्त किया जाना चाहिए और जितने समय के लिए उसे नौकरी से बाहर रखा गया था उस अवधि के लिए उसे पूरा वेतन भुगतान भी किया जाए।
हालांकि धीरे धीरे समय बीत जाने के साथ अदालत की राय बदल कर यह हो गई कि इस दौरान कामगार ने अगर कोई काम नहीं किया है या फिर उसका योगदान अगर काफी कम रहा है तो ऐसे में किसी भी उद्योग या कंपनी को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह उस कामगार को पूरा भुगतान करे।
वहीं अब अदालत की राय बदल कर यह हो गई है कि सिर्फ इस वजह से कि कानून में ऐसा कहा गया है, किसी व्यक्ति को ऐसे में कोई मुआवजा पाने का अधिकार नहीं है। अदालत की राय बदलने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह रही है कि, ‘समय के साथ बाजार अर्थव्यवस्था, वैश्वीकरण, निजीकरण और आउटसोर्सिंग के बीच सरकार के नीतिगत फैसलों में भी बदलाव आया है। मौजूदा समय में सबसे उपयुक्त यही है कि बर्खास्त किए गए मजदूर को पिछले वेतन के भुगतान के साथ बहाल करने से बेहतर है कि उसे उचित मुआवजा दिया जाए।’
इस फैसले के कुछ ही दिनों बाद अदालत के पास न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी के एक सफाई कर्मी का मामला आया जो 19 साल से अपनी मांग को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटा रहा था। वर्ष 1986 में शंकरलिंगम को बहाल किया गया था।
औद्योगिक विवाद कानून के मुताबिक अगर कोई कर्मचारी किसी संगठन में एक साल में लगातार 240 दिन तक काम करता है तो उसे नियमित किया जाना चाहिए। इसी कानून का हवाला देते हुए शंकरलिंगम ने तीन साल बाद खुद को नियमित करने की मांग की। कंपनी ने उसे नौकरी से ही निकाल दिया और इसे लेकर लंबे समय तक कानूनी लड़ाई चली।
औद्योगिक न्यायाधिकरण ने मजदूर की याचिका खारिज कर दी। पर मद्रास उच्च न्यायालय ने पूरी अवधि के भुगतान के साथ उसे बहाल करने के आदेश दिए। सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले को बनाए रखा। यह फैसला यूपी विद्युत बोर्ड मामले में दिए गए फैसले से बिल्कुल उलट पाया गया।
तलवारा कोऑपरेशन क्रेडिट ऐंड सर्विस सोसाइटी बनाम सुशील कुमार मामले में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने जो फैसला सुनाया, वह उसकी नई मान्यताओं के अनुरूप ही था। वर्ष 1987 में कोऑपरेशन कार्यालय में एक क्लर्क को नियुक्त किया गया था। तीन साल बाद उसे बर्खास्त कर दिया गया। उसने अपने बर्खास्तगी को अदालत में चुनौती दी और यह मामला दशकों तक चला।
जब यह मामला चल रहा था, उसी दौरान कोऑपरेटिव सोसाइटी एक बीमार इकाई में बदल गई। उच्चतम न्यायालय ने मामले को खत्म करते हुए कोऑपरेटिव सोसाइटी को आदेश दिया कि कर्मचारी को 2,00,000 रुपये का मुआवजा चुकाया जाए।
अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा, ‘ऐसे मामलों में नौकरी पर बहाल करना कोई कानून नहीं है। न ही यह बाध्यकारी है कि पिछला पूरा भुगतान किया जाए। औद्योगिक अदालतों को चाहिए कि वे इस तरह के मामलों में संतुलन बनाए रखें। नियुक्ति किस तरह की थी, रोजगार कौन सा था और ऐसे कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं पर नजर दौड़ाने के बाद ही कोई फैसला सुनाया जाना चाहिए।’
करीब दो हफ्ते पहले ही स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) और पश्चिम बंगाल सरकार के एक मामले में फैसला सुनाया गया है। इस मामले से एक बार फिर यह बात सामने निकलकर आई कि मजदूरों से जुड़े मामलों में बिना मतलब के ही काफी समय लग जाता है। मामला एक बार फिर से नियमित करने को लेकर था। नेशनल यूनियन ऑफ वॉटर फ्रंट वर्कर्स के सदस्यों को नियमित करने की मांग थी।
मामले की शुरुआत 1987 में हुई और इस दौरान दो दो बार कलकत्ता उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हुई। सेल को इस मामले में जीत मिली पर यह भी साफ हो गया कि अगर कानून में इस विषय को लेकर स्पष्टता होती तो कम समय में ही फैसला आ सकता था।