ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में तीसरी बार शपथ ले चुकी हैं। हालांकि उन्हें छह महीने के भीतर राज्य विधानसभा की सदस्यता लेनी होगी। अब यक्ष प्रश्न यह है कि वह किस सीट से अपनी दावेदारी पेश करेंगी? एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या निर्वाचन आयोग चुनाव आयोजित करेगा? इस समय पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के पास तीन विकल्प मौजूद हैं। दो सीटों जंगीपुर और शमशेरगंज विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों की कोविड-19 से मौत होने के बाद वहां चुनाव नहीं हुए थे। राज्य की 294 सीटों में 292 सीटों पर ही चुनाव कराए गए। राज्य की खरदाहा सीट से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की उम्मीदवार काजल सिन्हा विजयी रही थीं, उनकी भी कोविड-19 की वजह से मृत्यु हो गई। इस तरह यह सीट भी अब खाली है।
राज्य से दो लोकसभा सदस्यों-निशीथ प्रमाणिक (कूचबिहार) और जगन्नाथ सरकार (राणाघाट) भी विधानसभा चुनाव में उतरे थे और वे विजयी भी रहे। ऐसा समझा जा रहा है कि पार्टी उन्हें लोकसभा सीट बरकरार रखने और विधानसभा सीटों से इस्तीफा देने के लिए कह सकती है। इससे छह महीनों में दो और सीटें खाली हो जाएंगी। हालांकि इन सीटों पर चुनाव कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। संविधान और जन प्रतिनिधि कानून के अनुसार खाली हुईं विधानसभा या लोकसभा सीटों पर ‘एक उपयुक्त समय अवधि में चुनाव आयोजित किया जाना चाहिए।’
आयोग में विधि मामलों के सूत्रों का कहना है कि 1996 से पहले उप-चुनाव कराने के लिए कोई निश्चित समय सीमा तय नहीं थी। यह आयोग को तय करना था कि दोबारा चुनाव कब कराए जाएंगे। इस तरह गेंद पूरी तरह आयोग के पाले में थी। हालांकि अगस्त 1996 में जन प्रतिनिधि कानून की धारा 153 के तहत छह महीने के भीतर चुनाव कराने की जिम्मेदारी आयोग पर आन पड़ी।
एक पूर्व चुनाव आयुक्त का कहना है कि ऐसा प्रावधान मौजूद है कि अगर कोई व्यक्ति राज्य विधानसभा में सबसे बड़े दल का नेता चुना जाता है और वह विधायक नहीं है तो वह चुनाव आयोग को पत्र लिखकर खाली सीट से चुनाव लडऩे की मंशा जता सकता है। दूसरे विकल्प के तहत उनकी पार्टी का कोई विधायक इस्तीफा दे सकता है और दोबारा चुनाव कराने का रास्ता तैयार कर सकता है। इन दोनों मामलों में चुनाव आयोग को चुनाव कराने की राज्य सरकार की सिफारिशों को संज्ञान में लेना होगा।
अगर मतदाता सूची अद्यतन नहीं है तो चुनाव में देरी हो सकती है। हालांकि पश्चिम बंगाल के मामले में ऐसी बात नहीं है। यहां हाल में ही विधानसभा चुनाव संपन्न हुए हैं, इसलिए चुनाव नहीं कराने का कोई वाजिब तर्क नहीं है। वह कहते हैं, ‘वैसे भी आयोग का काम चुनाव कराना है, न कि इसमें देरी करना।’
इससे पहले कई ऐसे मौके भी सामने आए हैं जब आयोग ने संवैधानिक संस्था के आदेश के बाद चुनाव कराए हैं। उच्चतम न्यायालय ने ऐसे कई आदेश दिए हैं। हालांकि इस समय हालात अलग हैं। कोविड-19 महामारी के बीच आयोग को कई प्रश्नों से जूझना पड़ रहा है। न्यायालयों ने आयोग से मौजूदा हालात में चुनाव कराने की जरूरत पूछी है तो वहीं कुछ आदेशों में चुनाव में देरी करने की वजह पूछी गई है।
पिछले सप्ताह ही चुनाव आयोग ने कोविड-19 संक्रमण फैलने की चिंताओं के बीच कुछ विधानसभा और लोकसभा सीटों पर उप-चुनाव टाल दिए। पिछले वर्ष महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के लिए ऐसे हालात बन गए थे जब उनके सामने मुख्यमंत्री पद छोडऩे की नौबत आ गई थी। उन्होंने राज्य विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा था और महाराष्ट्र विकास आघाडी के सत्ता में आने के छह महीने के भीतर उनके लिए राज्य विधानसभा के किसी भी सदन की सदस्यता लेना अनिवार्य था। अंतत: मई 2020 में महाराष्ट्र विधान परिषद के चुनाव में ठाकरे निर्विरोध निर्वाचित हो गए। हालांकि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप के बाद ही संभव हो पाया।
राज्य मंत्रिमंडल ने 20 और 27 अप्रैल, 2020 को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को ऊपरी सदन के लिए चुनाव करने की सिफारिश की थी। ठाकरे ने स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस संबंध में बात की। इसके बाद मोदी के आग्रह के बाद राज्यपाल ने चुनाव आयोग से चुनाव कराने की सिफारिश की थी।
एक बात तो तय है कि अगर चुनाव टालने की नौबत आई तो भी चुनाव आयोग संविधान की मर्यादा से बाहर काम नहीं करेगा। जन प्रतिनिधि कानून की धारा 151 (ए) के तहत दो प्रावधान हैं। पहले प्रावधान के तहत आयोग उस स्थिति में चुनाव नहीं करा सकता है जब वह केंद्र सरकार के साथ विमर्श के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अमुक हालात में चुनाव कराना मुनासिब नहीं है। इस हालत में ममता बनर्जी के लिए क्या रास्ता बचेगा? क्या उन्हें एक वैकल्पिक योजना तैयार रखनी होगी?
बंगाल की राजनीति पर नजर रखने वाले ज्यादातर प्रेक्षकों का कहना है कि टीएमसी इस स्थिति के लिए तैयार है। एक प्रेक्षक ने कहा, ‘राज्य विधानसभा में टिकटों का बंटवारा अभिषेक बनर्जी (ममता के भतीजे और भविष्य में टीएमसी की बागडोर संभालने वाले संभावित नेता) और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने किया था। अगर ऐसी स्थिति आई तो अभिषेक को पार्टी अपने नेता के तौर पर स्वीकार कर सकती है।’
वर्ष 1997 में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद को चारा घोटाले में आरोप पत्र दाखिल होने के बाद इस्तीफा देना पड़ा था। उन्होंने पद छोडऩे के बाद अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री पद की बागडोर सौंप दी। राबड़ी को राजनीति का कोई पूर्व अनुभव नहीं था। पश्चिम बंगाल में स्थिति काफी अलग है। एक बात तो तय है कि चुनाव करने के संबंध में निर्णय तो चुनाव आयोग को ही लेना है।
