किसान असंतुष्ट और असहज क्यों हैं? इसकी वजह है खेती के काम में मुनाफा नहीं रह जाना। फसलों की खेती से होने वाली आय एक औसत किसान परिवार की आजीविका के लिए पर्याप्त नहीं होती। ऐसे में उसे अन्य स्रोतों से पूरक आय की आवश्यकता होती है। इसमें प्रमुख तौर पर मेहनताने वाले रोजगार और कृषि से संबद्ध अन्य गतिविधियां शामिल हैं। अधिकांश किसानों को अपनी घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिए ऋण लेना पड़ता है। किसानों के बीच कर्ज तेजी से बढ़ रहा है।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान ने वर्ष 2018-19 में कृषि से जुड़े परिवारों की स्थिति का जो आकलन किया था, उससे भी यही तथ्य निकलता है। इस सर्वे की रिपोर्ट इस वर्ष सितंबर में जारी की गई। इससे साफ संकेत मिलता है कि एक औसत किसान परिवार अब खेती की तुलना में श्रम करके अधिक आय अर्जित करता है।
एक परिवार की 10,210 रुपये की औसत पारिवारिक आय में फसलों का योगदान केवल 3,798 रुपये का होता है। 4,063 रुपये की राशि मेहनताने से आती है जबकि शेष राशि अन्य स्रोतों से प्राप्त होती है। इसके विपरीत सन 2012-13 में फसल से होने वाली आय 3,081 रुपये थी और मेहनताने से केवल 2,071 रुपये की राशि मिलती थी।
स्पष्ट है कि फसलों की खेती जो कृषि का मूल है, वह अब आय के स्रोत के रूप में उतना महत्त्वपूर्ण नहीं रह गई है जितने कि अन्य साधन। यदि किसान केवल फसल उगाने पर निर्भर रहेंगे तो पूरी संभावना है कि उनकी आय अकुशल मजदूर से भी कम रह जाए। केवल वही किसान अपवाद हैं जिनकी फसल को सरकारी खरीद एजेंसियां न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर खरीदती हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि बड़ी तादाद में किसान इस पेशे को छोड़ रहे हैं। यही वजह है कि खेती न करने वाले ग्रामीण परिवारों की तादाद 2013 के 6.6 करोड़ से बढ़कर 2019 में आठ करोड़ हो गई। एक और बात जो उतनी ही या शायद ज्यादा चिंतित करने वाली है वह है कृषक परिवारों पर बढ़ता कर्ज। ऐसे एक परिवार पर 2012-13 में जहां औसतन 47,000 रुपये का कर्ज था वहीं अब यह बढ़कर 74,121 रुपये हो चुका है। ऐसे में जहां किसानों की महंगाई से समायोजित के बगैर आय इस अवधि में करीब 60 फीसदी बढ़ी है वहीं उनका औसत कर्ज भी लगभग इसी अनुपात में यानी 57 फीसदी बढ़ा है। चूंकि इस कर्ज का बड़ा हिस्सा असंगठित स्रोतों मसलन साहूकार आदि से लिया जाता है इसलिए कर्ज चुकाने की लागत भी सामान्य से बहुत अधिक होती है। साहूकार अक्सर 20 फीसदी से अधिक की दर से ब्याज वसूलते हैं जबकि संस्थागत कृषि ऋण केवल 3-7 फीसदी की अल्प दर पर उपलब्ध होता है। इसके अलावा कृषि की कारोबारी शर्तें (कृषि बनाम गैर कृषि मूल्य) भी खेती के प्रतिकूल हो रही हैं। इससे संबंधित आंकड़े जो कृषि मंत्रालय ने एकत्रित किए हैं उनसे पता चलता है कि इसका स्तर 2016-17 के 99.07 फीसदी से घटकर 2018-19 में 96.43 फीसदी रह गया है।
किसानों की बदकिस्मती यहीं नहीं समाप्त होती। उनकी उत्पादक परिसंपत्ति मसलन जमीन और पानी का आकार और गुणवत्ता भी कमतर हो रहे हैं। एक औसत किसान का रकबा जो 2000 के दशक के आरंभ में 0.8 हेक्टेयर था वह 2019 में 0.5 हेक्टेयर रह गया। इतना ही नहीं ये खेत भी बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे होते हैं। कुछ का आकार तो इतना छोटा होता है कि खेती करना ही मुश्किल होता है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि कई किसान इस जमीन को यूं ही पड़ा रहने देते हैं या फिर बेच देते हैं। इसके चलते ग्रामीण इलाकों में भूमिहीनों की तादाद बढ़ी है।
कृषि क्षेत्र की दिक्कतों का हल खेती के काम को मुनाफे के सौदे में बदलने में निहित है। इसके लिए विभिन्न मोर्चों पर सुविचारित कदम उठाने की जरूरत है। सबसे बुनियादी जरूरत है खेती के रकबे का आकार बढ़ाना ताकि उसे आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य बनाया जा सके। आजादी के बाद भूमि सुधारों में खेती के रकबे को सुदृढ़ करने की कवायद की गई थी। उसे एक बार फिर दोहराया जा सकता है। कुछ राज्यों में उस कवायद की सफलता ने ही हरित क्रांति का आधार तैयार किया था। परंतु आज उसे दोहराना व्यावहारिक नहीं लग रहा। अब व्यावहारिक हल यही है कि जमीन को पट्टे पर देने की प्रक्रिया को वैध कर दिया जाए। इससे किसानों को यह सुविधा मिलेगी कि वे बिना मालिकाना गंवाने की आशंका के अपनी जमीन पट्टे पर दे सकें। इसके अलावा उत्पादन और मुनाफा सुधारने पर ध्यान देने की जरूरत है। एकफसली खेती की जगह एकीकृत कृषि प्रणाली को अपनाया जाना चाहिए। इसमें मिश्रित फसलों के साथ खेती से जुड़ी अन्य गतिविधियों मसलन पशुपालन, पोल्ट्री, मछलीपालन, मधुमक्खी पालन, बागवानी, कृषि-वानिकी आदि को अपनाया जाता है। इससे इन उपक्रमों में सामंजस्य बनाने में मदद मिलती है। इनमें से कुछ गतिविधियों के सह उत्पाद और अपशिष्ट पदार्थ अन्य के लिए कच्चे माल का काम कर सकते हैं। इससे उत्पादन लागत कम होगी और उत्पादकता में सुधार होगा।
कृषि विपणन की बात करें तो चूंकि पूरे देश में सभी फसलों को एमएसपी पर खरीदना असंभव है इसलिए उत्पादकों को मिलने वाले कम प्रतिफल की भरपाई मध्य प्रदेश में अपनाई गई भावांतर भुगतान जैसी योजना के माध्यम से की जा सकती है। किसानों की उपज को उस मौसम में बेचने में मदद की जा सकती है जब कीमतें आमतौर पर ज्यादा रहती हैं। कृषि उपज का मूल्यवद्र्धन करने तथा लंबे समय तक टिकने वाले उत्पाद तैयार करने पर जोर दिया जाना चाहिए। एक कदम आगे बढ़ा जाए तो प्रत्यक्ष आय समर्थन जो फिलहाल 6,000 रुपये वार्षिक तय है, उसे बढ़ाया जा सकता है।
